Friday, October 28, 2016

अतिशेष की स्थितयों से शालाओ को बचाओ अन्यथा,,,,,,? प्रशान्त दीक्षित खंडवा

प्रशान्त दीक्षित - खण्डवा सहित MP  के अनेक ज़िलों मे RTE  के नियमानुसार दर्ज संख्या के मान से शिक्षको की अधिक संख्या व उनका युक्ति युत करण हमारे भविष्य के दीर्घकालिक स्थिति को प्रभावित कर रहा है,,, इससे बचने बचाने के जो भी उपाय हो उन पर चिंतन आवश्यक है,,साथ ही उन पर कार्यवाही व क्रियान्वयन भी आवश्यक है अन्यथा की स्थिति अत्यंत भयावह प्रतित होती है,, कभी कभी तो इस बिंदु को लेकर नींद तक नही आती है।।अभी ब्लॉक व ज़िले के अंदर ही युक्तियुक्त करण हो रहा है, लेकिन सेटअप व्यवस्थित होने पर अन्य ज़िलों मे भी जाना पड़ सकता है,, अभी कुछ ज़िलों मे यह स्थिति हो चुकी है, जिसे युक्तियुत करने के लिए राज्य स्तर पर सूची बुलाई है,, सोचे, समझे,, आगे बढे,,, हमने संग़ठन स्तर के साथ मन्त्री जी को अनुरोध पूर्वक सुझाव दिया है कि  2 माध्यम की शिक्षा प्रणाली शासकीय शालाओ मे लागु की जाये,, (खण्डवा फार्मूला),,,इस पर माननीय शिक्षा मंत्री जी कु. विजय शाह जी ने भी अनोपचारिक सहमती व्यक्त की है।।मेरा सभी शिक्षको से अनुरोध है कि इस पर सभी विचार करें।।।जब हमारे पढ़ाये हुए बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूल मे पढ़ा सकते है, तो हम क्यों नही,,, जिस प्रकार लगभग बैंक, बीमा,, रेलवे, पोस्ट, कोष,आयकर आदि राज्य व केंद्र के  विभाग कंप्यूटर युक्त हो गए है,एवम् इसमें काम करने वाले लोकसेवक चाहे युवा हो या सेवानिवृत्ति के करीब उन्हें काम करने के लिए अपने ज्ञान को समय के साथ अपडेट करना पड़ा,,क्या हम अपने आप को समाज की शैक्षिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपडेट नही कर सकते,, यदि कर सकते है, तो उठो, जगो खुद को पहचानो,,, दीर्घकालिक सेवा के साथ 7th व 8 th वेतनमान के लिए भी आवश्यक है,और कोई बेहतर चिंतन हो वह भी स्वागत योग्य है,लेकिन सुझाव समाज की स्वतन्त्रता को बाधक न हो उनके सहयोग व विकास के लिए हो,,सोचे,, सोचे,,,, चिंतन करे ,,चिन्ता भी करे,,,,,,सादर,,,।।(लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह इनके निजी विचार हैं )

Thursday, October 27, 2016

यह प्रयास होना चाहिए की छटे वेतनमान का लाभ हम सभी अध्यापको को नियमानुसार सही तरीके से मिले- अरविन्द रावल झबुआ

अरविन्द रावल झबुआ -हम सभी का यह प्रयास होना चाहिए की छटे वेतनमान का लाभ हम सभी अध्यापको को नियमानुसार सही तरीके से मिले। हमे वेतन निर्धारण के समय पूरी दृढ़ता से अध्यापको की सेवा अवधि का और शासन द्वारा जारी निर्देशो के अनुसार मिलने वाले इन्क्रीमेंटो पर भी ध्यान आकृष्ट करवाते हुए उनका पालन भी करवाना होगा। हम अध्यापक न तो कम वेतन ले और न ज्यादा ले । हम छटे वेतनमान के नियमानुसार ही सही वेतन पुरे हक से ले । नियम से ज्यादा वेतन पाने की आस  में भविष्य में हम अध्यापको को ही भारी पड़ने वाला हे क्योंकि भविष्य में कोष एव लेखा से वेतन निर्धारण प्रत्येक अध्यापको का होना तय हे। ज्यादा वेतन यदि अध्यापको ने लिया हे तो शासन के नियमानुसार 12% मय ब्याज के वेतन से भरना पड़ेगा। हम प्रयास कर रहे हे की सही सही तरीके से अध्यापको का वेतन निर्धारण हो। उम्मीद हे दीपावली बाद 10 तारीख तक अध्यापको के छटे वेतनमान का सही वेतन वेतन निर्धारण की सारणी आ जायेगी। जिससे हम नवम्बर माह के वेतन से प्रदेश में अध्यापक सवर्ग का एक समान वेतन निर्धारण करवाने का प्रयास करेगे।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

दीपावली पर्व और छठवॉ वेतनमान-कुलदीप सिंह राजपूत, ग्वालियर।


दीपावली के इस पावन पर्व पर सबसे पहले तो सभी साथियों,को हार्दिक बधाई। आपके आने वाले दिन खुशियो से,भरपूर रहै।
अध्यापक संवर्ग की अभी तक की सबसे बडी कामयाबी 2016 और छठवॉ वेतनमान निश्चित रूप से सभी साथियों को एक बार फिर प्रदेश सरकार ने देर से ही सही पर उन सब कर्मचारियो के अनुपातिक लाकर खड़ा कर दिया जो कभी हमे बडी हेय दृष्टि और अकसर इस बात की याद दिलाते रहते थे कि यार इन्हे तो मिलता ही क्या है पर आज बराबर का ग्रेड और सम्मानजनक स्थिति जिसका पूरा श्रेय जाता है उस आम अध्यापक के संघर्ष को जो कभी भी कहीं भी अपने एक साथी की ऑवाज पर पहुच जाता रहा है। अक्टूबर माह शहडोल कॉल और चढ़ गये एक सीढी उपर।
. अब चल रहा है मुख्यमंत्री जी के स्वागत की बयार जहॉ अध्यापको का एक धड़ा चाहता है कि स्वागत हो बही दूसरे धडे का कहना है कि बिलकुल हो पर पहले बिना विसंगति एक माह का नया वेतन प्रदेश के समस्त अध्यापको के खाते मे डिलीवर हो और आम अध्यापको की ऑवॉज भी यही है क्योकि अभी सरकार ने जो दिया वह हमारी एकता और संख्याबल को मानकर दिया है न की घर बुलाकर दिया । पर अभी भी कुछ मूलभूत छोटी छोटी समस्याये है जो बिना आर्थिक लॉस के पूरी हो सकती है पर शासन की मंशा समझ से परे है जैसे स्थानांतरण,बीमा, स्थाई पेंशन, सी सी एल,और गृह भाड़ा भत्ता इसमें शायद कुछ सहमति स्थानांतरण पर बनी है जो एक नबंबर से ऑनलाईन शुरू हो रही है पर उसमे भी कुछ न कुछ लोचा अवश्य होगा क्योकि अभी तक उसका प्रारूप सामने नही है और एक नबंबर पास है खैर ।
         अब सबसे बडी बात है जो कुछ विसंगति नये वेतनमान में है जिनके लिए हमारे साथियों,ने अपने प्रयास भी तेज किये है खासकर बरिष्ट अध्यापक की क्रमौन्नति पश्चात संवर्ग वेतन जो 4200 है की लिखित कार्यवाही अन्य जो छोटी मोटी कमी है वे दूर हो साथ ही स्थानीय लेखा संपरिक्षा विभाग से सेवा पुस्तिका का सत्यापन होना मतलब संकुल के बाबू को भी साधना होगा जिससे समय सीमा में कार्यवाही पूरी हो जिसके लिए सरकार शीघ्र हमारी जो नये वेतनमान मे कमी रह गई है पूर्ण करें।
इसी आशा के साथ एक बार पुन: आप सभी को दीपावली की शुभकामनाए।
    . कुलदीप सिंह राजपूत, ग्वालियर।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं , और यह उनके निजी विचार हैं )

हम शिक्षाकर्मी और संविदा से बने 98 से 2003 तक नियुक्त अध्यापको की सेवा की गणना 2007 से क्यों कर रहे है ?-रिजवान खान

1 अंतरिम राहत का निर्धारण 2007 से सेवा की गणना करके किया गया है. वर्तमान आदेश 2013 के अंतरिम राहत आदेश के अनुक्रम में जारी किया गया है.

 2 वर्तमान गणना पत्रक में प्रथम स्टेप क्रमशः 7440 9300 और  10230 है जो की 01.01.2016 के बाद नियुक्त अध्यापको को मिलेगी. अब देखे की यह स्टेप कहां से आई है.
4000*1.86=7440
5000*1.86=9300
5500*1.86=10230
स्पष्ट है की यदि 01.01.16 के बाद नियुक्त अध्यापको की गणना पांचवे वेतन के न्यूनतम को आधार मान कर की गई है तो 2007 में संवर्ग गठन के समय नियुक्त स्मविलियित अध्यापको को भी पांचवे वेतन को आधार मानकर 01.04.2007 की स्तिथि में अपना प्रारम्भिक वेतन निर्धारित करके ही 2016 ने तत्स्थानि वेतन निर्धारित करना होगा अन्यथा यह छठे वेतन की मूल भावना से खिलवाड़ करना होगा.

 3 शासन के आदेशानुसार शिक्षाकर्मियों को अपनी सेवाओ में अध्यापक संवर्ग में निरन्तरता प्राप्त है. इसी निरन्तरता के फलस्वरूप पूर्व काल की सेवा का वेटेज तीन वर्ष की एक वेतन व्रद्धि प्रदान करके दिया गया है. अतः इस निरन्तरता के फलस्वरूप मिले आर्थिक लाभ को शून्य करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध होंगा.
          अन्य लीगल पॉइंट भी है जो समय आने पर वरिष्ठ अध्यापक साथियो द्वारा बता दिए जायेंगे. अध्यापक ने एक समय वेतन आवंटन के लिए भी जिला स्तर पर लड़ाई लड़ी है. हमारा कोई काम आसान होता ही नही है. अतः यह कार्य भी आसान नही होंगा..
कोई बात नही.....एक और सही......रिजवान खान 9424403151
(लेखक स्वय अध्यापक हैं , और यह उनके निजी विचार हैं )

Thursday, October 20, 2016

माननीय उच्च न्यायालय इंदौर का आदेश, महिला अध्यापक को सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन प्रदान करें।

माननीय उच्च न्यायालय इंदौर  का आदेश Wp-7073/16 महिला अध्यापक को सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन प्रदान करें।
माननीय उच्चन्यायालय मध्यप्रदेश की इंदौर खंडपीठ  द्वारा
1 प्रमुख सचिव आदिवासी विकास मध्य प्रदेश
2 आयुक्त आदिवासी विकास मध्य प्रदेश
3 कलेक्टर /सहायक आयुक्त रतलाम
4 BRCC  बाजना  जिला रतलाम
को महिला अध्यापक हेतु  सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन भुगतान का आदेश प्रदान किया गया। ज्ञात हो सन्तानपालन अवकाश का लाभ महिला अध्यापको  को नही दिया जा रहा था जिससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता द्वारा माननीय उच्च न्यायालय की शरण ली थी।  जिस पर  19-10-16 को माननीय उच्चन्यायालय इंदौर  द्वारा अध्यापक संवर्ग हेतु जारी राजपत्र 2008 के अवकाश नियम के प्रकाश में  अध्यापको को नियमित शिक्षको के समान स भी अवकाश की पात्रता  हैं । नियम अंतर्गत श्रीमंती अलका w/o गोपाल बोरिया जिला रतलाम की याचिका में 2 सप्ताह में सन्तानपालन अवकाश 195 दिन  का मानदेय स्वीकृत कर लाभ देने का आदेश पारित कर याचिकाकर्ता की याचिका निराकृत की गयी।
याचिकाकर्ता की और से आज एडवोहकेट श्री प्रवीण भट्ट रतलाम उपस्थित हुए।

पंचायत में कार्यरत अध्‍यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवां वेतनमान स्‍वीकृति आदेश

पंचायत में कार्यरत अध्‍यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवां वेतनमान स्‍वीकृति आदेश 
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Tuesday, October 18, 2016

नगरीय निकायों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवे वेतनमान आदेश

नगरीय निकायों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवे वेतनमान की स्वीकृति के संबंध में आदेश जारी
आदेश पीडीऍफ़ में प्राप्त करने के लिए इस लिंक पर जाए
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Sunday, October 16, 2016

संविलियन का आगाज शहडोल से -राजिव लवानिया (रतलाम)

राजिव लवानिया -ये कुछ तस्वीरें शाहडोल की हैं। देख के लगता नहीं की कल गड़ना पत्रक आया है। अगर कल आनन् फानन में वो गड़ना पत्रक इस डर से नही निकाला होता तो यक़ीनन ये संख्या इससे 4 गुना होती। लेकिन इतनी होना भी कम नहीं है। एक टीवी चैनल के अनुसार 30000 के पर हो सकती है। मतलब अगले कुछ महीनो में हमारी लड़ाई 1 लाख के ऊपर तो होगी ही ये आज तय लग रहा है।
        और जो कुछ मिला है अगर उसकी बात करूँ तो नया कुछ भी नहीं है जिसका बहुत ज्यादा उत्साह दिखा के उन्मादी संवाद किये जायें। जैसा की कुछ लोगो की पोस्ट में दिख रहा है जिस तरह से बधाई दी जा रही रही है जिस तरह से पोस्टर बनाये जा रहे हैं श्रेय की होड़ सी मची हुई है। कुछ लोग तो मिडिया का भी महिमा मंडन करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ये सब वो काम कर रहे हैं जो हमारी इस एकता के लिए इस समय घातक सिद्ध होने वाला है। सर्कार या मिडिया का प्रवक्ता बनने से अच्छा है इस समय सबको और अधिक ताकत के साथ जोड़ा जाए ताकि अगली लड़ाई जो की संविलियन की हे सबसे महत्वपूर्ण इस लड़ाई के लिए एक जमीं जो तैयार हुई है उसको और अधिक ताकत मिले। लेकिन एक दो बड़े बड़े नेता जो ये समझ रहे हैं कि ये सब उनके कारण हुआ है वो मुगालते में जी रहे हैं। आज अभी अगर ये एकता की ताकत अलग होती है तो उनको उनकी असली औकात समझ में आ जायेगी। में उन्हें आगाह करना चाहता हूँ की या तो इस एकता के पक्षधर बने रहें या फिर जितनी राजनीती उनको करनी थी और जिस लिए वो इस राजनीती में आये थे वो पूरा हो चूका है अब उनका इस एकता में कोई स्थान नहीं है। कृपया अध्यापको की भावना के साथ खिलवाड़ न करें।
          अब बात करें जो मिला है उसकी तो ये वही 2013 वाला ही तो आदेश की अगली प्रति हे। जो जरा सा एरियर मिलने वाला है वो भी किश्तों में हो गया। जो लड़ाई शुरू से थी की 7440 और 10230 की तो वो आज मिला है। लेकिन असली जीत तो हमारी उस दिन होगी जब हम भी शिक्षा विभाग के होंगे। इसलिए ये उसकी शुरुआत हे। जो छोटी मोटी विसंगति इसमें दिख रही है उसको जल्दी ही अगले आदेशों में ठीक होने ही हे। नए बजट सत्र में 7वा मिलेगा सबको तो वो हमें भी मिलेगा बस तैयारी संविलियन की होनी चाहिए। और जिस एकता के बल पे हमने आज एक दिन में ये आदेश निकलवाया हे तो इसी एकता के बल पे हम संविलियन भी ले ही लेंगे। इसलिए केवल एकता के पक्षधर ही जीवित रह पाएंगे। इसलिए सभी अध्यक्षीय मंडल सदस्यों से अनुरोध हे इस एकता को बनाएं रखें। जो भी इसके खिलाफ जाता है उसे तत्काल पद से हटाया जाए। इसे एक आम अध्यापक की चेतावनी भी समझ सकते हैं।
                एक बात और कुछ अध्यापक आज भी शवराज मोह से बाहर नही आ पा रहे हैं। सीधे सीधे कहूँ तो ये वक़्त पूरी तरह बदलाव का ही हे। जिसको  आम अध्यापक को समझते हुए आगे अपनी सोच पे विचार करना होगा। 2018 अब दूर नहीं है। सीधी और अंतिम लड़ाई अब भी नहीं हुई तो आम अधयापक हमेशा के लिए आम बन के ही रह जाएगा। हमें दुसरो की नजर में ख़ास बन के दिखाना होगा। जिस दिन हमने ये कर दिया समझो हमारा काम अपने आप हो गया।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

Saturday, October 15, 2016

नारी को बंदिशो की बेडी नही,बुलन्दियों को छूने का सबल दिजिये - राशी राठौर देवास


राशी राठौर देवास - छोटे से गाँव की शाला से निकलकर महाविद्यालय की देहलीज तक, रसोई घर से निकलकर कार्यालय तक भारतीय नारी का संघर्ष पूर्व समय की तरह चुनौती पूर्ण ही बना रहा है। इस संघर्ष को समाज समय समय पर और जटील ही बनाता रहा है। ये बंदिशे, सीमाऐ, ये प्रतिबंध ये फायदे के कायदे ,सारी चुनौतियों को मात देते  हुऐ भी नारी घर और बहार सफलता का वरण कर रही है !!  यदि समाज ने बन्दिशो की बेडियो की जगह सबल दिया होता तो नारी आज सफलता के चरम पर होती। क्या इतने प्रयास ,इतना संघर्ष,इतनी सफलता भी पर्याप्त नही है ये समझने के लिए की महिलाओं को अब दोयम दर्जे का नागरिक ना  माना जाये। क्या अब भी उसकी स्कर्ट के साइज पर टिप्पणी करना आवश्यक लगता है ? क्या अब भी उसकी जीन्स पर छिटाकशी उचित प्रतीत होती है। आज की आधुनिक नारी नैतिक, बौध्दिक, सामाजिक,पारिवारिक हर क्षैत्र मै खुद को सक्षम साबित कर चुकी है।कदम-कदम पर नारी की व्यवहार का आंकलन ही नही सुझाव भी बतौर नियम उस पर थौपे जाते है। नारी को क्या पहनना है,क्या खाना है, कैसे चलना है,कैसे बैठना है,किससे बात करना है, ये सब मानक उसके लिए निर्धारित किये जा चुके। कई बार तो इन्ही मानको के आधार पर उसका चरित्र तक का भी सर्टिफिकेट जबरन थमा दिया जाता है। किन्तु इन्हीं मानको से समाज एक वर्ग को खुली छूट दी गयी है। जिसका प्रतिफल वर्तमान समाज बढते अपराध है। मुख्यत नारी के प्रति बढते अपराध। पेड बचाओ, जल बचाव, के साथ ही आज हमे बेटी बचाओ भी कहना पड रहा है। ईश्वर की महान कृति मानव और उसी कृति का एक भाग नारी को भी अब प्राकृतिक संसाधनो की भांति बचाने के कयास लगाये जा रहै है। समाज से दरकार है की एक स्वस्थ वातावरण नारी विकास के लिए निर्मित करे। जहाँ वह अपनी प्रतिभा के अनुरूप अपने भविष्य निर्माण स्वयं कर समाज को गौरवान्वित कर सके।(लेखक स्वयं  अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

अध्यापक बार बार आंदोलन करने को क्यों मजबूर है - महेश देवड़ा ( कुक्षी,जिला-धार )


महेश देवड़ा-प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के कर्णधार तीन लाख अध्यापक एक बार फिर आंदोलित है। हाल ही मे प्रदेश भर मे तिरंगा रैलियों के माध्यम से अध्यापकों ने अपना आक्रोश प्रकट किया ओर पुनः एक बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । गत वर्ष भी सितंबर के महीने मे ही अध्यापको का उग्र आंदोलन हुआ था । ऐसे मे ये सवाल उठना लाज़मी है की आखिर प्रदेश के अध्यापक बार बार आंदोलन क्यो करते है ? आखिर ऐसी क्या मांगे है इन अध्यापकों की जिसे सरकार अठारह वर्षों मे भी पूरी नहीं कर पायी, जिसके कारण अध्यापको को बार बार आंदोलन, हड़तालों के लिए बाध्य होना पढ़ता है । अध्यापको की लड़ाई केवल वेतन भत्तों ओर सरकारी सुविधाओं भर की नहीं है जैसा की आमतौर पर समझा जाता है, अपितु यह प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शिक्षा विभाग को बचाने का संघर्ष है । नियमित शिक्षक संवर्गों के डाइंग केडर घोषित करने के बाद से जिस तरह शिक्षा विभाग अपने अघोषित अंत की ओर बढ़ रहा है यह सिर्फ अध्यापकों की नहीं अपितु प्रदेश के शिक्षाविदो, आम जनता ओर सामाजिक संगठनों की चिंता का विषय होना चाहिए । जल्द ही शिक्षा विभाग सिर्फ अधिकारियों ओर बाबुओं का विभाग बन के रह जाएगा । इसी से उपजती है अध्यापको की सर्वप्रथम मांग “शिक्षा विभाग मे संविलियन”। शिक्षक शिक्षा विभाग का ना हो ये अपने आप मे विरोधाभास है । प्रदेश के विध्यालयों मे अध्यापन कराने वाले अध्यापक शिक्षा विभाग के कर्मचारी नहीं माने जाते ये बात शायद बहुत कम लोग जानते होंगे । शिक्षा की बदहाली के लिए सरकार की ये दोहरी नीति ही जिम्मेदार है । सरकारी शिक्षा ओर सरकारी विध्यालय की बदनामी और निजीकरण के कुत्सित प्रयास प्रदेश के गरीब, शोषित, वंचित वर्ग के के बच्चों को निःशुल्क ओर अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित करने का प्रयास मात्र है । विध्यालय की एक ही छत के नीचे शिक्षक, अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षक के रूप मे अलग अलग पदनाम ओर वेतनमान के साथ वर्ग विषमता का वातावरण बना दिया गया है। इस तरह की भेदभावपूर्ण ओर शोषणपरक व्यवस्था के विरुद्ध अध्यापक यदि आवाज उठाते है तो उनका आंदोलन न्यायोचित ही है। यदि एक छत के नीचे एक जैसा काम करने के बाद अध्यापक यह मांग करे की उसे भी विभाग के शिक्षकों की तरह वही छठवाँ वेतनमान दिया जाए जो प्रदेश ओर देश के अन्य सभी कर्मचारियों को 2006 से मिल रहा है तो क्या गलत है इसमे ? एक ओर जहां सरकार सभी  कर्मचारियों को सातवाँ वेतनमान देने जा रही है वही दूसरी ओर अध्यापक को छठे वेतनमान के लिए ही सड़कों पर उतरना पड़ रहा है, वह भी तब जब प्रदेश के मुखिया स्वयं कई बार इसकी घोषणा कर चुके है ।वेतनमान ओर विभाग मे संविलियन के अलावा भी अध्यापको की कई मांगे तो गैर आर्थिक ओर मानवीय है पर सरकार की उपेक्षा ओर असंवेदनशीलता अध्यापकों को बार बार आंदोलन के लिए मजबूर करती है । अपने गृह जिलों मे कई पद रिक्त होने के बाद भी अध्यापक स्थानांतरण नीति के अभाव मे अल्प वेतन मे घरो से सेकड़ों किलोमीटर दूर सेवा करने को मजबूर है। अठारह सालों मे एक स्थानांतरण नीति का ना बन पाना सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है । पशुओं तक का बीमा करने वाले प्रदेश मे अध्यापकों का बीमा सरकार नहीं कर पाई । और तो और दोयम व्यवहार की हद तब हो गई जब प्रदेश सरकार ने ‘माँ’ ओर ‘माँ’ तक मे भेद कर लिया ओर महिला अध्यापक को संतान पालन अवकाश से वंचित कर दिया गया । संविदा शिक्षकों ओर अतिथि शिक्षकों की दशा तो ओर दयनीय है शिक्षा के अधिकार अधिनियम के बाद भर्ती के लिए तो पूर्ण शैक्षणिक ओर व्यावसायिक योग्यताओं की अपेक्षा की जाती है पर वेतन कीसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम दिया जाता है। वर्षों से जारी इस भेदभाव ओर शोषण से अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षकों मे हीनता ओर आक्रोश की भावना घर कर गई है । ऐसे मे इनसे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । इसके अलावा गैर शैक्षणिक कार्यों मे शिक्षकों को निरंतर लगाए रखना ओर गुणवत्ता सुधार के नाम पर नीत नए प्रयोग कर कर के अधिकारियों ने प्रदेश के शिक्षा विभाग को एक प्रयोगशाला मे तब्दील कर दिया है । राज्य शिक्षा सेवा भी सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के कारण विगत तीन वर्षों मे अस्तित्व मे नहीं आ सकी है । विभाग मे एकरूपता ओर समानता के वातावरण से ही शिक्षित ओर स्वर्णिम मध्यप्रदेश की ओर कदम बड़ाएँ जा सकते है । इसके लिए अध्यापकों की समस्याओं का निराकरण आवश्यक है । “शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009” के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो ।( लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )      

Friday, October 14, 2016

राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम होना आवश्यक है - विष्णु पाटीदार (खरगोन)


विष्णु पाटीदार - यदि सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर समान  पाठ्यक्रम लागू हो जाता है  तो राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में सभी छात्र / छात्राओं को प्रतियोगिता का बराबर अवसर मिलेगा   जैसे - नीट, जेईई,  यूपीएससी आदि
अशासकीय शालाओं की मनमानी भी कम हो जायेगी तथा अशासकीय शालाओं से लोगों का मोह कम हो जायेगा, पाठ्यक्रम एक जैसा होगा तो पाठ्य पुस्तकों की उपलब्धता भी अधिक होगी
   राज्य स्तर का पाठ्यक्रम सीबीएसई के पाठ्यक्रम की तुलना में सरल है  साथ ही एम पी के पाठ्यक्रम की बात करें तो परीक्षा परिणाम को सुधारने के लिए राज्य सरकार ने पाठ्यक्रम को सरल बनाने के साथ साथ विद्यार्थीयों को कई प्रकार से सुविधाएं भी दी जा रही है जैसे 25 प्रतिशत वैकल्पिक प्रश्न देना, दो विषय में पूरक देना और अब  हाईस्कूल स्तर पर बेस्ट आँफ फाईव लागू किया गया है एवं अगले वर्ष सामान्य गणित एवं उच्च गणित के चयन करने का विकल्प रहेगा  इससे गणित में कमजोर विद्यार्थीयों को सुविधा रहेगी लेकिन ऐसे विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं में पिछड़ जायेंगे ।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को तृतीय   स्थान पर चुना गया है। 

बच्चे दक्षता प्राप्त कर सकें ऐसा पाठ्यक्रम होना चाहिए - विवेक मिश्रा ( नरसिंहपुर )

विवेक मिश्रा: यह भी सही है कि एक देश, एक समान शिक्षा, एक समान पाठ्यक्रम होना चाहिए. यह भी सही है कि माॅडल आन्सरशीट के अनुसार नंबर दिये जाने का प्रावधान है और न देने की स्थिति में जुर्माना भी लगाया जाना है, यह भी सही है कि राजीव गाँधी शिक्षा मिशन, सर्व शिक्षा अभियान के बाद राज्य शिक्षा सेवा में भी एसी मेें बैठे कुछ अधिकारियों के बदलने के मुताबिक दूसरों से हटकर दिखाने के लिए नीतियां बनाई जायेंगी, जो कुछ समय परिवर्तित हो जायेंगी, यह भी सही है कि इनके अनुरूप बहुत बड़ी संख्या में बहुत बड़े बजट पर निःशुल्क वितरण हेतु पुस्तकों का प्रिटिंग कार्य किया जाता है, जो कुछ समय में परिवर्तित हो जायेंगी, यह भी सही है कि पाठ्यक्रम और नीति देशकाल और वातावरण के अनुरूप होना चाहिए क्योंकि दिल्ली, मुंबई के बच्चों के आईक्यू और म. प्र. के एक गाँव के बच्चे के आईक्यू में बहुत अंतर होता है, यह भी सही है कि नीति निर्धारण व निर्मात्री समिति में शिक्षक संवर्ग को सम्मिलित अवश्य किया जाता है, पर अंतिम निर्णय तो आईएएस केडर ही लेता है जिनके बच्चों को कभी सरकारी स्कूल में पढ़ने नहीं आना है, नित नए सरकारी आदेशों के परिपालन के उपरांत यदि गैर शैक्षणिक लेखन, डाक निर्माण, प्रशिक्षण इत्यादि से फुर्सत मिल जाती है तो वह विधि ही सर्वोत्तम है जो किसी शहरी /ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे को वहां उसके देशकाल और वातावरण के अनुसार किसी भी कॉन्सेप्ट को सहजता से समझाने में मददगार हो अर्थात निर्धारित नीति अनुसार किताबी ज्ञान ग्रहण कराने से बेहतर है कि उन्हें सहज और व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया जाये जो स्थायी हो.
तो अंत में मेरा तो केवल इतना ही कहना है कि नीतियों के सही /गलत के विषय में हम हर साल उलझते /सुलझते रहे हैं परंतु सभी बच्चों में निर्धारित वांछित दक्षताओं का शतप्रतिशत लक्ष्य हासिल हो जाये, एेसा सैद्धांतिक रूप से कहा जा सकता है परंतु व्यावहारिक रूप से नहीं, क्योंकि प्राईमरी बच्चों के बस्तों के बढ़ते हुए वजन ही इस बात के जीते जागते उदाहरण हैं, शायद बिना बस्ते वाले स्कूलों की योजना भी बनाई गई है, कितनी चल रही है, कैसे चल रही है, कब तक चलेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, वैसे इस लेख के बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता है कि इसमें जो कुछ भी कहने की जुर्रत की है, वो शिक्षकीय सदन कितना स्वीकारता है और कितना अस्वीकृत करता है, पर कुछ भी हो, रख तो अपनों के बीच ही रहा हूँ..          वैसे एक बात और भी कहना चाहता हूँ कि उपरोक्त विषय पर ऊपर भी सभी सम्मानीय साथियों द्वारा अपने अपने विचार तर्क सहित रखे जा चुके हैं, जो बेहद सटीक और विषयानुकूल हैं, सो मेरे पास लेख में ज्यादा कुछ कहने या लिखने को शेष नहीं रह जाता है,

 लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को संयुक्त रूप से द्वितीय  स्थान पर चुना गया है। 


एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम भारतीय शिक्षा के समग्र विकास में सहायक होगा -विजय तिवारी (सुवासरा मंदसौर )

विजय तिवारी -विषय अनुरूप एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम या शिक्षा पद्धति लागू होना चाहिए । वर्तमान में कई विकसित राष्ट्रों ने भी one nation one education की प्रणाली अपना क्र चल रहे हे ।। भारत जैसे विकासशील व्  विविधता वाले राष्ट्र के लिये यह अति आवश्यक हे ।। सम्पूर्ण देश में एक पद्धति लागू हो जाने से राष्ट्रिय बोर्ड व् राजकीय बोर्ड का भेद मिट जायेगा जिससे छात्र व पालको में कोर्स के प्रति होने वाला संशय भी समाप्त होगा की कोन सा कोर्स बहतर हे । ऐसा होने से प्रतेयक बच्चे तक सामान कोर्स पड़ने के लिये उपलब्ध होगा ।। आज जहाँ निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बात हो रही की प्रत्येक बच्चे तक ज्ञान पहुचे तो इस प्रणाली से सर्वमान्य कोर्स प्रत्येक छात्र तक पहुचेगा ।। आज शिक्षा का विषय समवर्ती सूची में रखा गया हे ।परन्तु कोई भी राज्य अपने यहाँ होने वाले कुल शिक्षा खर्च का लगभग30% ही स्वयम् खर्च करती हे बाकि के लिये केंद्र पर ही निर्भर हे । इसलिये शिक्षा को केंद्र द्वारा पूर्णरूप हे अपने पास लेकर भारतीय शिक्षा में आ रही किसी भी प्रकार की विसंगति को दूर किया जा सकता हे ।। अब चाहे वह शिक्षको की भर्ती या विद्यालयो के सनरचनात्मक विकास ।। एक कोर्स होने से शासन द्वारा छापी जाने वाली पुस्तके व् सहायक सामग्री में आने वाला ख़र्च भी प्रति वर्ष नही होगा तथा  अशासकीय विद्द्यालयो में अध्ध्य्यन रत छात्रो को प्रति वर्ष महंगे कोर्स से भी मुक्ति मिलजायेगी ।। एक और महत्त्वपूर्ण बात की सामान शिक्षा पद्धति लागू होने से रास्ट्रीय स्तर पर होने वाली परीक्षाओ में सभी को सामान कोर्स से अवसर प्राप्त होगा ।यह भावना भी मिटेगी की CBSE कोर्स राज्यो के कोर्स से बहतर हे । अतः एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम भारतीय  शिक्षा के समग्र विकास में सहायक होने के साथ साथ राज्यो में व्याप्त विभिन्न विसङ्गतयो पर रोक लगाई जासकती हे ।।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को द्वितीय स्थान पर चुना गया है।

पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं।- राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर )

 राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर ) - अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है। यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं। यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं। कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है। बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है।राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम सभी शासकीय विद्यालयों के लिए लागू करना कोई बहुत लाभकारी निर्णय नहीं होगा। यह मांग बहुत समय से हो रही है की, राष्ट्रीय स्तर पर शासकीय विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम लागू किया जाए , परंतु इसमें बहुत सी व्यवहारिक कठिनाइयां हैं जैसे हर राज्य का आर्थिक दृष्टि से अलग-अलग विकास होना । छात्रों का मानसिक स्तर राज्य के अनुसार अलग अलग होना। अलग-अलग राज्यों में विद्यालयों की संरचना , छात्र शिक्षक अनुपात ,एक विद्यार्थी के ऊपर सरकार के द्वारा खर्च किए जाने वाला पैसा आदि , अलग अलग होता है। अतः एक जैसा पाठ्यक्रम पूरे देश में लागू करना, पिछड़े राज्यों के छात्रों के साथ अन्याय होगा।वैसे भी केंद्र सरकार ,सभी राज्यों में समान पाठ्यक्रम लागू करने के लिए, केंद्रीय विद्यालय एवं नवोदय विद्यालय के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसा पाठ्यक्रम छात्रों को उपलब्ध कराती है। और शैक्षिक दृष्टि से विकसित कुछ राज्य जैसे केरल आदि, केंद्र सरकार के द्वारा लागू किए पाठ्यक्रम को अपने यहां फौरन लागू कर देते हैं ।परंतु यही कार्य उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के लिए उनके ख़राब शैक्षिक ढांचे के कारण करना संभव नहीं हो सकता।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने विपक्ष में लिखा है आप के लेख  को प्रथम स्थान पर चुना गया है।

  



Monday, October 10, 2016

संतान देखभाल अवकाश के मामले में सरकार की हार, माननीय उच्च न्यायलय ने महिला अध्यपकों को सन्तान देखभाल अवकाश की पात्र बताया आदेश प्राप्त करें .


   सुरेश यादव रतलाम - याचिकाकर्ता श्रीमती  सुभद्रा ओझा की याचिका  क्रमांक WP 5104 /2016 को स्वीकृत करते हुए जिला  शिक्षा अधिकारी के आदेश दिनांक 29 जून 2016  को निरस्त कर दिया गया जिसमे अध्यापक संवर्ग को इस अवकाश अपात्र बताया गया था।  माननीय उच्च न्यायलय  ने कहा की " अध्यापक भर्ती एवं सेवा  की शर्ते नियम 2008 "  के अनुसार अध्यापक संवर्ग को शिक्षक संवर्ग के समान सभी अवकाश की पात्रता है ,इस लिए  अध्यापक संवर्ग को संतान देखभाल अवकाश से वंचित नहीं किया जा सकता  है। यह आदेश न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव की कोर्ट द्वारा दिया  गया ,याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री यशपाल राठौर ने पैरवी की। 
      कई बहने जो इस अवकाश का लाभ नहीं पा रही  है वे माननीय  न्यायालय की शरण लें , लाभ अवश्य होगा ।वैसे कई महिला अध्यापको ने माननीय न्यायालय में याचिका दायर की हैं।  पारिस्थितियो में  अभी कुछ बदलाव हुआ है  शिक्षा विभाग मध्य प्रदेश शासन  ने दिनांक 6 अगस्त 2016 को   अध्यापक संवर्ग को इस अवकाश से वंचित करने का आदेश जारी किया है  ,परन्तु वह आदेश  भी निरस्त किये जाने योग्य है बहने उस आदेश को भी न्यायालय में चुनोती देवें। 
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Sunday, October 9, 2016

अधिनायक बादी योजनाओ या पाठ्यक्रम का विरोध करें शिक्षक - विजय तिवारी (सुवासरा)

विजय तिवारी -शुक्रवार और शनिवार के विषय , प्राथमिक विद्यालय में कम हो रहे प्रवेश के जिम्मेदार विद्यालय के  की परिस्तिथियों के साथ साथ शिक्षक भी हे ।। जिन्होंने कभी भी किसी भी सरकारी अधिनायक बादी योजनाओ या पाठ्यक्रम का विरोध नही किया ।। जिसका परिणाम आज की स्थिति  हे और आज भी यही हो रहा शासन प्रशासन द्वारा जो भी कार्य या पाठ्य योजना हमे दी जाती हे उसे हम सहर्ष स्वीकार करते जा रहे हे। जिसे शासन हमारी स्वीकृति मानकर योजना की सफलता का श्रेय लेता हे ।। हमारे अग्रज शिक्षको ने सरकारी नौकरी को आपना अधिकार मान कर कभी भी किसी परिवर्तन का विरोध नही किया और ना ही अपने आप में परिवर्तन उचित समझा जिसका ही नतीजा कर्मी वर्ग की भर्ती का चालू होना भी हे ।। परन्तु वर्तमान समय में सरकारी नोकरियो का सतत अकाल होता जा रहा हे और हमे यह मुगालता भी नही पालना चाहिये की सरकारी नौकरी में लगने के बाद किसी को बाहर नही किया जा सकता ।। हमारे सामने कई विभागों के स्ंविदा कर्मी को कार्य से प्रथक किया जाना एक उदाहरण हे ।।यदि समय के साथ शिक्षको में स्वयं को हर विषय के लिये अपडेट किया होता तो यह स्तिथि नही होती ।। आज भी यही हो रहा हे हम अपने मूल कार्य को side work मान कर चल रहे हे ।। जबकि यही कार्य हमारी आजीविका हे ।। ठीक इसके विपरीत अशासकीय विद्यालय नित नए आकर्षण व् कलेवर के साथ पालक व् छात्रो को आकर्षित कर रहे हे ।।  25% की योजना भी हमारे विद्यालयो को बन्द कराने का एक जरिया साबित हो रहा हे ।।क्योकि विगत कुछ वर्षो में ग्रामीण क्षेत्रो  तक आशासकीय विद्यालयो की पहुँच होचुकी हे और ग्रामीण क्षेत्र के पालको की आशासकीय विद्यालयो तक ।। इस लेख में मैंने शासकीय विद्यालयो को हमारे या अपने विद्यालय कह कर सम्बोधित किया क्योकि ये ही हमारी आजीविका का आधार हे और हमारी योग्यता का परिचय भी ।। इस लिये विद्यालयो के साथ साथ दूसरा विषय हिंदी भाषा का था वह भी हमारी भाषा हे । इन दोनों को बचाने व् सम्मान दिलाने के लिये हमे यकीनन दिल से प्रयास की आवश्यकता हे ।। किसी बहाने की नही ।। क्यों समाज हम शिक्षको के निर्देशन से चला हे और आगे भी चलता रहेगा .

( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख  तृतीय  स्थान  पर चयनित किया  गया है  )

छात्रों के साथ शिक्षकों की दर्ज संख्या भी गिर रही हैं कई सरकारी स्कूलों में तो कहीं बना ली बढ़त - सचिन गुप्ता (खितौली)

दर्ज संख्या में गिरावट की मुख्य वजहें हैं ।
1. जनमानस में सरकारी स्कूल के प्रति नकारात्मक रवैया।
2.RTE के तहत् 25% छात्रों का निजी विधालयों में जाना।
3. अँग्रेजी के प्रति पालकों, अभिभावकों,छात्रों का बढता रूझान।
4. प्राथमिक स्तर पर शिक्षकों में उदासीनता ,नीरसता का माहौल निर्मित हो जाना।

दर्ज संख्या में गिरावट का प्रभाव
1. युक्तियुक्तकरण
2. एकशिक्षकीय व शिक्षकविहीन शाला हो जाना
3. हर वर्ष शिक्षकों के अंदर युक्तियुक्तकरण भय व्याप्त रहना।
4. सरकारी विधालय के बंद होने की स्थिति निर्मित होना।

और तो और अब वंचित, कमजोर वर्ग के मन में भी यही धारणा बन गयी है कि सरकारी स्कूल में अध्यापन कार्य की जगह शिक्षकों के पास अन्य सरकारी काम होने की वजह से शिक्षक छात्रों को समय नहीं दे पा रहे और जो बाकी समय शेष बचता है उसमें शिक्षक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक ,शैक्षणिक , राजनैतिक ,समसामयिक, अध्यापक आंदोलन के प्रभाव व परिणाम , मध्यांन्ह, दुग्ध वितरण आदि अनेक विषयों के विचार विमर्श (गप्पों) में मसगूल रहकर शेष समय का आधा भाग निकाल देता है और फिर बाकी बचे समय में अध्यापन कार्य करके अपनी खानापूर्ति कर देते हैं ।

इन्हीं सब वजहों से पालकों अभिभावकों के मन में सरकारी स्कुल के प्रति मानसिकता नकारात्मक हो गयी है।
दर्ज संख्या में गिरावट का दुष्परिणाम आज शिक्षक के सामने युक्तियुक्तकरण बन के खडा है । इस समस्या से आज शिक्षक समुदाय युक्तियुक्तकरण की प्रक्रिया के भँवरजाल में फँसकर अधिकारियों के लिए आदेश रूपी बाँलीबाल बन कर रह गया है जिसे जब मन चाहा  आदेश रूपी हाथ मारकर इस तरफ से उस तरफ भेज दिया । कई स्कूल युक्तियुक्तकरण से एक शिक्षकीय हो गए 2-3 स्कूल खुद मेरे संकुल में उदाहरण है।
इसके अतिरिक्त एक ही परिसर में लग रहें प्राथमिक और माध्यमिक विधालयों का एकीकरण भी हो रहा है।जहाँ दर्ज संख्या 20 से कम है शायद वो विधालय बंद हो जाएँ ।
मतलब साफ है सरकारी विधालयों की छँटनी चालू हो चुकी है।अगर यही करना था तो हर एक-दो किमी की परिधि में प्राथमिक, माध्यमिक विधालय को खोलने की उपयोगिता पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है क्योंकि एक दो किमी के दायरे में स्कूल खोलने से ही सबसे पहली बार कम दर्ज संख्या में ही छात्रों का अध्ययन अध्यापन कार्य शुरू हुआ था या तो शासन तब गलत थी जब हर जगह स्कूल खोल रही थी या फिर अब ,जब स्कूलों के सामने बंद होने का संकट गहराया हुआ है।
आखिर अतिशेष का दंष झेल रहे शिक्षक सरकारी स्कूलों के बंद होने की स्थिति में जाएगा कहाँ और आगामी दिनों में ग्रामीण परिवेश में सरकारी इन सभी वजहों से आज शिक्षक अतिशेष का दंष झेल रहें हैं और आगामी दिनों में ग्रामीण परिवेश के लोग सरकारी स्कूल के बंद होने की दिशा में वहाँ के छात्रों का क्या होगा बेशक आप उनका दाखिला कहीं भी करा देंगे पर उसे नियमित विधालय लाने में अंततः हार जाएँगे।कुल मिलाकर नुकसान छात्र, शिक्षक और शिक्षा का होगा ।
प्रथम भाषा (राष्ट्र) को अंतिम क्रम में रखने से हमारी राष्ट्र भाषा के प्रति शासन की मंशा क्या है साफ झलकता है।
भाषा भावनाओं को व्यक्त करने का एक साधन मात्र ही नहीं है बल्कि भाषा की समझ होने पर ही हम हिंदी भाषी गणित , विज्ञान,तकनीकी व अन्य विषयों पर अपनी पकड मजबूत बना पाते हैं,हालाँकि आज के समय में अँग्रेजी ने जनमानस पर अपनी बढत बना ली है और इसके बिना तकनीकी ज्ञान अधूरा रह जाएगा लेकिन बात है भाषा को अंतिम क्रम में रखने की तो यह सरासर गलत है भाषायी ज्ञान होने पर ही हम हर विषयों में दक्ष हो पाते हैं।
माध्यमिक विधालय की पद संरचना पूर्व से ही समझ से परे रही है जहाँ कला,विज्ञान,भाषा संकाय को शामिल करके तीन शिक्षकों को 6-8 का अध्यापन कार्य सौपा गया जबकि भाषा संकाय से चयनित हुए कई साथियों के साथ हुयी वार्तालाप से अनुभव हुआ कि हिन्दी से चयनित हुए शिक्षकों को अँग्रेजी ,संस्कृत पढाने में कठिनाई हो रही है तो वही अँग्रेजी काज्ञान रखने वाला शिक्षक साथी हिन्दी ,संस्कृत पढाने में असहज महसूस कर रहा है
अंततः भाषायी ज्ञान देने के लिए कम से कम तीनों भाषा के पृथक शिक्षक होने चाहिए वैसे तो हर विषय के लिए एक अलग शिक्षक हो तो काफी अनुकूल परिणाम सामने आ सकते हैं।


( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,
शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख  प्रथम स्थान  पर चयनित किया  गया है  )



सरकार के शिक्षकों की संख्या अतिशेष रहेगी तो नई भर्ती करने का तो सवाल हीं पैदा नहीं होता - विष्णु पाटीदार ( खरगोन )

 विष्णु पाटीदार - आज का विषय प्राथमिक शालाओं में गिरती छात्र संख्या के कारण बंद होते प्राथमिक विद्यालय और अतिशेष होते शिक्षक एवं  माध्यमिक विद्यालय में नवीन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम राष्ट्र भाषा को अन्तिम क्रम पर रखना सही है
         सर्वप्रथम तो प्राथमिक विद्यालयों में गिरती  छात्र संख्या का मुख्य कारण शासकीय शालाओं के शिक्षकों को पढ़ाने का कार्य छोड़कर बाकी सारे कार्य करवाया जाना  जैसे - बीएलओ, पोलियो की दवा, मध्याह्न भोजन, समय समय पर सर्वे कार्य करवाना निःशुल्क पाठ्य पुस्तक, साईकिल वितरण, गणवेश वितरण और भी अन्य समसामयिक कार्य की वजह से शिक्षक अपना मूल कार्य पढ़ाना तो कर हीं नहीं पाता इसलिए जनता में यह संदेश जाता है कि सरकारी स्कूल में तो पढ़ाई बिल्कुल नहीं होती तथा दूसरा कारण यह कि अंग्रेजी माध्यम में बच्चों को पढ़ाने का भूत सभी पर सवार है तो पालक अपने बच्चों को निजी विद्यालय में भर्ती करवाते है जिससे सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती चली जा रही है अगर ऐसे ही छात्र संख्या का स्तर गिरता रहा तो आने वाले वर्षों में सारे सरकारी स्कूल बंद हो जायेंगे और सारे शिक्षक अतिशेष हो जायेंगे ।
         माध्यमिक शालाओं में आरटीई नार्मस् के हिसाब से  सभी विद्यालयों में 100 से कम दर्ज संख्या रह जाएगी और साईंस, संस्कृत और हिंदी के सारे शिक्षक अतिशेष हो जायेंगे तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी को अंतिम स्थान पर रखना इस देश का दुर्भाग्य है साथ ही सारे प्रधानाध्यापक भी अतिशेष हो जायेंगे । इसका नतीजा यह होगा कि सरकार के शिक्षकों की संख्या अतिशेष रहेगी तो नई भर्ती करने का तो सवाल हीं पैदा नहीं होता । इसका प्रभाव हाईस्कूल एवं हायरसेकेण्डरी पर भी पड़ेगा । जब स्कूलों में बच्चे नहीं होंगे तो स्कूल बंद करना हीं पड़ेगा ।
( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख द्वितीय स्थान पर चयनित किया  गया है  )

विश्वास से, छल कहे ,या वादा खिलाफी कहे। तू ही बता ऐ सरकार तेरी इस दोहरी नीती को, हम क्या कहे ? - राशी राठौर देवास

राशी राठौर देवास - एक जनवरी 2016 के बाद बने अध्यापक मतलब 2013 के संविदा शिक्षक को  छटवे वेतनमान से वंचित रखने की खबर हर संविदा साथी पर आसमानी बिजली बनकर गिरी।संविदा शिक्षक  अध्यापको के साथ सरकार से ही वादा निभाओ कहता रहा उसे क्या पता था की अचानक स्थिति बदल जायेगी है और जिनके विश्वास के बल पर चल पडे है वो ही मोन धारण कर लेंगे । 2013 के संविदा को तो अब सरकार और अध्यापक संघर्ष समिति दोनों से ही वादा निभाओ कहना है।
" फूट डालो और शासन करो " नीती अंग्रेज तो चले गये पर यह नीती यंही छोड गये। इसी नीती से इस बार संविदा का शिकार करने का विचार है। एक तीर से कई शिकार - अध्यापको मै फूट, अध्यापको के संख्या बल का बिखराव, 2013 और उसके पहले के अध्यापको मे आपसी संघर्ष और शिक्षा विभाग लक्ष्य से दूरी बढाना। यदि यही करना है तो समान कार्य और समान वेतन क्या होता है फिर ? कम से कम इसे तो समान कार्य और समान वेतन नही कह सकते। शिक्षको के बाद शिक्षा कर्मी की भर्ती करके। शिक्षाकर्मी को हर सुविधा से वंचित कर दिया था। इस समय सबसे बडी भूल शिक्षको ने की इस नाजायज व्यवस्था का विरोध नही करके। आज शिक्षको की प्रजाति ही विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी है। अध्यापक संघर्ष समिति को मौन तोडकर सरकार के इस षडयंत्र को विफल करना चाहिए। चाणक्य ने कहा है " हमे दूसरो की गलती से भी सिखना चाहिए, क्योंकि खुद गलती करके सीखने के लिए ये जीवन बहुत छोटा है।" कम से कम वर्तमान अध्यापक संघर्ष समिति द्वारा इस गलती को पूर्व के शिक्षकों की भांती दोहराना नही चाहिए। जब मित्र कहा है तो फिर कर्ण सी मित्रता अध्यापक संघर्ष समिति ने संविदा शिक्षक के साथ निभानी चाहिए। कंधे से कंधा मिला कर सरकार का पुरजोर विरोध होना चाहिये ।
( लेखक  स्वयं अध्यापक है और यह उनकी निजी राय है । )

सरकार का भरोसा नहीं इसीलिए आंदोलन का हिस्सा बनें 2016 में अध्यापक बने संविदा शिक्षक - वसुदेव शर्मा ( छिंदवाड़ा


वैसे तो यह संभव नहीं है कि सरकार 2016 में संविदा शिक्षक से
अध्यापक बनने वालों को छठवें वेतनमान के लाभ से वंचित कर दे।
यह इसीलिए भी संभव नहीं है कि सरकार नियम कायदों से
चलती है, किसी की सनक से नहीं। चूंकि सरकार अध्यापक संवर्ग
को छठवें वेतनमान के दायरे में नियमों के तहत ला चुकी है
इसीलिए छठवें वेतनमान का लाभ हर किसी को मिलेगा, यह
सत्य है और यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह शिवराज सिंह की सरकार
की मनमानी और तानाशाही ही कही जाएगी और इस
तानाशाही को सिर्फ और सिर्फ आंदोलन और संघर्ष के जरिए
ही रोका जा सकता है, इसीलिए 2016 में अध्यापक संवर्ग में
शामिल होने वाले संविदा शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वह
अध्यापक संघर्ष समिति के आंदोलनों में आगे आकर शामिल हों।
चूंकि शिवराज सिंह की सरकार अप्रैल एवं मार्च 2016 में प्रदेश
के विभिन्न विभागों से 10,000 संविदाकर्मियों की छंटनी कर
चुकी है, इसीलिए ऐसी किसी संभावना से इंकार नहीं किया
जा सकता कि अध्यापक संवर्ग सरकार के हमले का शिकार न
हो। 2016 में अध्यापक बने संविदा शिक्षकों के बारे में सामने
आई जानकारी चौंकाने वाली है, इसीलिए आज सभी को
चौकन्ने रहने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि शहडोल से लेकर
विधानसभा घेराव के प्रस्तावित आंदोलनों में हर अध्यापक की
हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। जितने अधिक अध्यापक
आंदोलन का हिस्सा बनेंगे, उतना ही अधिक सरकार और
मुख्यमंत्री डरेंगे और डरी हुई सरकार छठवें वेतन से वंचित नहीं कर
सकती।
जिस तरह सरकार ने 10,000 संविदाकर्मियों की छंटनी कर दी
और इनके संगठनों के नेताओं ने चुपचाप इसे स्वीकार कर लिया है,
हो सकता है इससे सरकार में हिम्मत आ गई हो और वह दूसरे संवर्ग
को भी निशाने पर लेने की सोच रही हो। 16 अक्टूबर को
शहडोल और 13 नवंबर को भोपाल में ताकत दिखाकर
अध्यापकों को सरकार की इस सोच को बदलने का काम भी
करना है, यह समय डरने का नहीं बल्कि सरकार को डराने का है
और सरकार डरती है एकता से, जो अध्यापकों में बन चुकी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं )


सिर्फ वेतन भत्तों की लड़ाई यही वरन विभाग बचाने की भी लड़ाई है - सुरेश यादव रतलाम

 सुरेश यादव रतलाम - कल दैनिक भास्कर में प्रकाशित रिपार्ट के अनुसार प्रदेश के 10  हजार संविदा कर्मचारियों की छंटनी ( सरकार की तरफ से पैसो की कमी या कुछ वजह बता कर सेवा समाप्त करना) कर दी गयी है । इसमें में से  चार हजार  तो सीर्फ स्वास्थ्य विभाग के संविदा कर्मचारी है ,जो ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन अंतर्गत काम कर रहे थे । इसी प्रकार अगस्त माह में प्रदेश की लगभग पाँच  हजार नर्स ,ANM  और  MPW .( बहुउद्देशिय स्वास्थ्य कार्यकर्ता ) को 60 वर्ष की आयु पूर्ण करने के चलते अचानक सेवा निवृत्ति  कर दिया गया । जबकि  सेवा शर्तो में सेवा निवृत्ति की आयु 65 वर्ष थी ,लेकिन एक नया आदेश जारी कर  पाँच  हजार कर्मचारियों को अचानक सेवा निवृत्ती दे दि गयी ।
        कुल मिलाकर के  स्वास्थ्य विभाग के 9000 कर्मचारियों को दबे पांव घर भेज दिया और कंही कोई हलचल , विरोध के स्वर नजर नहीं आये ,जानते है क्यों क्योकि सावस्थ्य सेवाओं को सरकार द्वारा अपनी नीतियो द्वारा पहले बदनाम किया गया फिर बर्बाद कर दिया गया और अब बंद करने की कागार पर ले जाकर ,कर्मचारियों की छंटनी  प्रारंभ कर दी गयी  । जैसे की रोडवेज को बंद कर दिया गया था । असलियत यह है कि प्रदेश में अब 9 नए  मेडिकल कॉलेज खुल रहे है सभी PPP  मॉडल पर खुल रहे है । पिछले दरवाजे से पूंजीवादियो की दखल  और दबे पांव निजीकरण । आप जानते है ,सावस्थ्य विभाग के नो हजार कर्मचारियों को एक दम से घर भेज दिया जाता है और कंही कोई विरोध के स्वर नहीं सुनाई देते  क्यों ,क्योकि समाज मुंह मोड़ चूका है । सावस्थ्य सेवाओं को  ,सरकार ने इतना बदनाम कर के रख दिया है ।
        इसकी एक वजह यह भी रही की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मचारी संगठन अपने वेतन और सेवा शर्तों की बात तो करते रहे लेकिन समाज को यह बताने में असफल रहे की दूर दराज के गावो में एक ANM और MPW  की स्वास्थ्य सेवाओं में  क्या भूमिका है।  और दूसरी वजह उन्होने अपने विभाग पर हो रहे निजीकरण के हमले को लेकर कभी मुद्दा नहीं बनाया ।
          मुझे याद है में सविदा स्वास्थ्य कर्मचारियों की हड़ताल में गया था पास में ही ANM और MPW  की हड़ताल भी हो रही थी दोनों टेंट पास पास ही लगे हुए थे । मेने दोनों जगह अपने संबोधन में कहा था कि " आप अपने वेतन भत्तों के लिए तो लड़ रहे है लेकिन सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी हाथों में देने का सैद्धान्तिक निर्णय ले चुकी है। (अलीराजपुर जिले में सावस्थ्य सेवाओं को  निजी हाथो में सौंप दिया गया था  )  मैंने कहा था कि हमें मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए ,हमारी सेवा में भी 25 प्रतिशत बच्चों  को निजी विद्यालय में भेज कर क धीमें जहर की तरह निजीकरण की शुरुवात कर दी  है ,जो हमारे विभाग की जड़ो खोखला कर रहा है (छात्रों की दर्ज संख्या में कमी ) ।  मैंने कहा था कि शिक्षा और स्वास्थ्य तो आम नागरिक का मौलिक अधिकार होना चाहिए और यदि सिस्टम में  कंही कोई  बिमारी है तो ,उसका इलाज किया जाना चहिये ,प्रत्येक बिमारी का इलाज निजीकरण तो नहीं है।  क्या एक व्यापारी  बिना लाभ के कोई सेवा देगा ? क्या यह सम्भव है ,की दूरस्थ अंचल में  कोई व्यापारी ANM  बहनों की तरह या MPW भाइयो की तरह  सेवा देगा ? उसका उद्देश्य तो अपना व्यापर बढ़ाना होगा । मैंने कहा था की जब हमारी नोकरी बचेगी तभी तो हम वेतन भत्तों की बात करेगे ,इस लिए समाज को साथ लाओ ।उसे अपने मोल का अंदाजा  करवाओ  "
           साथियो बात हमारे विभाग की भी । क्या आप जानते है शिक्षणिक सत्र 2015-16 में और वर्तमान सत्र में लगभग 2500 शालाऐं  (5000 शिक्षक) कम दर्ज संख्या के कारण बंद कर के पास की शालाओं  में मर्ज कर दि गई   ?  इसके अतिरिक्त प्राथमिक शालाओं के लगभग 10 हजार शिक्षक अभी होने वाले यूक्तियुक्तकरण मे अतिशेष होने वाले  हैं , इस प्रकार प्राथमिक शालाओं के कुल 15 हजार शिक्षक अतिशेष हो जाएंगे ,जबकि रिक्त स्थान लगभग 5000 ही बचे हैं (हमारी भी अचानक से छंटनी  हो जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ) ।  एक अन्य खतरा जो अभी हम तक नहीं पहुंचा है वह है ।माध्यमिक शालाओं  की नविन पद संरचना जिसके चलते 2 तिहाई शालाओं पर एक शिक्षकीय शाला  होने का खतरा मंडराने लगा है ।
           सरकार ने अपनी नीतियों के द्वारा  पहले प्राथमिक शालाओं से आमजन का मोह भंग किया , अब धीमे धीमे बंद भी कर दिया ,क्या कंही किसी गाँव में विद्यालय बंद होने पर आमजन का विरोध नजर आया ?  अब इस प्रकार नई पद संरचना के कारण माध्यमिक शालाओे को एक शिक्षकीय कर के विद्यार्थियों को शालाओ से दूर किया जाएगा ।
          साथियो अब बात हामारे वेतन भत्तों की भी कर ली जाये । कल ही एक समाचार आया की 1 जनवरी 2016 के बाद अध्यापक बने साथियो को 6 टे वेतन का लाभ नहीं मिलेगा । वैसे यह संभव तो नहीं है लेकिन जब सरकार शिक्षा विभाग को बर्बाद करने का ठान ही चुकी है तो ,कब क्या कर दे कह नहीं सकते । इस लिये आप हम सब मिल कर ईस लड़ाई को लडे ,क्योकि अब लड़ाई  सिर्फ वेतन भत्तों की लड़ाई यही वरन विभाग बचाने की भी लड़ाई है। यदि विभाग और हमारी नोकरी बचेगी तभी तो हम वेतन भत्तों की बात कर पायेगें। यह लड़ाई हमारी आने वाली पीढ़ियों के अधिकार की लड़ायी है क्योकि शिक्षा विभाग ही तो सबसे अधिक रोजगार सृजन वाला  विभाग है । हमारे कई  साथी इस विषय पर भी गहन चिंतन मनन कर रहेै हैं  और मुद्दे आप तक पंहुचा रहे हैं । अभी हमने पहली बार हमारे ज्ञापन में विभाग की व्यस्था में सुधार कें लिए भी मांग की है (  परिवीक्षा में भर्ती आरम्भ की जाए ।  निजीकरण के  प्रयास बन्द किये जावें। पच्चीस प्रतिशत सीटें में शुल्क अशासकीय विद्यालकी द्वारा ही प्रदान किया जाए।   कम दर्ज संख्या के फलस्वरूप बन्द/मर्ज किये जाने के पूर्व उक्त शाला के शिक्षकों को कम से कम , तीन शैक्षणिक वर्षों का समय दर्ज संख्या बढ़ाने हेतु दिया जाये। 5000 तक की आबादी वाले गांव एवं कस्बे में निजी विद्यालय खोलने की अनुमति न दी जावे। माध्यमिक शालाओं में  2010 की पद संरचना लागु की जाए। प्रदेश के विद्यालयों में N C E R T का पाठ्यक्रम लागु किया जाये । ) यह मुद्दे अब आमजन में चर्चा के मुद्दे है । आप सभी साथियो से अनुरोध है कि इस आर पार की नहीं " पार ही पार  "  की लड़ाई को जीतना है । और शिक्षा विभाग में संविलियन करवाना है । एकता बनाये रखें और संघर्ष समिति पर विश्वास कायम रखें । यह हिन्द ,इंकलाब जिंदाबाद। 
याद रखें 
16 अक्टूबर शहडोल
23 अक्टूबर विकासखंड 
06 नवम्बर जिला13 नवम्बर भोपाल

Saturday, October 8, 2016

जोश, जुनून एबं अनुभव का संगम अध्यापक संघर्ष समिति-वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा)

वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा) - 18 साल से संघर्ष कर रहे अध्यापक समुदाय के बीच से ऐसी भी आवाजें आ रही हैं कि सालों से होते आ रहे अन्याय को एक-दो दिन में ही समाप्त कराया जा सकता है। इससे एक बात स्पष्ट है कि अध्यापक अन्याय के खिलाफ पूरे जोश एवं जुनून के साथ लडऩा चाहता है और तब तक लडऩा चाहता है जब तक कि जीत हासिल न हो जाए। संघर्ष से जो हासिल होता है, वह जीत ही होती है, इसीलिए आंदोलनों से जीत का विश्वास और भरोसा सही है। लेकिन यहां सवाल यह है कि यह जीत एक दिन में मिलेगी या इसके लिए अनवरत संघर्ष करना होगा। इतना तय है कि  शिक्षा विभाग में संविलियन के लिए लड़ रहा अध्यापक सरकार के हलक से छठवां एवं सातवां वेतनमान जरूर निकाल लाएगा। यह बात दावे से इसीलिए कही जा सकती है कि इस बार अध्यापक जोश, जुनून  एवं अनुभव के साथ मैदान में उतरा है।
अध्यापक संघर्ष समिति में आजाद अध्यापक संघ का जोश, राज्य अध्यापक संघ का जुनून और शासकीय अध्यापक संघ, अध्यापक संविदा शिक्षक संघ एवं अध्यापक कांग्रेस का अनुभव समाया हुआ है इसीलिए अध्यापक संघर्ष समिति को जोश, जुनून एवं अनुभव का संगम कहना सही रहेगा। अध्यापक संघर्ष समिति के रूप में तीन लाख अध्यापकों को ऐसा मंच मिला है, जिसका हर पाया इतना मजबूत है कि उसे अब शिवराज सिंह की सरकार हिला नहीं सकती। अध्यापक संघर्ष समिति बनने के बाद एक और अच्छा काम यह हुआ है कि अध्यापकों के आंदोलन का नेतृत्व करने योग्य दूसरी पंक्ति की कतार भी सामने आ गई है, जो इतनी सुलझी हुई है कि वह 18 सितंबर के लक्ष्य को हासिल किए बिना न तो खुद इधर-उधर होगी और न ही किसी को इधर-उधर होने देगी। सोशल मीडिया पर आ रही तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद उसका निष्कर्ष यही निकल रहा है कि अध्यापक शहडोल में सरकार को चेताएगा और भोपाल में उसके सामने सीना तानकर खड़ा नजर आएगा।
18 सितंबर को अध्यापक संघर्ष समिति की घोषणा के वक्त तय किया गया लक्ष्य था सरकार को यह बताना कि प्रदेश का अध्यापक सरकार की तिकड़मों से हारा नहीं है बल्कि पहले से अधिक ऊर्जा के साथ मैदान में आने वाला है। 25 सितंबर को प्रदेश में तिरंगा रैलियों का ऐलान इसी मकसद से  किया गया, जो ऐतिहासिक रूप से सफल रहा। तिरंगा रैलियों में अध्यापकों के जोश, जुनून देखने लायक था, यही वजह रही होगी कि   अध्यापकों के गुस्से से सरकार डरी भी और उसी दिन विसंगति रहित गणपत्रक जारी करने के संकेत  मीडिया के जरिए देकर अध्यापको के गुस्से को थामने की कोशिश भी की गई। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
2 अक्टूबर को भोपाल में अध्यापक संघर्ष समिति अध्यक्षमंडल के सदस्य भरत पटेल, जगदीश यादव, बृजेश शर्मा, मनोहर दुबे एवं राकेश नायक एक साथ बैठे और एक स्वर से ऐलान किया कि सरकार तिकड़मबाजी छोडक़र अध्यापकों की लंबित मांगों का तत्काल निराकरण करे और 25 सितंबर को सौंपे गए 21 सूत्रीय मांगपत्र की मांगों का समाधान करे। जोश, जुनून और अनुभव से तैयार हुई अध्यापक संघर्ष समिति के अध्यक्षमंडल ने उसी दिन तीन लाख अध्यापकों की इच्छा के अनुसार 13 नवंबर को विधानसभा के घेराव की घोषणा की। 16 अक्टूबर को शहडोल में प्रदर्शन कर सरकार को चेतावनी देने, इसके बाद  23 अक्टूबर को ब्लाक स्तर पर धरने, रैलियां, 6 नवंबर को जिला स्तर पर रैली एवं धरने  की घोषणा अध्यक्षमंडल के सदस्यों ने एक स्वर से की। 2 अक्टूबर को घोषित हुए इस कार्यक्रम से सरकार चिंतित है, उसकी चिंता इस बात से सामने आ जाती है कि उसने महीनों से लटके गणना पत्रक पर काम करना शुरू कर दिया है हो सकता है शहडोल से पहले वह जारी हो जाए, लेकिन अध्यापक जिस जोश, जुनून और उत्साह से संघर्ष के मैदान में उतरे हैं, उससे इतना स्पष्ट है कि वे सरकार से शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग पर दो टूक बात करने के बाद ही संतुष्ट होंगे। जैसे-जैसे 16 अक्टूबर की तारीख करीब आती जा रही है, वैसे-वैसे अध्यापकों का उत्साह बढ़ता जा रहा है, वे हजारों की संख्या में शहडोल पहुंचने वाले हैं और लाखों की संख्या में पहुंचकर 13 नवंबर का विधानसभा घेराव करेंगे। चूंकि अध्यापक अपने अनुभव से यह समझ चुका है कि बिना लड़े कुछ नहीं मिलने वाला, इसीलिए वह इस बार सिर्फ और सिर्फ लडऩे के लिए एकजुट हुआ है, उसकी यही एकजुटता उसे जीत  दिलाएगी, यह भरोसा भी उसे हो चुका है।

अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है,कोई बीच में न आये - मनीष शंकर तिवारी ( नरसिंहपुर )

क्या हार में, क्या जीत में
किंचित् नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला
यह भी सही वो भी सही।
मैं एक सामान्य अध्यापक हूँ। न कोई मेरा नेता है, न ही मैं किसी व्यक्ति, समूह या संघ का समर्थक। जो भी मेरे लिए, मेरे हक के लिए लड़ा , मैं हमेशा उसके साथ खड़ा दिखाई देता हूँ और दिखाई देता रहूँगा। क्योंकि पराजय मेरा स्वभाव नहीं है, मैंने सदैव विजय ही प्राप्त की है और आगे भी विजयमाल को ही प्राप्त करूँगा।
1995 से आज 2016 तक मेरी ही तो शक्ति है जिसने मुझे आज यहाँ तक लाकर खड़ा किया है। ये मेरी ही तो ताकत है जिसने मेरे अध्यापक नेताओ को महत्वाकांक्षी बना दिया।
अब ताजा ताजा उदाहरण ही देख लीजिये। 2013 का विसंगतिपूर्ण चार किश्त का आदेश मुझे स्वीकार नहीं था तो मैं इस अन्याय में सहभागी नेतृत्व के खिलाफ हो गया। 2015 के सितम्बर माह की 13 तारीख को शाहजहाँनी पार्क में मेरी ही तो शक्ति थी जिसने सरकार के माथे पर बल ला दिए। 28 सितम्बर 2015 को लालघाटी के मैदान को हल्दीघाटी मैंने ही बनाया।
अब मेरी ताकत और मेरी ऊर्जा को जब मेरे अपने नेताओं ने खुद की तरफ मोड़ने की भूल की तब उस नेतृत्व को पराजित होना पड़ा। सारे संघ नए या पुराने सीमिति आँकड़ो में सिमट गए।
तब फिर मैं सजग हुआ और मजबूर किया अपने पराजित नेतृत्व को कि मैं सामान्य अध्यापक किसी का गुलाम नहीं। तब ये व्यक्ति, ये समूह, ये संघ 18 सितम्बर 2016 को बिना मन के एक हुए। तारिख 25 सितम्बर 2016 सूबे के हर जिले में सिर्फ मैं था और मेरा तिरंगा। मैं फिर विजयी हुआ। बड़े भैया को खबर पूरी हो गई।
तारिख 2 अक्टूबर 2016 मेरे नेता फिर बैठ गए 16 अक्टूबर 2016 दी है तारीख , स्थान दिया है शहडोल परंतु सबके सब लग रहे हैं डांवाडोल। किसी में वो साहस नहीं दिख रहा है जो साहस मेरे अंदर है। अपने अपने हजार पाँच सौ वाले मेरे नेता शायद फिर पराजित हो जाएँ।
किन्तु मुझे ख़ुशी है कि सरकार तक मेरा सन्देश पहुच गया है 25 सितम्बर 2016 को ही कि मेरे मन में क्या है? और अगली सम संख्यांक वाले वर्ष की चिंता उसे अवश्य हो रही होगी।
मेरे जैसे 3 लाख और हैं जो पीड़ित हैं, शोषित हैं, परन्तु हारे हुए नहीं हैं। न कभी हार सकते हैं।
अंत में,
अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है।
कोई बीच में न आये।
हर हर अध्यापक
घर घर अध्यापक
(लेखक सव्य अध्यापक है और यह उनके निजी विचार है )

13 नवंबर को भोपाल घेरेंगे अध्यापक -वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा)

वासुदेव शर्मा - एक ही दिन, एक ही वक्त, प्रदेशभर में जब 1 लाख अध्यापक एक साथ 25 सितंबर को तिरंगा लेकर सडक़ों पर उतरे, तो सभी हैरान-परेशान थे। हैरानी की वजह, ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ।
सरकार हैरान थी। मुख्यमंत्री परेशान थे।

 हैरान परेशान अध्यापकों का नेतृत्व भी था। उसे भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि बिना उनके दौरो, अपीलों एवं आव्हान के बाद भी एक साथ इतनी अधिक संख्या में अध्यापक एकजुट होकर सरकार को ललकार देंगे।
सरकार की समस्या थी कि वह किससे बात करे, अध्यापकों को सडक़ पर आने से रोकने के लिए।
तिरंगा रैली के बाद अध्यापकों के नेतृत्व को उत्साह में आना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2 अक्टूबर की बैठक में यह साबित भी हुआ।

 बहरहल,
चूंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद अध्यापक नेताओं से बातचीत की कमान संभाले हुए हैं। सीएम साहब भी खुद यह कह चुके हैं कि वे ही अध्यापकों के अच्छे दिन लाएंगे। अच्छे दिनों का इंतजार काफी लंबा हो गया है, अब इससे अधिक इंतजार करने के लिए अध्यापक तैयार नहीं है। 25 सितंबर की तिरंगा रैलियों के जरिए प्रदेशभर के अध्यापकों ने 21 सूत्रीय ज्ञापन देकर मुख्यमंत्री से यह कह दिया है।
अलग-अलग स्थानों से 9-10 बार छठवां वेतनमान दे चुके सीएम साहब 25 सितंबर के बाद खामोश हैं, उनकी यह खामोशी अध्यापकों के गुस्से को बढ़ाने का काम कर रही है, जिसकी अभिव्यक्ति 16 अक्टूबर को शहडोल

एवं 13 नवंबर को भोपाल में होगी। 
जिस दिन अध्यापकों का गुस्सा चरम पर पहुंचेगा, उस दिन से शिवराज की सरकार लडख़ड़ाना शुरू कर देगी। यह चेतावनी 2 अक्टूबर को आर्य समाज धर्मशाला से अध्यापक संघर्ष समिति ने एक स्वर से दी है।
एकजुट हो चुके अध्यापकों ने इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं।
16 अक्टूबर को शहडोल में रैली कर सरकार को चेताया जाएगा।  यदि अध्यापकों को संतुष्ट करने वाला गणपत्रक जारी नहीं हुआ और शिक्षा विभाग में संविलियन का रास्ता नहीं बनाया तो 13 नवंबर को राजधानी

भोपाल के रास्ते जाम कर दिए जाएंगे।
2 अक्टूबर को आर्य समाज धर्मशाला में हुई अध्यापक संघर्ष समिति की बैठक ने निर्णय लिया था कि 13 नवंबर को भोपाल में रैली की जाएगी, जिसमें प्रदेश भर से 2 लाख से अधिक अध्यापक हिस्सा लेंगे।
13 नवंबर की रैली की तैयारियों के लिए 6 नवंबर को जिला मुख्यालयों पर विशाल धरने दिए जाएंगे, जिनमें 100 प्रतिशत अध्यापकों की भागीदारी सुनिश्चित कराने का संकल्प भी अध्यापक संघर्ष समिति ने 2 अक्टूबर की बैठक में लिया है यानि इस बार अध्यापक संगठनों की सीमाओं से ऊपर जाकर अपने भविष्य को बचाने की लड़ाई खुद लड़ रहा है, 25 सितंबर की तिरंगा रैली यह साबित कर चुकी है और 13 नवंबर की भोपाल रैली के वक्त अध्यापकों की एकजुटता का इतिहास लिखा जाएगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं .

Friday, October 7, 2016

युक्तियुक्तकरन हेतु मार्गदर्शन

सारे बच्चे शासकीय शालाओं में दर्ज हो जायेंगे और अशासकीय शालाऐं खुदबखुद बंद हो जाएगी -विष्णु पाटीदार (खरगोन)

विष्णु पाटीदार खरगोन - आज का विषय माननीय ईलाहाबाद उच्च न्यायलय का आदेश जिसमें प्रत्येक लोकसेवक अफसर, कर्मचारी, विधायक और सांसद को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश है तो मेरे विचार से तो आज के परिवेश में अशासकीय शालाओं में अंग्रेजी माध्यम के कारण हीं आकर्षण बढ़ा है वरना हिन्दी माध्यम की स्कूलों से तुलना की जाय तो शासकीय शालाओं का परीक्षा परिणाम अशासकीय शालाओं के परीक्षा परिणाम से हमेशा 20 हीं रहा है । वैसे भी शासकीय शालाओं में स्टाॅफ अशासकीय शालाओं की तुलना में अधिक योग्यता वाले हैं । खासकर हाईस्कूल तथा हायरसेकेण्डरी में, जिन बच्चों को शासकीय शालाओं के शिक्षकों ने पढ़ाया है वेही अशासकीय शालाओं में पढ़ा रहे हैं । अगर शासकीय शालाओं में भी सरकार अंग्रेजी माध्यम की शालाऐं खोल दे तो न्यायालय के बगैर आदेश के हीं सभी लोकसेवक क्या सभी उद्योगपति, करोड़पति, उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग सारे शासकीय शालाओं में दर्ज हो जायेंगे और अशासकीय शालाऐं खुदबखुद बंद हो जाएगी । लेकिन शायद सरकार हीं नहीं चाहती की अशासकीय शालाऐं बंद हो सरकार की मंशा तो नीजीकरण करने की हीं है इसलिए तो अभी तक भी शासकीय अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की कमी है अशासकीय शालाओं में तो बस बाहरी चमक धमक और दिखावा है वे बच्चों को रट्टू तोता बना देते हैं जो आगे जा के प्रतियोगी परीक्षाओं में फैल हो जाते हैं । अशासकीय शालाओं के पास अगर शासकीय शालाओं के कमजोर वर्ग के बच्चे हो तो उनका परिणाम और भी घट जायेगा । इसलिए मैं चाहता हूँ कि सरकार अंग्रेजी माध्यम के भी सभी शासकीय स्कूल प्रारंभ कर दे तो माननीय न्यायालय के आदेश की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी और सभी लोकसेवक अफसर, कर्मचारी, विधायक, सांसद, निम्न वर्ग ,उच्च वर्ग ,व्यापारी, उद्योगपति, आदि सभी के बच्चे  शासकीय शालाओं में हीं पढ़ेगे!

लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से तीसरे स्थान पर चुना गया है ' 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बिल्कुल उचित ,निजी विद्यालयों की मनमानी खत्म होगी सरकारी विद्यालयों और शिक्षकों की दशा सुधरेगी -रूपेश सराठे (होशंगाबाद )

रूपेश सराठे - इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बिल्कुल उचित है। इससे निजी विद्यालयों की मनमानी खत्म हो जायेगी और सरकारी विद्यालयों और शिक्षकों की दशा और दिशा दोनों में सुधार हो जायेगा।क्योंकि जब सभी लोकसेवकों और जनप्रितिनिधियों के बच्चे एक ही स्थान पर पढ़ेंगे तो उनके बेहतर अध्यापन हेतु वे विद्यालयों और शिक्षकों के प्रति वे बहुत गम्भीरता से प्रयासरत रहेंगे।जिससे सरकारी विद्यालयों में व्याप्त भौतिक एवं शैक्षिक समस्याएं अतिशीघ्र ही दूर हो जाएंगी। जब सभी लोगों के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे तो सामाजिक भेदभाव में भी कमी आएगी जिससे समाज में समरसता का माहौल बनेगा जो सभी के लिए सुखद होगा। अभीशिक्षकों से जो गैर शैक्षणिक कार्य करवाये जा रहे हैं उन पर स्वतः रोक लग जाएगी। आज जो अधिकारीगण अनाप शनाप आदेश निकाल रहा हैं अपने वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर उन पर भी लगाम स्वतः लग जाएगी। जैसा कि शासन कि सोच बन गई है कि सरकारी शिक्षक काम नहीं करते वह भी बदल जायेगी।और यदि कुछ अपवाद स्परूप हमारे साथी यदि काम नहीं कर रहे हैं वे भी स्वतः सुधर जायेंगे। अतः मेरे मतानुसार माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को पूरे भारत में लागू कर  देना सर्वथा उचित रहेगा।
 

लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय '  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से तीसरे स्थान पर चुना गया है ' 



माननीय हाईकोर्ट इलाहबाद के यह निर्णय के पीछे एक व्यापक सोच हे -विजय तिवारी ( सुवासरा- मंदसौर )

विजय तिवारी - माननीय हाईकोर्ट इलाहबाद के यह निर्णय कि सभी शासकीय सेवक व् जनप्रतिनिधि अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयो में ही पढ़ाये ।। के पीछे एक व्यापक सोच हे । अब यही निर्णय सुप्रीम कोर्ट को भी देना चाहिए और समस्त देश में लागू करवाना चाहिये ।। यदि इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय की व्यापकता को देखे तो यह पाएंगे की भारतीय संस्कृति "गुरुर देवो म्हेश्वरः " वाली रही जहाँ गुरु की अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान सदैव ही रहा हे ।। यदि सांसद विधायक व् उच्च अधिकारी अपने बच्चों को इन शासकीय विद्द्यालयो में भेजते हे तो ।जो शिक्षिकिय प्रतिष्ठा आज जन मानस के बीच कम हो रही हे उसमे स्वतः वृद्धि होगी ।। इस निर्णय का दूसरा और गम्भीर पहलू यह भी हे की वर्तमान में बढ़ रही शिक्षा की व्यवसायीकरण को रोकना हे । आज यदि सर्वे कराया जाए तो अधिकाँश उच्च श्रेणी के विद्यालय जिन्हें इंटर नेशनल स्कूल भी कहा जाता हे । इन्ही जनप्रतिनिधियो या अधिकारियो के ही हे । जो पूर्णरूपेण मात्र धन कमाने में लगे हुए हे । जिनका शिक्षा के द्वारा होने वाला सर्वांगीण विकास से कोई लेना देना नही हे ।। यदि इलाहबाद हाईकोर्ट का निर्णय मान्य हो तो इस बढ़ती व्यवसायीकरण पर भी नियंत्रण किया जा सकता हे ।।
         इस निर्णय का एक और व्यापक और सकारात्मक पहलू यह भी हे की शासकीय विद्यालयो के मूलभूत सुविधओं का विकास करना यदि उक्त लोगो के बच्चे शासकीय विद्यालयो में अध्ययन करेंगे तो वहा आवश्यक शिक्षक , फर्नीचर , सुविधा सम्पन्न शौचालय खेल का मैदान व् सामान और स्वच्छ वातावरण का निर्माण पर ये स्वयम् जोर देकर कराएँगे ।। जिसका आज अधिकांश विद्यालयोमे आभाव इन्ही की भरष्टाचारि के कारण नही हो पा रहा हे ।।
          इस निर्णय का विशेष पहलू की यह निर्णय लागू होने से जो गरीब बच्चे शिक्षक या सुविधाओ के अभाव में वांछित शिक्षा नही प्राप्त क्र पा रहे हे इस निर्णय के क्रियान्वित होने के वाद अपनी क्षमता को विकसित क्र सकेंगे ।। हमारे शासकीय विद्यालयो में पढ़ाने वाले शिक्षक प्राइवेट स्कूल के शिक्षक से कहि अधिक योग्यता वाले हे और सरकार द्वारा आयोजित व्यापम TET जैसी परीक्षाओ को पास कर व् पूर्ण  ट्रेंड हो के अपनी सेवाये दे रहे हे ।
                अतः इलाहावाद हाईकोर्ट का निर्णय के पीछे इक व्यापक और सकारात्म सोच हे । जिसका सकारात्मक लाभ सम्पूर्ण समाज को होगा ।।
      लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' यह लेख दुसरे स्थान के लिए  चुना गया है . 

आखिर, इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐसा आदेश क्यों ?......सचिन गुप्ता ( खितौली )

सचिन गुप्ता ( खितौली ) - लोकसेवकों(अफसर,कर्मचारी,विधायक,सांसद) के बच्चे ही क्यों ? अभिनेता,व्यापारी,उधोगपतियों,पत्रकारों व अन्य वर्गो या देश के समस्त बच्चों का  नामांकन सरकारी स्कूलों में कराने का आदेश क्यों नहीं ?
क्या केवल लोकसेवकों के बच्चों के नामांकन करा देने मात्र से शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा क्या वाकई में ये इतने प्रभावशाली हैं ?

इस प्रयोग में दो बातें छिपी है ,
1. लोकसेवकों के माध्यम से शिक्षकों पर अध्यापन कार्य के लिए अतिरिक्त दबाव निर्मित करवाने की मंशा।
2. लोकसेवकों को उनके अपने बच्चे के माध्यम से सरकारी स्कूलों की हालत का प्रत्यक्ष रूप से सामना करवाने की मंशा
 
  उपर्युक्त दोनों मंशाओ में शोषण छिपा है पहली बात में शिक्षक का और दूसरी बात में लोकसेवकों के बच्चों का जिनका उपयोग किया जाना है।
अगर आप मान रहें हैं कि लोकसेवकों के बच्चों के नामांकन मात्र भर से सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा तो थोडा रूकिए , फिर सोचिए ........ कही ये अभिभावकों का अपने बच्चे के सुरक्षित भविष्य के लिए निर्णय लेने के अधिकार का हनन तो नहीं ?

एक जिले में कितने विधायक हैं औसतन 4-5 ,सांसद की संख्या जिले में 1 भी नहीं होती प्रथम द्वितीय श्रेणी के अधिकारी 200-400 की सीमा में ही होंगे और तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों के बच्चे प्राय: सरकारी स्कूल में ही पढते हैं जबकि सरकारी स्कूल सैकड़ो की तादात में ।

महज 500 बच्चें जो बाध्यता की स्थिति में जिले में ही स्थित सरकारी स्कूलों को प्राथमिकता देंगे तो क्या इस आदेश से अंतिम छोर में सुदूर स्थित ग्रामीण अंचलों की, जहाँ पहुँचने के लिए आज भी पक्का रास्ता नहीं है ,शिक्षा स्तर में सुधार हो पाएगा और इस बात की क्या गारंटी है कि शहरी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों का स्तर ऐसा होने पर सुधर जाएगा अगर सुधार न हुआ तो कल को दलीलें दी जाएगी सारी स्कूलों को बंद करके जिले में केवल एक विशाल सर्वसुविधायुक्त स्कूल खोल दिया जाएँ जहाँ सब पढें तब भी सफल न हुए तो कहा जाएगा कि शिक्षा केवल जागरूक  कर धनाढ्यौ को दी जाए और वंचित ,कमजोर वर्ग के हाथों से शिक्षा फिसल जाएँ 


मामला उलझता जाएगा अंत में शिक्षा का मजाक बन जाएगा ।
वर्तमान में समस्त लोकसेवकों के बच्चें भव्य निजी स्कूलों में पढ रहे हैं तो क्या ये सभी पूर्णतः दक्ष हो जाते हैं। अपेक्षित परिणाम न आने पर क्या ये लोग निजी विधालयों पर  दबाव बना पाते हैं ?

वैसे भी निजी स्कूलों की तरफ लोगों का बढता हुआ आर्कषण उनकी शिक्षा देने की कला व तरीका नहीं बल्कि अँग्रेजी भाषा के ग्लोबलाइज होने के कारण उसकी बढती हुयी माँग ,खेल विधा ,कंप्यूटर व अन्य सांस्कृतिक ,आधुनिक गतिविधियाँ हैं जिससे छात्र का सर्वागीण विकास होता है जबकि सरकारी स्कूल इन सारी सुविधाओं से आज भी वंचित हैं जबकि सयकारी स्कूलों की उपयोगिता आज भी ग्रामीण अंचलों में ज्यादा है
निष्कर्ष यह है कि अनावश्यक रूप से नए नए प्रयोगों को जन्म देकर; शिक्षक समुदाय पर किसी भी तरह के दबाव डालने की छिपी हुयी मंशा को पूरा करने की कोशिश करने के बजाए ; शिक्षा के स्तर को सुधारने हेतु ; शिक्षकों का सहयोग लेकर वास्तविक समस्याओं को चिन्हित कर; उनको दूर करने के सकारात्मक उपाय किए जाएँ ।
            
लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से प्रथम स्थान पर चुना गया है . 

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Friday, October 28, 2016

अतिशेष की स्थितयों से शालाओ को बचाओ अन्यथा,,,,,,? प्रशान्त दीक्षित खंडवा

प्रशान्त दीक्षित - खण्डवा सहित MP  के अनेक ज़िलों मे RTE  के नियमानुसार दर्ज संख्या के मान से शिक्षको की अधिक संख्या व उनका युक्ति युत करण हमारे भविष्य के दीर्घकालिक स्थिति को प्रभावित कर रहा है,,, इससे बचने बचाने के जो भी उपाय हो उन पर चिंतन आवश्यक है,,साथ ही उन पर कार्यवाही व क्रियान्वयन भी आवश्यक है अन्यथा की स्थिति अत्यंत भयावह प्रतित होती है,, कभी कभी तो इस बिंदु को लेकर नींद तक नही आती है।।अभी ब्लॉक व ज़िले के अंदर ही युक्तियुक्त करण हो रहा है, लेकिन सेटअप व्यवस्थित होने पर अन्य ज़िलों मे भी जाना पड़ सकता है,, अभी कुछ ज़िलों मे यह स्थिति हो चुकी है, जिसे युक्तियुत करने के लिए राज्य स्तर पर सूची बुलाई है,, सोचे, समझे,, आगे बढे,,, हमने संग़ठन स्तर के साथ मन्त्री जी को अनुरोध पूर्वक सुझाव दिया है कि  2 माध्यम की शिक्षा प्रणाली शासकीय शालाओ मे लागु की जाये,, (खण्डवा फार्मूला),,,इस पर माननीय शिक्षा मंत्री जी कु. विजय शाह जी ने भी अनोपचारिक सहमती व्यक्त की है।।मेरा सभी शिक्षको से अनुरोध है कि इस पर सभी विचार करें।।।जब हमारे पढ़ाये हुए बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूल मे पढ़ा सकते है, तो हम क्यों नही,,, जिस प्रकार लगभग बैंक, बीमा,, रेलवे, पोस्ट, कोष,आयकर आदि राज्य व केंद्र के  विभाग कंप्यूटर युक्त हो गए है,एवम् इसमें काम करने वाले लोकसेवक चाहे युवा हो या सेवानिवृत्ति के करीब उन्हें काम करने के लिए अपने ज्ञान को समय के साथ अपडेट करना पड़ा,,क्या हम अपने आप को समाज की शैक्षिक आवश्यकताओं के अनुरूप अपडेट नही कर सकते,, यदि कर सकते है, तो उठो, जगो खुद को पहचानो,,, दीर्घकालिक सेवा के साथ 7th व 8 th वेतनमान के लिए भी आवश्यक है,और कोई बेहतर चिंतन हो वह भी स्वागत योग्य है,लेकिन सुझाव समाज की स्वतन्त्रता को बाधक न हो उनके सहयोग व विकास के लिए हो,,सोचे,, सोचे,,,, चिंतन करे ,,चिन्ता भी करे,,,,,,सादर,,,।।(लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह इनके निजी विचार हैं )

Thursday, October 27, 2016

यह प्रयास होना चाहिए की छटे वेतनमान का लाभ हम सभी अध्यापको को नियमानुसार सही तरीके से मिले- अरविन्द रावल झबुआ

अरविन्द रावल झबुआ -हम सभी का यह प्रयास होना चाहिए की छटे वेतनमान का लाभ हम सभी अध्यापको को नियमानुसार सही तरीके से मिले। हमे वेतन निर्धारण के समय पूरी दृढ़ता से अध्यापको की सेवा अवधि का और शासन द्वारा जारी निर्देशो के अनुसार मिलने वाले इन्क्रीमेंटो पर भी ध्यान आकृष्ट करवाते हुए उनका पालन भी करवाना होगा। हम अध्यापक न तो कम वेतन ले और न ज्यादा ले । हम छटे वेतनमान के नियमानुसार ही सही वेतन पुरे हक से ले । नियम से ज्यादा वेतन पाने की आस  में भविष्य में हम अध्यापको को ही भारी पड़ने वाला हे क्योंकि भविष्य में कोष एव लेखा से वेतन निर्धारण प्रत्येक अध्यापको का होना तय हे। ज्यादा वेतन यदि अध्यापको ने लिया हे तो शासन के नियमानुसार 12% मय ब्याज के वेतन से भरना पड़ेगा। हम प्रयास कर रहे हे की सही सही तरीके से अध्यापको का वेतन निर्धारण हो। उम्मीद हे दीपावली बाद 10 तारीख तक अध्यापको के छटे वेतनमान का सही वेतन वेतन निर्धारण की सारणी आ जायेगी। जिससे हम नवम्बर माह के वेतन से प्रदेश में अध्यापक सवर्ग का एक समान वेतन निर्धारण करवाने का प्रयास करेगे।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

दीपावली पर्व और छठवॉ वेतनमान-कुलदीप सिंह राजपूत, ग्वालियर।


दीपावली के इस पावन पर्व पर सबसे पहले तो सभी साथियों,को हार्दिक बधाई। आपके आने वाले दिन खुशियो से,भरपूर रहै।
अध्यापक संवर्ग की अभी तक की सबसे बडी कामयाबी 2016 और छठवॉ वेतनमान निश्चित रूप से सभी साथियों को एक बार फिर प्रदेश सरकार ने देर से ही सही पर उन सब कर्मचारियो के अनुपातिक लाकर खड़ा कर दिया जो कभी हमे बडी हेय दृष्टि और अकसर इस बात की याद दिलाते रहते थे कि यार इन्हे तो मिलता ही क्या है पर आज बराबर का ग्रेड और सम्मानजनक स्थिति जिसका पूरा श्रेय जाता है उस आम अध्यापक के संघर्ष को जो कभी भी कहीं भी अपने एक साथी की ऑवाज पर पहुच जाता रहा है। अक्टूबर माह शहडोल कॉल और चढ़ गये एक सीढी उपर।
. अब चल रहा है मुख्यमंत्री जी के स्वागत की बयार जहॉ अध्यापको का एक धड़ा चाहता है कि स्वागत हो बही दूसरे धडे का कहना है कि बिलकुल हो पर पहले बिना विसंगति एक माह का नया वेतन प्रदेश के समस्त अध्यापको के खाते मे डिलीवर हो और आम अध्यापको की ऑवॉज भी यही है क्योकि अभी सरकार ने जो दिया वह हमारी एकता और संख्याबल को मानकर दिया है न की घर बुलाकर दिया । पर अभी भी कुछ मूलभूत छोटी छोटी समस्याये है जो बिना आर्थिक लॉस के पूरी हो सकती है पर शासन की मंशा समझ से परे है जैसे स्थानांतरण,बीमा, स्थाई पेंशन, सी सी एल,और गृह भाड़ा भत्ता इसमें शायद कुछ सहमति स्थानांतरण पर बनी है जो एक नबंबर से ऑनलाईन शुरू हो रही है पर उसमे भी कुछ न कुछ लोचा अवश्य होगा क्योकि अभी तक उसका प्रारूप सामने नही है और एक नबंबर पास है खैर ।
         अब सबसे बडी बात है जो कुछ विसंगति नये वेतनमान में है जिनके लिए हमारे साथियों,ने अपने प्रयास भी तेज किये है खासकर बरिष्ट अध्यापक की क्रमौन्नति पश्चात संवर्ग वेतन जो 4200 है की लिखित कार्यवाही अन्य जो छोटी मोटी कमी है वे दूर हो साथ ही स्थानीय लेखा संपरिक्षा विभाग से सेवा पुस्तिका का सत्यापन होना मतलब संकुल के बाबू को भी साधना होगा जिससे समय सीमा में कार्यवाही पूरी हो जिसके लिए सरकार शीघ्र हमारी जो नये वेतनमान मे कमी रह गई है पूर्ण करें।
इसी आशा के साथ एक बार पुन: आप सभी को दीपावली की शुभकामनाए।
    . कुलदीप सिंह राजपूत, ग्वालियर।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं , और यह उनके निजी विचार हैं )

हम शिक्षाकर्मी और संविदा से बने 98 से 2003 तक नियुक्त अध्यापको की सेवा की गणना 2007 से क्यों कर रहे है ?-रिजवान खान

1 अंतरिम राहत का निर्धारण 2007 से सेवा की गणना करके किया गया है. वर्तमान आदेश 2013 के अंतरिम राहत आदेश के अनुक्रम में जारी किया गया है.

 2 वर्तमान गणना पत्रक में प्रथम स्टेप क्रमशः 7440 9300 और  10230 है जो की 01.01.2016 के बाद नियुक्त अध्यापको को मिलेगी. अब देखे की यह स्टेप कहां से आई है.
4000*1.86=7440
5000*1.86=9300
5500*1.86=10230
स्पष्ट है की यदि 01.01.16 के बाद नियुक्त अध्यापको की गणना पांचवे वेतन के न्यूनतम को आधार मान कर की गई है तो 2007 में संवर्ग गठन के समय नियुक्त स्मविलियित अध्यापको को भी पांचवे वेतन को आधार मानकर 01.04.2007 की स्तिथि में अपना प्रारम्भिक वेतन निर्धारित करके ही 2016 ने तत्स्थानि वेतन निर्धारित करना होगा अन्यथा यह छठे वेतन की मूल भावना से खिलवाड़ करना होगा.

 3 शासन के आदेशानुसार शिक्षाकर्मियों को अपनी सेवाओ में अध्यापक संवर्ग में निरन्तरता प्राप्त है. इसी निरन्तरता के फलस्वरूप पूर्व काल की सेवा का वेटेज तीन वर्ष की एक वेतन व्रद्धि प्रदान करके दिया गया है. अतः इस निरन्तरता के फलस्वरूप मिले आर्थिक लाभ को शून्य करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध होंगा.
          अन्य लीगल पॉइंट भी है जो समय आने पर वरिष्ठ अध्यापक साथियो द्वारा बता दिए जायेंगे. अध्यापक ने एक समय वेतन आवंटन के लिए भी जिला स्तर पर लड़ाई लड़ी है. हमारा कोई काम आसान होता ही नही है. अतः यह कार्य भी आसान नही होंगा..
कोई बात नही.....एक और सही......रिजवान खान 9424403151
(लेखक स्वय अध्यापक हैं , और यह उनके निजी विचार हैं )

Thursday, October 20, 2016

माननीय उच्च न्यायालय इंदौर का आदेश, महिला अध्यापक को सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन प्रदान करें।

माननीय उच्च न्यायालय इंदौर  का आदेश Wp-7073/16 महिला अध्यापक को सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन प्रदान करें।
माननीय उच्चन्यायालय मध्यप्रदेश की इंदौर खंडपीठ  द्वारा
1 प्रमुख सचिव आदिवासी विकास मध्य प्रदेश
2 आयुक्त आदिवासी विकास मध्य प्रदेश
3 कलेक्टर /सहायक आयुक्त रतलाम
4 BRCC  बाजना  जिला रतलाम
को महिला अध्यापक हेतु  सन्तानपालन अवकाश का लाभ देकर वेतन भुगतान का आदेश प्रदान किया गया। ज्ञात हो सन्तानपालन अवकाश का लाभ महिला अध्यापको  को नही दिया जा रहा था जिससे व्यथित होकर याचिकाकर्ता द्वारा माननीय उच्च न्यायालय की शरण ली थी।  जिस पर  19-10-16 को माननीय उच्चन्यायालय इंदौर  द्वारा अध्यापक संवर्ग हेतु जारी राजपत्र 2008 के अवकाश नियम के प्रकाश में  अध्यापको को नियमित शिक्षको के समान स भी अवकाश की पात्रता  हैं । नियम अंतर्गत श्रीमंती अलका w/o गोपाल बोरिया जिला रतलाम की याचिका में 2 सप्ताह में सन्तानपालन अवकाश 195 दिन  का मानदेय स्वीकृत कर लाभ देने का आदेश पारित कर याचिकाकर्ता की याचिका निराकृत की गयी।
याचिकाकर्ता की और से आज एडवोहकेट श्री प्रवीण भट्ट रतलाम उपस्थित हुए।

पंचायत में कार्यरत अध्‍यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवां वेतनमान स्‍वीकृति आदेश

पंचायत में कार्यरत अध्‍यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवां वेतनमान स्‍वीकृति आदेश 
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Tuesday, October 18, 2016

नगरीय निकायों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवे वेतनमान आदेश

नगरीय निकायों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग को दिनांक 01/01/2016 से छटवे वेतनमान की स्वीकृति के संबंध में आदेश जारी
आदेश पीडीऍफ़ में प्राप्त करने के लिए इस लिंक पर जाए
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Sunday, October 16, 2016

संविलियन का आगाज शहडोल से -राजिव लवानिया (रतलाम)

राजिव लवानिया -ये कुछ तस्वीरें शाहडोल की हैं। देख के लगता नहीं की कल गड़ना पत्रक आया है। अगर कल आनन् फानन में वो गड़ना पत्रक इस डर से नही निकाला होता तो यक़ीनन ये संख्या इससे 4 गुना होती। लेकिन इतनी होना भी कम नहीं है। एक टीवी चैनल के अनुसार 30000 के पर हो सकती है। मतलब अगले कुछ महीनो में हमारी लड़ाई 1 लाख के ऊपर तो होगी ही ये आज तय लग रहा है।
        और जो कुछ मिला है अगर उसकी बात करूँ तो नया कुछ भी नहीं है जिसका बहुत ज्यादा उत्साह दिखा के उन्मादी संवाद किये जायें। जैसा की कुछ लोगो की पोस्ट में दिख रहा है जिस तरह से बधाई दी जा रही रही है जिस तरह से पोस्टर बनाये जा रहे हैं श्रेय की होड़ सी मची हुई है। कुछ लोग तो मिडिया का भी महिमा मंडन करने से बाज नहीं आ रहे हैं। ये सब वो काम कर रहे हैं जो हमारी इस एकता के लिए इस समय घातक सिद्ध होने वाला है। सर्कार या मिडिया का प्रवक्ता बनने से अच्छा है इस समय सबको और अधिक ताकत के साथ जोड़ा जाए ताकि अगली लड़ाई जो की संविलियन की हे सबसे महत्वपूर्ण इस लड़ाई के लिए एक जमीं जो तैयार हुई है उसको और अधिक ताकत मिले। लेकिन एक दो बड़े बड़े नेता जो ये समझ रहे हैं कि ये सब उनके कारण हुआ है वो मुगालते में जी रहे हैं। आज अभी अगर ये एकता की ताकत अलग होती है तो उनको उनकी असली औकात समझ में आ जायेगी। में उन्हें आगाह करना चाहता हूँ की या तो इस एकता के पक्षधर बने रहें या फिर जितनी राजनीती उनको करनी थी और जिस लिए वो इस राजनीती में आये थे वो पूरा हो चूका है अब उनका इस एकता में कोई स्थान नहीं है। कृपया अध्यापको की भावना के साथ खिलवाड़ न करें।
          अब बात करें जो मिला है उसकी तो ये वही 2013 वाला ही तो आदेश की अगली प्रति हे। जो जरा सा एरियर मिलने वाला है वो भी किश्तों में हो गया। जो लड़ाई शुरू से थी की 7440 और 10230 की तो वो आज मिला है। लेकिन असली जीत तो हमारी उस दिन होगी जब हम भी शिक्षा विभाग के होंगे। इसलिए ये उसकी शुरुआत हे। जो छोटी मोटी विसंगति इसमें दिख रही है उसको जल्दी ही अगले आदेशों में ठीक होने ही हे। नए बजट सत्र में 7वा मिलेगा सबको तो वो हमें भी मिलेगा बस तैयारी संविलियन की होनी चाहिए। और जिस एकता के बल पे हमने आज एक दिन में ये आदेश निकलवाया हे तो इसी एकता के बल पे हम संविलियन भी ले ही लेंगे। इसलिए केवल एकता के पक्षधर ही जीवित रह पाएंगे। इसलिए सभी अध्यक्षीय मंडल सदस्यों से अनुरोध हे इस एकता को बनाएं रखें। जो भी इसके खिलाफ जाता है उसे तत्काल पद से हटाया जाए। इसे एक आम अध्यापक की चेतावनी भी समझ सकते हैं।
                एक बात और कुछ अध्यापक आज भी शवराज मोह से बाहर नही आ पा रहे हैं। सीधे सीधे कहूँ तो ये वक़्त पूरी तरह बदलाव का ही हे। जिसको  आम अध्यापक को समझते हुए आगे अपनी सोच पे विचार करना होगा। 2018 अब दूर नहीं है। सीधी और अंतिम लड़ाई अब भी नहीं हुई तो आम अधयापक हमेशा के लिए आम बन के ही रह जाएगा। हमें दुसरो की नजर में ख़ास बन के दिखाना होगा। जिस दिन हमने ये कर दिया समझो हमारा काम अपने आप हो गया।
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

Saturday, October 15, 2016

नारी को बंदिशो की बेडी नही,बुलन्दियों को छूने का सबल दिजिये - राशी राठौर देवास


राशी राठौर देवास - छोटे से गाँव की शाला से निकलकर महाविद्यालय की देहलीज तक, रसोई घर से निकलकर कार्यालय तक भारतीय नारी का संघर्ष पूर्व समय की तरह चुनौती पूर्ण ही बना रहा है। इस संघर्ष को समाज समय समय पर और जटील ही बनाता रहा है। ये बंदिशे, सीमाऐ, ये प्रतिबंध ये फायदे के कायदे ,सारी चुनौतियों को मात देते  हुऐ भी नारी घर और बहार सफलता का वरण कर रही है !!  यदि समाज ने बन्दिशो की बेडियो की जगह सबल दिया होता तो नारी आज सफलता के चरम पर होती। क्या इतने प्रयास ,इतना संघर्ष,इतनी सफलता भी पर्याप्त नही है ये समझने के लिए की महिलाओं को अब दोयम दर्जे का नागरिक ना  माना जाये। क्या अब भी उसकी स्कर्ट के साइज पर टिप्पणी करना आवश्यक लगता है ? क्या अब भी उसकी जीन्स पर छिटाकशी उचित प्रतीत होती है। आज की आधुनिक नारी नैतिक, बौध्दिक, सामाजिक,पारिवारिक हर क्षैत्र मै खुद को सक्षम साबित कर चुकी है।कदम-कदम पर नारी की व्यवहार का आंकलन ही नही सुझाव भी बतौर नियम उस पर थौपे जाते है। नारी को क्या पहनना है,क्या खाना है, कैसे चलना है,कैसे बैठना है,किससे बात करना है, ये सब मानक उसके लिए निर्धारित किये जा चुके। कई बार तो इन्ही मानको के आधार पर उसका चरित्र तक का भी सर्टिफिकेट जबरन थमा दिया जाता है। किन्तु इन्हीं मानको से समाज एक वर्ग को खुली छूट दी गयी है। जिसका प्रतिफल वर्तमान समाज बढते अपराध है। मुख्यत नारी के प्रति बढते अपराध। पेड बचाओ, जल बचाव, के साथ ही आज हमे बेटी बचाओ भी कहना पड रहा है। ईश्वर की महान कृति मानव और उसी कृति का एक भाग नारी को भी अब प्राकृतिक संसाधनो की भांति बचाने के कयास लगाये जा रहै है। समाज से दरकार है की एक स्वस्थ वातावरण नारी विकास के लिए निर्मित करे। जहाँ वह अपनी प्रतिभा के अनुरूप अपने भविष्य निर्माण स्वयं कर समाज को गौरवान्वित कर सके।(लेखक स्वयं  अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

अध्यापक बार बार आंदोलन करने को क्यों मजबूर है - महेश देवड़ा ( कुक्षी,जिला-धार )


महेश देवड़ा-प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के कर्णधार तीन लाख अध्यापक एक बार फिर आंदोलित है। हाल ही मे प्रदेश भर मे तिरंगा रैलियों के माध्यम से अध्यापकों ने अपना आक्रोश प्रकट किया ओर पुनः एक बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । गत वर्ष भी सितंबर के महीने मे ही अध्यापको का उग्र आंदोलन हुआ था । ऐसे मे ये सवाल उठना लाज़मी है की आखिर प्रदेश के अध्यापक बार बार आंदोलन क्यो करते है ? आखिर ऐसी क्या मांगे है इन अध्यापकों की जिसे सरकार अठारह वर्षों मे भी पूरी नहीं कर पायी, जिसके कारण अध्यापको को बार बार आंदोलन, हड़तालों के लिए बाध्य होना पढ़ता है । अध्यापको की लड़ाई केवल वेतन भत्तों ओर सरकारी सुविधाओं भर की नहीं है जैसा की आमतौर पर समझा जाता है, अपितु यह प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शिक्षा विभाग को बचाने का संघर्ष है । नियमित शिक्षक संवर्गों के डाइंग केडर घोषित करने के बाद से जिस तरह शिक्षा विभाग अपने अघोषित अंत की ओर बढ़ रहा है यह सिर्फ अध्यापकों की नहीं अपितु प्रदेश के शिक्षाविदो, आम जनता ओर सामाजिक संगठनों की चिंता का विषय होना चाहिए । जल्द ही शिक्षा विभाग सिर्फ अधिकारियों ओर बाबुओं का विभाग बन के रह जाएगा । इसी से उपजती है अध्यापको की सर्वप्रथम मांग “शिक्षा विभाग मे संविलियन”। शिक्षक शिक्षा विभाग का ना हो ये अपने आप मे विरोधाभास है । प्रदेश के विध्यालयों मे अध्यापन कराने वाले अध्यापक शिक्षा विभाग के कर्मचारी नहीं माने जाते ये बात शायद बहुत कम लोग जानते होंगे । शिक्षा की बदहाली के लिए सरकार की ये दोहरी नीति ही जिम्मेदार है । सरकारी शिक्षा ओर सरकारी विध्यालय की बदनामी और निजीकरण के कुत्सित प्रयास प्रदेश के गरीब, शोषित, वंचित वर्ग के के बच्चों को निःशुल्क ओर अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित करने का प्रयास मात्र है । विध्यालय की एक ही छत के नीचे शिक्षक, अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षक के रूप मे अलग अलग पदनाम ओर वेतनमान के साथ वर्ग विषमता का वातावरण बना दिया गया है। इस तरह की भेदभावपूर्ण ओर शोषणपरक व्यवस्था के विरुद्ध अध्यापक यदि आवाज उठाते है तो उनका आंदोलन न्यायोचित ही है। यदि एक छत के नीचे एक जैसा काम करने के बाद अध्यापक यह मांग करे की उसे भी विभाग के शिक्षकों की तरह वही छठवाँ वेतनमान दिया जाए जो प्रदेश ओर देश के अन्य सभी कर्मचारियों को 2006 से मिल रहा है तो क्या गलत है इसमे ? एक ओर जहां सरकार सभी  कर्मचारियों को सातवाँ वेतनमान देने जा रही है वही दूसरी ओर अध्यापक को छठे वेतनमान के लिए ही सड़कों पर उतरना पड़ रहा है, वह भी तब जब प्रदेश के मुखिया स्वयं कई बार इसकी घोषणा कर चुके है ।वेतनमान ओर विभाग मे संविलियन के अलावा भी अध्यापको की कई मांगे तो गैर आर्थिक ओर मानवीय है पर सरकार की उपेक्षा ओर असंवेदनशीलता अध्यापकों को बार बार आंदोलन के लिए मजबूर करती है । अपने गृह जिलों मे कई पद रिक्त होने के बाद भी अध्यापक स्थानांतरण नीति के अभाव मे अल्प वेतन मे घरो से सेकड़ों किलोमीटर दूर सेवा करने को मजबूर है। अठारह सालों मे एक स्थानांतरण नीति का ना बन पाना सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है । पशुओं तक का बीमा करने वाले प्रदेश मे अध्यापकों का बीमा सरकार नहीं कर पाई । और तो और दोयम व्यवहार की हद तब हो गई जब प्रदेश सरकार ने ‘माँ’ ओर ‘माँ’ तक मे भेद कर लिया ओर महिला अध्यापक को संतान पालन अवकाश से वंचित कर दिया गया । संविदा शिक्षकों ओर अतिथि शिक्षकों की दशा तो ओर दयनीय है शिक्षा के अधिकार अधिनियम के बाद भर्ती के लिए तो पूर्ण शैक्षणिक ओर व्यावसायिक योग्यताओं की अपेक्षा की जाती है पर वेतन कीसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम दिया जाता है। वर्षों से जारी इस भेदभाव ओर शोषण से अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षकों मे हीनता ओर आक्रोश की भावना घर कर गई है । ऐसे मे इनसे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । इसके अलावा गैर शैक्षणिक कार्यों मे शिक्षकों को निरंतर लगाए रखना ओर गुणवत्ता सुधार के नाम पर नीत नए प्रयोग कर कर के अधिकारियों ने प्रदेश के शिक्षा विभाग को एक प्रयोगशाला मे तब्दील कर दिया है । राज्य शिक्षा सेवा भी सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के कारण विगत तीन वर्षों मे अस्तित्व मे नहीं आ सकी है । विभाग मे एकरूपता ओर समानता के वातावरण से ही शिक्षित ओर स्वर्णिम मध्यप्रदेश की ओर कदम बड़ाएँ जा सकते है । इसके लिए अध्यापकों की समस्याओं का निराकरण आवश्यक है । “शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009” के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो ।( लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )      

Friday, October 14, 2016

राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम होना आवश्यक है - विष्णु पाटीदार (खरगोन)


विष्णु पाटीदार - यदि सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर समान  पाठ्यक्रम लागू हो जाता है  तो राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में सभी छात्र / छात्राओं को प्रतियोगिता का बराबर अवसर मिलेगा   जैसे - नीट, जेईई,  यूपीएससी आदि
अशासकीय शालाओं की मनमानी भी कम हो जायेगी तथा अशासकीय शालाओं से लोगों का मोह कम हो जायेगा, पाठ्यक्रम एक जैसा होगा तो पाठ्य पुस्तकों की उपलब्धता भी अधिक होगी
   राज्य स्तर का पाठ्यक्रम सीबीएसई के पाठ्यक्रम की तुलना में सरल है  साथ ही एम पी के पाठ्यक्रम की बात करें तो परीक्षा परिणाम को सुधारने के लिए राज्य सरकार ने पाठ्यक्रम को सरल बनाने के साथ साथ विद्यार्थीयों को कई प्रकार से सुविधाएं भी दी जा रही है जैसे 25 प्रतिशत वैकल्पिक प्रश्न देना, दो विषय में पूरक देना और अब  हाईस्कूल स्तर पर बेस्ट आँफ फाईव लागू किया गया है एवं अगले वर्ष सामान्य गणित एवं उच्च गणित के चयन करने का विकल्प रहेगा  इससे गणित में कमजोर विद्यार्थीयों को सुविधा रहेगी लेकिन ऐसे विद्यार्थी राष्ट्रीय स्तर की परीक्षाओं में पिछड़ जायेंगे ।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को तृतीय   स्थान पर चुना गया है। 

बच्चे दक्षता प्राप्त कर सकें ऐसा पाठ्यक्रम होना चाहिए - विवेक मिश्रा ( नरसिंहपुर )

विवेक मिश्रा: यह भी सही है कि एक देश, एक समान शिक्षा, एक समान पाठ्यक्रम होना चाहिए. यह भी सही है कि माॅडल आन्सरशीट के अनुसार नंबर दिये जाने का प्रावधान है और न देने की स्थिति में जुर्माना भी लगाया जाना है, यह भी सही है कि राजीव गाँधी शिक्षा मिशन, सर्व शिक्षा अभियान के बाद राज्य शिक्षा सेवा में भी एसी मेें बैठे कुछ अधिकारियों के बदलने के मुताबिक दूसरों से हटकर दिखाने के लिए नीतियां बनाई जायेंगी, जो कुछ समय परिवर्तित हो जायेंगी, यह भी सही है कि इनके अनुरूप बहुत बड़ी संख्या में बहुत बड़े बजट पर निःशुल्क वितरण हेतु पुस्तकों का प्रिटिंग कार्य किया जाता है, जो कुछ समय में परिवर्तित हो जायेंगी, यह भी सही है कि पाठ्यक्रम और नीति देशकाल और वातावरण के अनुरूप होना चाहिए क्योंकि दिल्ली, मुंबई के बच्चों के आईक्यू और म. प्र. के एक गाँव के बच्चे के आईक्यू में बहुत अंतर होता है, यह भी सही है कि नीति निर्धारण व निर्मात्री समिति में शिक्षक संवर्ग को सम्मिलित अवश्य किया जाता है, पर अंतिम निर्णय तो आईएएस केडर ही लेता है जिनके बच्चों को कभी सरकारी स्कूल में पढ़ने नहीं आना है, नित नए सरकारी आदेशों के परिपालन के उपरांत यदि गैर शैक्षणिक लेखन, डाक निर्माण, प्रशिक्षण इत्यादि से फुर्सत मिल जाती है तो वह विधि ही सर्वोत्तम है जो किसी शहरी /ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे को वहां उसके देशकाल और वातावरण के अनुसार किसी भी कॉन्सेप्ट को सहजता से समझाने में मददगार हो अर्थात निर्धारित नीति अनुसार किताबी ज्ञान ग्रहण कराने से बेहतर है कि उन्हें सहज और व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया जाये जो स्थायी हो.
तो अंत में मेरा तो केवल इतना ही कहना है कि नीतियों के सही /गलत के विषय में हम हर साल उलझते /सुलझते रहे हैं परंतु सभी बच्चों में निर्धारित वांछित दक्षताओं का शतप्रतिशत लक्ष्य हासिल हो जाये, एेसा सैद्धांतिक रूप से कहा जा सकता है परंतु व्यावहारिक रूप से नहीं, क्योंकि प्राईमरी बच्चों के बस्तों के बढ़ते हुए वजन ही इस बात के जीते जागते उदाहरण हैं, शायद बिना बस्ते वाले स्कूलों की योजना भी बनाई गई है, कितनी चल रही है, कैसे चल रही है, कब तक चलेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता, वैसे इस लेख के बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता है कि इसमें जो कुछ भी कहने की जुर्रत की है, वो शिक्षकीय सदन कितना स्वीकारता है और कितना अस्वीकृत करता है, पर कुछ भी हो, रख तो अपनों के बीच ही रहा हूँ..          वैसे एक बात और भी कहना चाहता हूँ कि उपरोक्त विषय पर ऊपर भी सभी सम्मानीय साथियों द्वारा अपने अपने विचार तर्क सहित रखे जा चुके हैं, जो बेहद सटीक और विषयानुकूल हैं, सो मेरे पास लेख में ज्यादा कुछ कहने या लिखने को शेष नहीं रह जाता है,

 लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को संयुक्त रूप से द्वितीय  स्थान पर चुना गया है। 


एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम भारतीय शिक्षा के समग्र विकास में सहायक होगा -विजय तिवारी (सुवासरा मंदसौर )

विजय तिवारी -विषय अनुरूप एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम या शिक्षा पद्धति लागू होना चाहिए । वर्तमान में कई विकसित राष्ट्रों ने भी one nation one education की प्रणाली अपना क्र चल रहे हे ।। भारत जैसे विकासशील व्  विविधता वाले राष्ट्र के लिये यह अति आवश्यक हे ।। सम्पूर्ण देश में एक पद्धति लागू हो जाने से राष्ट्रिय बोर्ड व् राजकीय बोर्ड का भेद मिट जायेगा जिससे छात्र व पालको में कोर्स के प्रति होने वाला संशय भी समाप्त होगा की कोन सा कोर्स बहतर हे । ऐसा होने से प्रतेयक बच्चे तक सामान कोर्स पड़ने के लिये उपलब्ध होगा ।। आज जहाँ निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की बात हो रही की प्रत्येक बच्चे तक ज्ञान पहुचे तो इस प्रणाली से सर्वमान्य कोर्स प्रत्येक छात्र तक पहुचेगा ।। आज शिक्षा का विषय समवर्ती सूची में रखा गया हे ।परन्तु कोई भी राज्य अपने यहाँ होने वाले कुल शिक्षा खर्च का लगभग30% ही स्वयम् खर्च करती हे बाकि के लिये केंद्र पर ही निर्भर हे । इसलिये शिक्षा को केंद्र द्वारा पूर्णरूप हे अपने पास लेकर भारतीय शिक्षा में आ रही किसी भी प्रकार की विसंगति को दूर किया जा सकता हे ।। अब चाहे वह शिक्षको की भर्ती या विद्यालयो के सनरचनात्मक विकास ।। एक कोर्स होने से शासन द्वारा छापी जाने वाली पुस्तके व् सहायक सामग्री में आने वाला ख़र्च भी प्रति वर्ष नही होगा तथा  अशासकीय विद्द्यालयो में अध्ध्य्यन रत छात्रो को प्रति वर्ष महंगे कोर्स से भी मुक्ति मिलजायेगी ।। एक और महत्त्वपूर्ण बात की सामान शिक्षा पद्धति लागू होने से रास्ट्रीय स्तर पर होने वाली परीक्षाओ में सभी को सामान कोर्स से अवसर प्राप्त होगा ।यह भावना भी मिटेगी की CBSE कोर्स राज्यो के कोर्स से बहतर हे । अतः एक राष्ट्र एक पाठ्यक्रम भारतीय  शिक्षा के समग्र विकास में सहायक होने के साथ साथ राज्यो में व्याप्त विभिन्न विसङ्गतयो पर रोक लगाई जासकती हे ।।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने पक्ष में लिखा है आप के लेख  को द्वितीय स्थान पर चुना गया है।

पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं।- राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर )

 राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर ) - अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है। यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं। यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं। कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है। बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है।राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम सभी शासकीय विद्यालयों के लिए लागू करना कोई बहुत लाभकारी निर्णय नहीं होगा। यह मांग बहुत समय से हो रही है की, राष्ट्रीय स्तर पर शासकीय विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम लागू किया जाए , परंतु इसमें बहुत सी व्यवहारिक कठिनाइयां हैं जैसे हर राज्य का आर्थिक दृष्टि से अलग-अलग विकास होना । छात्रों का मानसिक स्तर राज्य के अनुसार अलग अलग होना। अलग-अलग राज्यों में विद्यालयों की संरचना , छात्र शिक्षक अनुपात ,एक विद्यार्थी के ऊपर सरकार के द्वारा खर्च किए जाने वाला पैसा आदि , अलग अलग होता है। अतः एक जैसा पाठ्यक्रम पूरे देश में लागू करना, पिछड़े राज्यों के छात्रों के साथ अन्याय होगा।वैसे भी केंद्र सरकार ,सभी राज्यों में समान पाठ्यक्रम लागू करने के लिए, केंद्रीय विद्यालय एवं नवोदय विद्यालय के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसा पाठ्यक्रम छात्रों को उपलब्ध कराती है। और शैक्षिक दृष्टि से विकसित कुछ राज्य जैसे केरल आदि, केंद्र सरकार के द्वारा लागू किए पाठ्यक्रम को अपने यहां फौरन लागू कर देते हैं ।परंतु यही कार्य उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के लिए उनके ख़राब शैक्षिक ढांचे के कारण करना संभव नहीं हो सकता।
लेखक स्वय अध्यापक  हैं और यह उनकी निजी राय है  "सरकारी विद्यालयों में राष्ट्रीय स्तर पर सामान पाठ्य क्रम होना क्यों आवश्यक है ? " विषय पर आप ने विपक्ष में लिखा है आप के लेख  को प्रथम स्थान पर चुना गया है।

  



Monday, October 10, 2016

संतान देखभाल अवकाश के मामले में सरकार की हार, माननीय उच्च न्यायलय ने महिला अध्यपकों को सन्तान देखभाल अवकाश की पात्र बताया आदेश प्राप्त करें .


   सुरेश यादव रतलाम - याचिकाकर्ता श्रीमती  सुभद्रा ओझा की याचिका  क्रमांक WP 5104 /2016 को स्वीकृत करते हुए जिला  शिक्षा अधिकारी के आदेश दिनांक 29 जून 2016  को निरस्त कर दिया गया जिसमे अध्यापक संवर्ग को इस अवकाश अपात्र बताया गया था।  माननीय उच्च न्यायलय  ने कहा की " अध्यापक भर्ती एवं सेवा  की शर्ते नियम 2008 "  के अनुसार अध्यापक संवर्ग को शिक्षक संवर्ग के समान सभी अवकाश की पात्रता है ,इस लिए  अध्यापक संवर्ग को संतान देखभाल अवकाश से वंचित नहीं किया जा सकता  है। यह आदेश न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव की कोर्ट द्वारा दिया  गया ,याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री यशपाल राठौर ने पैरवी की। 
      कई बहने जो इस अवकाश का लाभ नहीं पा रही  है वे माननीय  न्यायालय की शरण लें , लाभ अवश्य होगा ।वैसे कई महिला अध्यापको ने माननीय न्यायालय में याचिका दायर की हैं।  पारिस्थितियो में  अभी कुछ बदलाव हुआ है  शिक्षा विभाग मध्य प्रदेश शासन  ने दिनांक 6 अगस्त 2016 को   अध्यापक संवर्ग को इस अवकाश से वंचित करने का आदेश जारी किया है  ,परन्तु वह आदेश  भी निरस्त किये जाने योग्य है बहने उस आदेश को भी न्यायालय में चुनोती देवें। 
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Sunday, October 9, 2016

अधिनायक बादी योजनाओ या पाठ्यक्रम का विरोध करें शिक्षक - विजय तिवारी (सुवासरा)

विजय तिवारी -शुक्रवार और शनिवार के विषय , प्राथमिक विद्यालय में कम हो रहे प्रवेश के जिम्मेदार विद्यालय के  की परिस्तिथियों के साथ साथ शिक्षक भी हे ।। जिन्होंने कभी भी किसी भी सरकारी अधिनायक बादी योजनाओ या पाठ्यक्रम का विरोध नही किया ।। जिसका परिणाम आज की स्थिति  हे और आज भी यही हो रहा शासन प्रशासन द्वारा जो भी कार्य या पाठ्य योजना हमे दी जाती हे उसे हम सहर्ष स्वीकार करते जा रहे हे। जिसे शासन हमारी स्वीकृति मानकर योजना की सफलता का श्रेय लेता हे ।। हमारे अग्रज शिक्षको ने सरकारी नौकरी को आपना अधिकार मान कर कभी भी किसी परिवर्तन का विरोध नही किया और ना ही अपने आप में परिवर्तन उचित समझा जिसका ही नतीजा कर्मी वर्ग की भर्ती का चालू होना भी हे ।। परन्तु वर्तमान समय में सरकारी नोकरियो का सतत अकाल होता जा रहा हे और हमे यह मुगालता भी नही पालना चाहिये की सरकारी नौकरी में लगने के बाद किसी को बाहर नही किया जा सकता ।। हमारे सामने कई विभागों के स्ंविदा कर्मी को कार्य से प्रथक किया जाना एक उदाहरण हे ।।यदि समय के साथ शिक्षको में स्वयं को हर विषय के लिये अपडेट किया होता तो यह स्तिथि नही होती ।। आज भी यही हो रहा हे हम अपने मूल कार्य को side work मान कर चल रहे हे ।। जबकि यही कार्य हमारी आजीविका हे ।। ठीक इसके विपरीत अशासकीय विद्यालय नित नए आकर्षण व् कलेवर के साथ पालक व् छात्रो को आकर्षित कर रहे हे ।।  25% की योजना भी हमारे विद्यालयो को बन्द कराने का एक जरिया साबित हो रहा हे ।।क्योकि विगत कुछ वर्षो में ग्रामीण क्षेत्रो  तक आशासकीय विद्यालयो की पहुँच होचुकी हे और ग्रामीण क्षेत्र के पालको की आशासकीय विद्यालयो तक ।। इस लेख में मैंने शासकीय विद्यालयो को हमारे या अपने विद्यालय कह कर सम्बोधित किया क्योकि ये ही हमारी आजीविका का आधार हे और हमारी योग्यता का परिचय भी ।। इस लिये विद्यालयो के साथ साथ दूसरा विषय हिंदी भाषा का था वह भी हमारी भाषा हे । इन दोनों को बचाने व् सम्मान दिलाने के लिये हमे यकीनन दिल से प्रयास की आवश्यकता हे ।। किसी बहाने की नही ।। क्यों समाज हम शिक्षको के निर्देशन से चला हे और आगे भी चलता रहेगा .

( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख  तृतीय  स्थान  पर चयनित किया  गया है  )

छात्रों के साथ शिक्षकों की दर्ज संख्या भी गिर रही हैं कई सरकारी स्कूलों में तो कहीं बना ली बढ़त - सचिन गुप्ता (खितौली)

दर्ज संख्या में गिरावट की मुख्य वजहें हैं ।
1. जनमानस में सरकारी स्कूल के प्रति नकारात्मक रवैया।
2.RTE के तहत् 25% छात्रों का निजी विधालयों में जाना।
3. अँग्रेजी के प्रति पालकों, अभिभावकों,छात्रों का बढता रूझान।
4. प्राथमिक स्तर पर शिक्षकों में उदासीनता ,नीरसता का माहौल निर्मित हो जाना।

दर्ज संख्या में गिरावट का प्रभाव
1. युक्तियुक्तकरण
2. एकशिक्षकीय व शिक्षकविहीन शाला हो जाना
3. हर वर्ष शिक्षकों के अंदर युक्तियुक्तकरण भय व्याप्त रहना।
4. सरकारी विधालय के बंद होने की स्थिति निर्मित होना।

और तो और अब वंचित, कमजोर वर्ग के मन में भी यही धारणा बन गयी है कि सरकारी स्कूल में अध्यापन कार्य की जगह शिक्षकों के पास अन्य सरकारी काम होने की वजह से शिक्षक छात्रों को समय नहीं दे पा रहे और जो बाकी समय शेष बचता है उसमें शिक्षक अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक ,शैक्षणिक , राजनैतिक ,समसामयिक, अध्यापक आंदोलन के प्रभाव व परिणाम , मध्यांन्ह, दुग्ध वितरण आदि अनेक विषयों के विचार विमर्श (गप्पों) में मसगूल रहकर शेष समय का आधा भाग निकाल देता है और फिर बाकी बचे समय में अध्यापन कार्य करके अपनी खानापूर्ति कर देते हैं ।

इन्हीं सब वजहों से पालकों अभिभावकों के मन में सरकारी स्कुल के प्रति मानसिकता नकारात्मक हो गयी है।
दर्ज संख्या में गिरावट का दुष्परिणाम आज शिक्षक के सामने युक्तियुक्तकरण बन के खडा है । इस समस्या से आज शिक्षक समुदाय युक्तियुक्तकरण की प्रक्रिया के भँवरजाल में फँसकर अधिकारियों के लिए आदेश रूपी बाँलीबाल बन कर रह गया है जिसे जब मन चाहा  आदेश रूपी हाथ मारकर इस तरफ से उस तरफ भेज दिया । कई स्कूल युक्तियुक्तकरण से एक शिक्षकीय हो गए 2-3 स्कूल खुद मेरे संकुल में उदाहरण है।
इसके अतिरिक्त एक ही परिसर में लग रहें प्राथमिक और माध्यमिक विधालयों का एकीकरण भी हो रहा है।जहाँ दर्ज संख्या 20 से कम है शायद वो विधालय बंद हो जाएँ ।
मतलब साफ है सरकारी विधालयों की छँटनी चालू हो चुकी है।अगर यही करना था तो हर एक-दो किमी की परिधि में प्राथमिक, माध्यमिक विधालय को खोलने की उपयोगिता पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है क्योंकि एक दो किमी के दायरे में स्कूल खोलने से ही सबसे पहली बार कम दर्ज संख्या में ही छात्रों का अध्ययन अध्यापन कार्य शुरू हुआ था या तो शासन तब गलत थी जब हर जगह स्कूल खोल रही थी या फिर अब ,जब स्कूलों के सामने बंद होने का संकट गहराया हुआ है।
आखिर अतिशेष का दंष झेल रहे शिक्षक सरकारी स्कूलों के बंद होने की स्थिति में जाएगा कहाँ और आगामी दिनों में ग्रामीण परिवेश में सरकारी इन सभी वजहों से आज शिक्षक अतिशेष का दंष झेल रहें हैं और आगामी दिनों में ग्रामीण परिवेश के लोग सरकारी स्कूल के बंद होने की दिशा में वहाँ के छात्रों का क्या होगा बेशक आप उनका दाखिला कहीं भी करा देंगे पर उसे नियमित विधालय लाने में अंततः हार जाएँगे।कुल मिलाकर नुकसान छात्र, शिक्षक और शिक्षा का होगा ।
प्रथम भाषा (राष्ट्र) को अंतिम क्रम में रखने से हमारी राष्ट्र भाषा के प्रति शासन की मंशा क्या है साफ झलकता है।
भाषा भावनाओं को व्यक्त करने का एक साधन मात्र ही नहीं है बल्कि भाषा की समझ होने पर ही हम हिंदी भाषी गणित , विज्ञान,तकनीकी व अन्य विषयों पर अपनी पकड मजबूत बना पाते हैं,हालाँकि आज के समय में अँग्रेजी ने जनमानस पर अपनी बढत बना ली है और इसके बिना तकनीकी ज्ञान अधूरा रह जाएगा लेकिन बात है भाषा को अंतिम क्रम में रखने की तो यह सरासर गलत है भाषायी ज्ञान होने पर ही हम हर विषयों में दक्ष हो पाते हैं।
माध्यमिक विधालय की पद संरचना पूर्व से ही समझ से परे रही है जहाँ कला,विज्ञान,भाषा संकाय को शामिल करके तीन शिक्षकों को 6-8 का अध्यापन कार्य सौपा गया जबकि भाषा संकाय से चयनित हुए कई साथियों के साथ हुयी वार्तालाप से अनुभव हुआ कि हिन्दी से चयनित हुए शिक्षकों को अँग्रेजी ,संस्कृत पढाने में कठिनाई हो रही है तो वही अँग्रेजी काज्ञान रखने वाला शिक्षक साथी हिन्दी ,संस्कृत पढाने में असहज महसूस कर रहा है
अंततः भाषायी ज्ञान देने के लिए कम से कम तीनों भाषा के पृथक शिक्षक होने चाहिए वैसे तो हर विषय के लिए एक अलग शिक्षक हो तो काफी अनुकूल परिणाम सामने आ सकते हैं।


( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,
शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख  प्रथम स्थान  पर चयनित किया  गया है  )



सरकार के शिक्षकों की संख्या अतिशेष रहेगी तो नई भर्ती करने का तो सवाल हीं पैदा नहीं होता - विष्णु पाटीदार ( खरगोन )

 विष्णु पाटीदार - आज का विषय प्राथमिक शालाओं में गिरती छात्र संख्या के कारण बंद होते प्राथमिक विद्यालय और अतिशेष होते शिक्षक एवं  माध्यमिक विद्यालय में नवीन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम राष्ट्र भाषा को अन्तिम क्रम पर रखना सही है
         सर्वप्रथम तो प्राथमिक विद्यालयों में गिरती  छात्र संख्या का मुख्य कारण शासकीय शालाओं के शिक्षकों को पढ़ाने का कार्य छोड़कर बाकी सारे कार्य करवाया जाना  जैसे - बीएलओ, पोलियो की दवा, मध्याह्न भोजन, समय समय पर सर्वे कार्य करवाना निःशुल्क पाठ्य पुस्तक, साईकिल वितरण, गणवेश वितरण और भी अन्य समसामयिक कार्य की वजह से शिक्षक अपना मूल कार्य पढ़ाना तो कर हीं नहीं पाता इसलिए जनता में यह संदेश जाता है कि सरकारी स्कूल में तो पढ़ाई बिल्कुल नहीं होती तथा दूसरा कारण यह कि अंग्रेजी माध्यम में बच्चों को पढ़ाने का भूत सभी पर सवार है तो पालक अपने बच्चों को निजी विद्यालय में भर्ती करवाते है जिससे सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती चली जा रही है अगर ऐसे ही छात्र संख्या का स्तर गिरता रहा तो आने वाले वर्षों में सारे सरकारी स्कूल बंद हो जायेंगे और सारे शिक्षक अतिशेष हो जायेंगे ।
         माध्यमिक शालाओं में आरटीई नार्मस् के हिसाब से  सभी विद्यालयों में 100 से कम दर्ज संख्या रह जाएगी और साईंस, संस्कृत और हिंदी के सारे शिक्षक अतिशेष हो जायेंगे तथा राष्ट्र भाषा हिन्दी को अंतिम स्थान पर रखना इस देश का दुर्भाग्य है साथ ही सारे प्रधानाध्यापक भी अतिशेष हो जायेंगे । इसका नतीजा यह होगा कि सरकार के शिक्षकों की संख्या अतिशेष रहेगी तो नई भर्ती करने का तो सवाल हीं पैदा नहीं होता । इसका प्रभाव हाईस्कूल एवं हायरसेकेण्डरी पर भी पड़ेगा । जब स्कूलों में बच्चे नहीं होंगे तो स्कूल बंद करना हीं पड़ेगा ।
( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके  निजी विचार हैं ,शुक्रवार और शनिवार का विषय था  प्राथमिक शालाओ में गिरती छात्र संख्या ,के कारण बंद होते विद्यालय  और अतिशेष होते शिक्षक ,एवं माध्यमिक विद्यालय मे नविन पद संरचना का प्रभाव और प्रथम (राष्ट्र) भाषा को अंतिम क्रम पर रखना कितना सही है। इस विषय पर आप का लेख द्वितीय स्थान पर चयनित किया  गया है  )

विश्वास से, छल कहे ,या वादा खिलाफी कहे। तू ही बता ऐ सरकार तेरी इस दोहरी नीती को, हम क्या कहे ? - राशी राठौर देवास

राशी राठौर देवास - एक जनवरी 2016 के बाद बने अध्यापक मतलब 2013 के संविदा शिक्षक को  छटवे वेतनमान से वंचित रखने की खबर हर संविदा साथी पर आसमानी बिजली बनकर गिरी।संविदा शिक्षक  अध्यापको के साथ सरकार से ही वादा निभाओ कहता रहा उसे क्या पता था की अचानक स्थिति बदल जायेगी है और जिनके विश्वास के बल पर चल पडे है वो ही मोन धारण कर लेंगे । 2013 के संविदा को तो अब सरकार और अध्यापक संघर्ष समिति दोनों से ही वादा निभाओ कहना है।
" फूट डालो और शासन करो " नीती अंग्रेज तो चले गये पर यह नीती यंही छोड गये। इसी नीती से इस बार संविदा का शिकार करने का विचार है। एक तीर से कई शिकार - अध्यापको मै फूट, अध्यापको के संख्या बल का बिखराव, 2013 और उसके पहले के अध्यापको मे आपसी संघर्ष और शिक्षा विभाग लक्ष्य से दूरी बढाना। यदि यही करना है तो समान कार्य और समान वेतन क्या होता है फिर ? कम से कम इसे तो समान कार्य और समान वेतन नही कह सकते। शिक्षको के बाद शिक्षा कर्मी की भर्ती करके। शिक्षाकर्मी को हर सुविधा से वंचित कर दिया था। इस समय सबसे बडी भूल शिक्षको ने की इस नाजायज व्यवस्था का विरोध नही करके। आज शिक्षको की प्रजाति ही विलुप्ति की कगार पर पहुंच गयी है। अध्यापक संघर्ष समिति को मौन तोडकर सरकार के इस षडयंत्र को विफल करना चाहिए। चाणक्य ने कहा है " हमे दूसरो की गलती से भी सिखना चाहिए, क्योंकि खुद गलती करके सीखने के लिए ये जीवन बहुत छोटा है।" कम से कम वर्तमान अध्यापक संघर्ष समिति द्वारा इस गलती को पूर्व के शिक्षकों की भांती दोहराना नही चाहिए। जब मित्र कहा है तो फिर कर्ण सी मित्रता अध्यापक संघर्ष समिति ने संविदा शिक्षक के साथ निभानी चाहिए। कंधे से कंधा मिला कर सरकार का पुरजोर विरोध होना चाहिये ।
( लेखक  स्वयं अध्यापक है और यह उनकी निजी राय है । )

सरकार का भरोसा नहीं इसीलिए आंदोलन का हिस्सा बनें 2016 में अध्यापक बने संविदा शिक्षक - वसुदेव शर्मा ( छिंदवाड़ा


वैसे तो यह संभव नहीं है कि सरकार 2016 में संविदा शिक्षक से
अध्यापक बनने वालों को छठवें वेतनमान के लाभ से वंचित कर दे।
यह इसीलिए भी संभव नहीं है कि सरकार नियम कायदों से
चलती है, किसी की सनक से नहीं। चूंकि सरकार अध्यापक संवर्ग
को छठवें वेतनमान के दायरे में नियमों के तहत ला चुकी है
इसीलिए छठवें वेतनमान का लाभ हर किसी को मिलेगा, यह
सत्य है और यदि ऐसा नहीं हुआ तो यह शिवराज सिंह की सरकार
की मनमानी और तानाशाही ही कही जाएगी और इस
तानाशाही को सिर्फ और सिर्फ आंदोलन और संघर्ष के जरिए
ही रोका जा सकता है, इसीलिए 2016 में अध्यापक संवर्ग में
शामिल होने वाले संविदा शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वह
अध्यापक संघर्ष समिति के आंदोलनों में आगे आकर शामिल हों।
चूंकि शिवराज सिंह की सरकार अप्रैल एवं मार्च 2016 में प्रदेश
के विभिन्न विभागों से 10,000 संविदाकर्मियों की छंटनी कर
चुकी है, इसीलिए ऐसी किसी संभावना से इंकार नहीं किया
जा सकता कि अध्यापक संवर्ग सरकार के हमले का शिकार न
हो। 2016 में अध्यापक बने संविदा शिक्षकों के बारे में सामने
आई जानकारी चौंकाने वाली है, इसीलिए आज सभी को
चौकन्ने रहने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि शहडोल से लेकर
विधानसभा घेराव के प्रस्तावित आंदोलनों में हर अध्यापक की
हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। जितने अधिक अध्यापक
आंदोलन का हिस्सा बनेंगे, उतना ही अधिक सरकार और
मुख्यमंत्री डरेंगे और डरी हुई सरकार छठवें वेतन से वंचित नहीं कर
सकती।
जिस तरह सरकार ने 10,000 संविदाकर्मियों की छंटनी कर दी
और इनके संगठनों के नेताओं ने चुपचाप इसे स्वीकार कर लिया है,
हो सकता है इससे सरकार में हिम्मत आ गई हो और वह दूसरे संवर्ग
को भी निशाने पर लेने की सोच रही हो। 16 अक्टूबर को
शहडोल और 13 नवंबर को भोपाल में ताकत दिखाकर
अध्यापकों को सरकार की इस सोच को बदलने का काम भी
करना है, यह समय डरने का नहीं बल्कि सरकार को डराने का है
और सरकार डरती है एकता से, जो अध्यापकों में बन चुकी है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं )


सिर्फ वेतन भत्तों की लड़ाई यही वरन विभाग बचाने की भी लड़ाई है - सुरेश यादव रतलाम

 सुरेश यादव रतलाम - कल दैनिक भास्कर में प्रकाशित रिपार्ट के अनुसार प्रदेश के 10  हजार संविदा कर्मचारियों की छंटनी ( सरकार की तरफ से पैसो की कमी या कुछ वजह बता कर सेवा समाप्त करना) कर दी गयी है । इसमें में से  चार हजार  तो सीर्फ स्वास्थ्य विभाग के संविदा कर्मचारी है ,जो ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन अंतर्गत काम कर रहे थे । इसी प्रकार अगस्त माह में प्रदेश की लगभग पाँच  हजार नर्स ,ANM  और  MPW .( बहुउद्देशिय स्वास्थ्य कार्यकर्ता ) को 60 वर्ष की आयु पूर्ण करने के चलते अचानक सेवा निवृत्ति  कर दिया गया । जबकि  सेवा शर्तो में सेवा निवृत्ति की आयु 65 वर्ष थी ,लेकिन एक नया आदेश जारी कर  पाँच  हजार कर्मचारियों को अचानक सेवा निवृत्ती दे दि गयी ।
        कुल मिलाकर के  स्वास्थ्य विभाग के 9000 कर्मचारियों को दबे पांव घर भेज दिया और कंही कोई हलचल , विरोध के स्वर नजर नहीं आये ,जानते है क्यों क्योकि सावस्थ्य सेवाओं को सरकार द्वारा अपनी नीतियो द्वारा पहले बदनाम किया गया फिर बर्बाद कर दिया गया और अब बंद करने की कागार पर ले जाकर ,कर्मचारियों की छंटनी  प्रारंभ कर दी गयी  । जैसे की रोडवेज को बंद कर दिया गया था । असलियत यह है कि प्रदेश में अब 9 नए  मेडिकल कॉलेज खुल रहे है सभी PPP  मॉडल पर खुल रहे है । पिछले दरवाजे से पूंजीवादियो की दखल  और दबे पांव निजीकरण । आप जानते है ,सावस्थ्य विभाग के नो हजार कर्मचारियों को एक दम से घर भेज दिया जाता है और कंही कोई विरोध के स्वर नहीं सुनाई देते  क्यों ,क्योकि समाज मुंह मोड़ चूका है । सावस्थ्य सेवाओं को  ,सरकार ने इतना बदनाम कर के रख दिया है ।
        इसकी एक वजह यह भी रही की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मचारी संगठन अपने वेतन और सेवा शर्तों की बात तो करते रहे लेकिन समाज को यह बताने में असफल रहे की दूर दराज के गावो में एक ANM और MPW  की स्वास्थ्य सेवाओं में  क्या भूमिका है।  और दूसरी वजह उन्होने अपने विभाग पर हो रहे निजीकरण के हमले को लेकर कभी मुद्दा नहीं बनाया ।
          मुझे याद है में सविदा स्वास्थ्य कर्मचारियों की हड़ताल में गया था पास में ही ANM और MPW  की हड़ताल भी हो रही थी दोनों टेंट पास पास ही लगे हुए थे । मेने दोनों जगह अपने संबोधन में कहा था कि " आप अपने वेतन भत्तों के लिए तो लड़ रहे है लेकिन सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी हाथों में देने का सैद्धान्तिक निर्णय ले चुकी है। (अलीराजपुर जिले में सावस्थ्य सेवाओं को  निजी हाथो में सौंप दिया गया था  )  मैंने कहा था कि हमें मिलकर लड़ाई लड़नी चाहिए ,हमारी सेवा में भी 25 प्रतिशत बच्चों  को निजी विद्यालय में भेज कर क धीमें जहर की तरह निजीकरण की शुरुवात कर दी  है ,जो हमारे विभाग की जड़ो खोखला कर रहा है (छात्रों की दर्ज संख्या में कमी ) ।  मैंने कहा था कि शिक्षा और स्वास्थ्य तो आम नागरिक का मौलिक अधिकार होना चाहिए और यदि सिस्टम में  कंही कोई  बिमारी है तो ,उसका इलाज किया जाना चहिये ,प्रत्येक बिमारी का इलाज निजीकरण तो नहीं है।  क्या एक व्यापारी  बिना लाभ के कोई सेवा देगा ? क्या यह सम्भव है ,की दूरस्थ अंचल में  कोई व्यापारी ANM  बहनों की तरह या MPW भाइयो की तरह  सेवा देगा ? उसका उद्देश्य तो अपना व्यापर बढ़ाना होगा । मैंने कहा था की जब हमारी नोकरी बचेगी तभी तो हम वेतन भत्तों की बात करेगे ,इस लिए समाज को साथ लाओ ।उसे अपने मोल का अंदाजा  करवाओ  "
           साथियो बात हमारे विभाग की भी । क्या आप जानते है शिक्षणिक सत्र 2015-16 में और वर्तमान सत्र में लगभग 2500 शालाऐं  (5000 शिक्षक) कम दर्ज संख्या के कारण बंद कर के पास की शालाओं  में मर्ज कर दि गई   ?  इसके अतिरिक्त प्राथमिक शालाओं के लगभग 10 हजार शिक्षक अभी होने वाले यूक्तियुक्तकरण मे अतिशेष होने वाले  हैं , इस प्रकार प्राथमिक शालाओं के कुल 15 हजार शिक्षक अतिशेष हो जाएंगे ,जबकि रिक्त स्थान लगभग 5000 ही बचे हैं (हमारी भी अचानक से छंटनी  हो जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ) ।  एक अन्य खतरा जो अभी हम तक नहीं पहुंचा है वह है ।माध्यमिक शालाओं  की नविन पद संरचना जिसके चलते 2 तिहाई शालाओं पर एक शिक्षकीय शाला  होने का खतरा मंडराने लगा है ।
           सरकार ने अपनी नीतियों के द्वारा  पहले प्राथमिक शालाओं से आमजन का मोह भंग किया , अब धीमे धीमे बंद भी कर दिया ,क्या कंही किसी गाँव में विद्यालय बंद होने पर आमजन का विरोध नजर आया ?  अब इस प्रकार नई पद संरचना के कारण माध्यमिक शालाओे को एक शिक्षकीय कर के विद्यार्थियों को शालाओ से दूर किया जाएगा ।
          साथियो अब बात हामारे वेतन भत्तों की भी कर ली जाये । कल ही एक समाचार आया की 1 जनवरी 2016 के बाद अध्यापक बने साथियो को 6 टे वेतन का लाभ नहीं मिलेगा । वैसे यह संभव तो नहीं है लेकिन जब सरकार शिक्षा विभाग को बर्बाद करने का ठान ही चुकी है तो ,कब क्या कर दे कह नहीं सकते । इस लिये आप हम सब मिल कर ईस लड़ाई को लडे ,क्योकि अब लड़ाई  सिर्फ वेतन भत्तों की लड़ाई यही वरन विभाग बचाने की भी लड़ाई है। यदि विभाग और हमारी नोकरी बचेगी तभी तो हम वेतन भत्तों की बात कर पायेगें। यह लड़ाई हमारी आने वाली पीढ़ियों के अधिकार की लड़ायी है क्योकि शिक्षा विभाग ही तो सबसे अधिक रोजगार सृजन वाला  विभाग है । हमारे कई  साथी इस विषय पर भी गहन चिंतन मनन कर रहेै हैं  और मुद्दे आप तक पंहुचा रहे हैं । अभी हमने पहली बार हमारे ज्ञापन में विभाग की व्यस्था में सुधार कें लिए भी मांग की है (  परिवीक्षा में भर्ती आरम्भ की जाए ।  निजीकरण के  प्रयास बन्द किये जावें। पच्चीस प्रतिशत सीटें में शुल्क अशासकीय विद्यालकी द्वारा ही प्रदान किया जाए।   कम दर्ज संख्या के फलस्वरूप बन्द/मर्ज किये जाने के पूर्व उक्त शाला के शिक्षकों को कम से कम , तीन शैक्षणिक वर्षों का समय दर्ज संख्या बढ़ाने हेतु दिया जाये। 5000 तक की आबादी वाले गांव एवं कस्बे में निजी विद्यालय खोलने की अनुमति न दी जावे। माध्यमिक शालाओं में  2010 की पद संरचना लागु की जाए। प्रदेश के विद्यालयों में N C E R T का पाठ्यक्रम लागु किया जाये । ) यह मुद्दे अब आमजन में चर्चा के मुद्दे है । आप सभी साथियो से अनुरोध है कि इस आर पार की नहीं " पार ही पार  "  की लड़ाई को जीतना है । और शिक्षा विभाग में संविलियन करवाना है । एकता बनाये रखें और संघर्ष समिति पर विश्वास कायम रखें । यह हिन्द ,इंकलाब जिंदाबाद। 
याद रखें 
16 अक्टूबर शहडोल
23 अक्टूबर विकासखंड 
06 नवम्बर जिला13 नवम्बर भोपाल

Saturday, October 8, 2016

जोश, जुनून एबं अनुभव का संगम अध्यापक संघर्ष समिति-वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा)

वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा) - 18 साल से संघर्ष कर रहे अध्यापक समुदाय के बीच से ऐसी भी आवाजें आ रही हैं कि सालों से होते आ रहे अन्याय को एक-दो दिन में ही समाप्त कराया जा सकता है। इससे एक बात स्पष्ट है कि अध्यापक अन्याय के खिलाफ पूरे जोश एवं जुनून के साथ लडऩा चाहता है और तब तक लडऩा चाहता है जब तक कि जीत हासिल न हो जाए। संघर्ष से जो हासिल होता है, वह जीत ही होती है, इसीलिए आंदोलनों से जीत का विश्वास और भरोसा सही है। लेकिन यहां सवाल यह है कि यह जीत एक दिन में मिलेगी या इसके लिए अनवरत संघर्ष करना होगा। इतना तय है कि  शिक्षा विभाग में संविलियन के लिए लड़ रहा अध्यापक सरकार के हलक से छठवां एवं सातवां वेतनमान जरूर निकाल लाएगा। यह बात दावे से इसीलिए कही जा सकती है कि इस बार अध्यापक जोश, जुनून  एवं अनुभव के साथ मैदान में उतरा है।
अध्यापक संघर्ष समिति में आजाद अध्यापक संघ का जोश, राज्य अध्यापक संघ का जुनून और शासकीय अध्यापक संघ, अध्यापक संविदा शिक्षक संघ एवं अध्यापक कांग्रेस का अनुभव समाया हुआ है इसीलिए अध्यापक संघर्ष समिति को जोश, जुनून एवं अनुभव का संगम कहना सही रहेगा। अध्यापक संघर्ष समिति के रूप में तीन लाख अध्यापकों को ऐसा मंच मिला है, जिसका हर पाया इतना मजबूत है कि उसे अब शिवराज सिंह की सरकार हिला नहीं सकती। अध्यापक संघर्ष समिति बनने के बाद एक और अच्छा काम यह हुआ है कि अध्यापकों के आंदोलन का नेतृत्व करने योग्य दूसरी पंक्ति की कतार भी सामने आ गई है, जो इतनी सुलझी हुई है कि वह 18 सितंबर के लक्ष्य को हासिल किए बिना न तो खुद इधर-उधर होगी और न ही किसी को इधर-उधर होने देगी। सोशल मीडिया पर आ रही तमाम किन्तु-परन्तु के बावजूद उसका निष्कर्ष यही निकल रहा है कि अध्यापक शहडोल में सरकार को चेताएगा और भोपाल में उसके सामने सीना तानकर खड़ा नजर आएगा।
18 सितंबर को अध्यापक संघर्ष समिति की घोषणा के वक्त तय किया गया लक्ष्य था सरकार को यह बताना कि प्रदेश का अध्यापक सरकार की तिकड़मों से हारा नहीं है बल्कि पहले से अधिक ऊर्जा के साथ मैदान में आने वाला है। 25 सितंबर को प्रदेश में तिरंगा रैलियों का ऐलान इसी मकसद से  किया गया, जो ऐतिहासिक रूप से सफल रहा। तिरंगा रैलियों में अध्यापकों के जोश, जुनून देखने लायक था, यही वजह रही होगी कि   अध्यापकों के गुस्से से सरकार डरी भी और उसी दिन विसंगति रहित गणपत्रक जारी करने के संकेत  मीडिया के जरिए देकर अध्यापको के गुस्से को थामने की कोशिश भी की गई। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
2 अक्टूबर को भोपाल में अध्यापक संघर्ष समिति अध्यक्षमंडल के सदस्य भरत पटेल, जगदीश यादव, बृजेश शर्मा, मनोहर दुबे एवं राकेश नायक एक साथ बैठे और एक स्वर से ऐलान किया कि सरकार तिकड़मबाजी छोडक़र अध्यापकों की लंबित मांगों का तत्काल निराकरण करे और 25 सितंबर को सौंपे गए 21 सूत्रीय मांगपत्र की मांगों का समाधान करे। जोश, जुनून और अनुभव से तैयार हुई अध्यापक संघर्ष समिति के अध्यक्षमंडल ने उसी दिन तीन लाख अध्यापकों की इच्छा के अनुसार 13 नवंबर को विधानसभा के घेराव की घोषणा की। 16 अक्टूबर को शहडोल में प्रदर्शन कर सरकार को चेतावनी देने, इसके बाद  23 अक्टूबर को ब्लाक स्तर पर धरने, रैलियां, 6 नवंबर को जिला स्तर पर रैली एवं धरने  की घोषणा अध्यक्षमंडल के सदस्यों ने एक स्वर से की। 2 अक्टूबर को घोषित हुए इस कार्यक्रम से सरकार चिंतित है, उसकी चिंता इस बात से सामने आ जाती है कि उसने महीनों से लटके गणना पत्रक पर काम करना शुरू कर दिया है हो सकता है शहडोल से पहले वह जारी हो जाए, लेकिन अध्यापक जिस जोश, जुनून और उत्साह से संघर्ष के मैदान में उतरे हैं, उससे इतना स्पष्ट है कि वे सरकार से शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग पर दो टूक बात करने के बाद ही संतुष्ट होंगे। जैसे-जैसे 16 अक्टूबर की तारीख करीब आती जा रही है, वैसे-वैसे अध्यापकों का उत्साह बढ़ता जा रहा है, वे हजारों की संख्या में शहडोल पहुंचने वाले हैं और लाखों की संख्या में पहुंचकर 13 नवंबर का विधानसभा घेराव करेंगे। चूंकि अध्यापक अपने अनुभव से यह समझ चुका है कि बिना लड़े कुछ नहीं मिलने वाला, इसीलिए वह इस बार सिर्फ और सिर्फ लडऩे के लिए एकजुट हुआ है, उसकी यही एकजुटता उसे जीत  दिलाएगी, यह भरोसा भी उसे हो चुका है।

अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है,कोई बीच में न आये - मनीष शंकर तिवारी ( नरसिंहपुर )

क्या हार में, क्या जीत में
किंचित् नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला
यह भी सही वो भी सही।
मैं एक सामान्य अध्यापक हूँ। न कोई मेरा नेता है, न ही मैं किसी व्यक्ति, समूह या संघ का समर्थक। जो भी मेरे लिए, मेरे हक के लिए लड़ा , मैं हमेशा उसके साथ खड़ा दिखाई देता हूँ और दिखाई देता रहूँगा। क्योंकि पराजय मेरा स्वभाव नहीं है, मैंने सदैव विजय ही प्राप्त की है और आगे भी विजयमाल को ही प्राप्त करूँगा।
1995 से आज 2016 तक मेरी ही तो शक्ति है जिसने मुझे आज यहाँ तक लाकर खड़ा किया है। ये मेरी ही तो ताकत है जिसने मेरे अध्यापक नेताओ को महत्वाकांक्षी बना दिया।
अब ताजा ताजा उदाहरण ही देख लीजिये। 2013 का विसंगतिपूर्ण चार किश्त का आदेश मुझे स्वीकार नहीं था तो मैं इस अन्याय में सहभागी नेतृत्व के खिलाफ हो गया। 2015 के सितम्बर माह की 13 तारीख को शाहजहाँनी पार्क में मेरी ही तो शक्ति थी जिसने सरकार के माथे पर बल ला दिए। 28 सितम्बर 2015 को लालघाटी के मैदान को हल्दीघाटी मैंने ही बनाया।
अब मेरी ताकत और मेरी ऊर्जा को जब मेरे अपने नेताओं ने खुद की तरफ मोड़ने की भूल की तब उस नेतृत्व को पराजित होना पड़ा। सारे संघ नए या पुराने सीमिति आँकड़ो में सिमट गए।
तब फिर मैं सजग हुआ और मजबूर किया अपने पराजित नेतृत्व को कि मैं सामान्य अध्यापक किसी का गुलाम नहीं। तब ये व्यक्ति, ये समूह, ये संघ 18 सितम्बर 2016 को बिना मन के एक हुए। तारिख 25 सितम्बर 2016 सूबे के हर जिले में सिर्फ मैं था और मेरा तिरंगा। मैं फिर विजयी हुआ। बड़े भैया को खबर पूरी हो गई।
तारिख 2 अक्टूबर 2016 मेरे नेता फिर बैठ गए 16 अक्टूबर 2016 दी है तारीख , स्थान दिया है शहडोल परंतु सबके सब लग रहे हैं डांवाडोल। किसी में वो साहस नहीं दिख रहा है जो साहस मेरे अंदर है। अपने अपने हजार पाँच सौ वाले मेरे नेता शायद फिर पराजित हो जाएँ।
किन्तु मुझे ख़ुशी है कि सरकार तक मेरा सन्देश पहुच गया है 25 सितम्बर 2016 को ही कि मेरे मन में क्या है? और अगली सम संख्यांक वाले वर्ष की चिंता उसे अवश्य हो रही होगी।
मेरे जैसे 3 लाख और हैं जो पीड़ित हैं, शोषित हैं, परन्तु हारे हुए नहीं हैं। न कभी हार सकते हैं।
अंत में,
अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है।
कोई बीच में न आये।
हर हर अध्यापक
घर घर अध्यापक
(लेखक सव्य अध्यापक है और यह उनके निजी विचार है )

13 नवंबर को भोपाल घेरेंगे अध्यापक -वासुदेव शर्मा (छिंदवाड़ा)

वासुदेव शर्मा - एक ही दिन, एक ही वक्त, प्रदेशभर में जब 1 लाख अध्यापक एक साथ 25 सितंबर को तिरंगा लेकर सडक़ों पर उतरे, तो सभी हैरान-परेशान थे। हैरानी की वजह, ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ।
सरकार हैरान थी। मुख्यमंत्री परेशान थे।

 हैरान परेशान अध्यापकों का नेतृत्व भी था। उसे भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि बिना उनके दौरो, अपीलों एवं आव्हान के बाद भी एक साथ इतनी अधिक संख्या में अध्यापक एकजुट होकर सरकार को ललकार देंगे।
सरकार की समस्या थी कि वह किससे बात करे, अध्यापकों को सडक़ पर आने से रोकने के लिए।
तिरंगा रैली के बाद अध्यापकों के नेतृत्व को उत्साह में आना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2 अक्टूबर की बैठक में यह साबित भी हुआ।

 बहरहल,
चूंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद अध्यापक नेताओं से बातचीत की कमान संभाले हुए हैं। सीएम साहब भी खुद यह कह चुके हैं कि वे ही अध्यापकों के अच्छे दिन लाएंगे। अच्छे दिनों का इंतजार काफी लंबा हो गया है, अब इससे अधिक इंतजार करने के लिए अध्यापक तैयार नहीं है। 25 सितंबर की तिरंगा रैलियों के जरिए प्रदेशभर के अध्यापकों ने 21 सूत्रीय ज्ञापन देकर मुख्यमंत्री से यह कह दिया है।
अलग-अलग स्थानों से 9-10 बार छठवां वेतनमान दे चुके सीएम साहब 25 सितंबर के बाद खामोश हैं, उनकी यह खामोशी अध्यापकों के गुस्से को बढ़ाने का काम कर रही है, जिसकी अभिव्यक्ति 16 अक्टूबर को शहडोल

एवं 13 नवंबर को भोपाल में होगी। 
जिस दिन अध्यापकों का गुस्सा चरम पर पहुंचेगा, उस दिन से शिवराज की सरकार लडख़ड़ाना शुरू कर देगी। यह चेतावनी 2 अक्टूबर को आर्य समाज धर्मशाला से अध्यापक संघर्ष समिति ने एक स्वर से दी है।
एकजुट हो चुके अध्यापकों ने इसकी तैयारियां शुरू कर दी हैं।
16 अक्टूबर को शहडोल में रैली कर सरकार को चेताया जाएगा।  यदि अध्यापकों को संतुष्ट करने वाला गणपत्रक जारी नहीं हुआ और शिक्षा विभाग में संविलियन का रास्ता नहीं बनाया तो 13 नवंबर को राजधानी

भोपाल के रास्ते जाम कर दिए जाएंगे।
2 अक्टूबर को आर्य समाज धर्मशाला में हुई अध्यापक संघर्ष समिति की बैठक ने निर्णय लिया था कि 13 नवंबर को भोपाल में रैली की जाएगी, जिसमें प्रदेश भर से 2 लाख से अधिक अध्यापक हिस्सा लेंगे।
13 नवंबर की रैली की तैयारियों के लिए 6 नवंबर को जिला मुख्यालयों पर विशाल धरने दिए जाएंगे, जिनमें 100 प्रतिशत अध्यापकों की भागीदारी सुनिश्चित कराने का संकल्प भी अध्यापक संघर्ष समिति ने 2 अक्टूबर की बैठक में लिया है यानि इस बार अध्यापक संगठनों की सीमाओं से ऊपर जाकर अपने भविष्य को बचाने की लड़ाई खुद लड़ रहा है, 25 सितंबर की तिरंगा रैली यह साबित कर चुकी है और 13 नवंबर की भोपाल रैली के वक्त अध्यापकों की एकजुटता का इतिहास लिखा जाएगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं .

Friday, October 7, 2016

युक्तियुक्तकरन हेतु मार्गदर्शन

सारे बच्चे शासकीय शालाओं में दर्ज हो जायेंगे और अशासकीय शालाऐं खुदबखुद बंद हो जाएगी -विष्णु पाटीदार (खरगोन)

विष्णु पाटीदार खरगोन - आज का विषय माननीय ईलाहाबाद उच्च न्यायलय का आदेश जिसमें प्रत्येक लोकसेवक अफसर, कर्मचारी, विधायक और सांसद को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश है तो मेरे विचार से तो आज के परिवेश में अशासकीय शालाओं में अंग्रेजी माध्यम के कारण हीं आकर्षण बढ़ा है वरना हिन्दी माध्यम की स्कूलों से तुलना की जाय तो शासकीय शालाओं का परीक्षा परिणाम अशासकीय शालाओं के परीक्षा परिणाम से हमेशा 20 हीं रहा है । वैसे भी शासकीय शालाओं में स्टाॅफ अशासकीय शालाओं की तुलना में अधिक योग्यता वाले हैं । खासकर हाईस्कूल तथा हायरसेकेण्डरी में, जिन बच्चों को शासकीय शालाओं के शिक्षकों ने पढ़ाया है वेही अशासकीय शालाओं में पढ़ा रहे हैं । अगर शासकीय शालाओं में भी सरकार अंग्रेजी माध्यम की शालाऐं खोल दे तो न्यायालय के बगैर आदेश के हीं सभी लोकसेवक क्या सभी उद्योगपति, करोड़पति, उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग सारे शासकीय शालाओं में दर्ज हो जायेंगे और अशासकीय शालाऐं खुदबखुद बंद हो जाएगी । लेकिन शायद सरकार हीं नहीं चाहती की अशासकीय शालाऐं बंद हो सरकार की मंशा तो नीजीकरण करने की हीं है इसलिए तो अभी तक भी शासकीय अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की कमी है अशासकीय शालाओं में तो बस बाहरी चमक धमक और दिखावा है वे बच्चों को रट्टू तोता बना देते हैं जो आगे जा के प्रतियोगी परीक्षाओं में फैल हो जाते हैं । अशासकीय शालाओं के पास अगर शासकीय शालाओं के कमजोर वर्ग के बच्चे हो तो उनका परिणाम और भी घट जायेगा । इसलिए मैं चाहता हूँ कि सरकार अंग्रेजी माध्यम के भी सभी शासकीय स्कूल प्रारंभ कर दे तो माननीय न्यायालय के आदेश की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी और सभी लोकसेवक अफसर, कर्मचारी, विधायक, सांसद, निम्न वर्ग ,उच्च वर्ग ,व्यापारी, उद्योगपति, आदि सभी के बच्चे  शासकीय शालाओं में हीं पढ़ेगे!

लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से तीसरे स्थान पर चुना गया है ' 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बिल्कुल उचित ,निजी विद्यालयों की मनमानी खत्म होगी सरकारी विद्यालयों और शिक्षकों की दशा सुधरेगी -रूपेश सराठे (होशंगाबाद )

रूपेश सराठे - इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बिल्कुल उचित है। इससे निजी विद्यालयों की मनमानी खत्म हो जायेगी और सरकारी विद्यालयों और शिक्षकों की दशा और दिशा दोनों में सुधार हो जायेगा।क्योंकि जब सभी लोकसेवकों और जनप्रितिनिधियों के बच्चे एक ही स्थान पर पढ़ेंगे तो उनके बेहतर अध्यापन हेतु वे विद्यालयों और शिक्षकों के प्रति वे बहुत गम्भीरता से प्रयासरत रहेंगे।जिससे सरकारी विद्यालयों में व्याप्त भौतिक एवं शैक्षिक समस्याएं अतिशीघ्र ही दूर हो जाएंगी। जब सभी लोगों के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे तो सामाजिक भेदभाव में भी कमी आएगी जिससे समाज में समरसता का माहौल बनेगा जो सभी के लिए सुखद होगा। अभीशिक्षकों से जो गैर शैक्षणिक कार्य करवाये जा रहे हैं उन पर स्वतः रोक लग जाएगी। आज जो अधिकारीगण अनाप शनाप आदेश निकाल रहा हैं अपने वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर उन पर भी लगाम स्वतः लग जाएगी। जैसा कि शासन कि सोच बन गई है कि सरकारी शिक्षक काम नहीं करते वह भी बदल जायेगी।और यदि कुछ अपवाद स्परूप हमारे साथी यदि काम नहीं कर रहे हैं वे भी स्वतः सुधर जायेंगे। अतः मेरे मतानुसार माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को पूरे भारत में लागू कर  देना सर्वथा उचित रहेगा।
 

लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय '  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से तीसरे स्थान पर चुना गया है ' 



माननीय हाईकोर्ट इलाहबाद के यह निर्णय के पीछे एक व्यापक सोच हे -विजय तिवारी ( सुवासरा- मंदसौर )

विजय तिवारी - माननीय हाईकोर्ट इलाहबाद के यह निर्णय कि सभी शासकीय सेवक व् जनप्रतिनिधि अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयो में ही पढ़ाये ।। के पीछे एक व्यापक सोच हे । अब यही निर्णय सुप्रीम कोर्ट को भी देना चाहिए और समस्त देश में लागू करवाना चाहिये ।। यदि इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय की व्यापकता को देखे तो यह पाएंगे की भारतीय संस्कृति "गुरुर देवो म्हेश्वरः " वाली रही जहाँ गुरु की अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान सदैव ही रहा हे ।। यदि सांसद विधायक व् उच्च अधिकारी अपने बच्चों को इन शासकीय विद्द्यालयो में भेजते हे तो ।जो शिक्षिकिय प्रतिष्ठा आज जन मानस के बीच कम हो रही हे उसमे स्वतः वृद्धि होगी ।। इस निर्णय का दूसरा और गम्भीर पहलू यह भी हे की वर्तमान में बढ़ रही शिक्षा की व्यवसायीकरण को रोकना हे । आज यदि सर्वे कराया जाए तो अधिकाँश उच्च श्रेणी के विद्यालय जिन्हें इंटर नेशनल स्कूल भी कहा जाता हे । इन्ही जनप्रतिनिधियो या अधिकारियो के ही हे । जो पूर्णरूपेण मात्र धन कमाने में लगे हुए हे । जिनका शिक्षा के द्वारा होने वाला सर्वांगीण विकास से कोई लेना देना नही हे ।। यदि इलाहबाद हाईकोर्ट का निर्णय मान्य हो तो इस बढ़ती व्यवसायीकरण पर भी नियंत्रण किया जा सकता हे ।।
         इस निर्णय का एक और व्यापक और सकारात्मक पहलू यह भी हे की शासकीय विद्यालयो के मूलभूत सुविधओं का विकास करना यदि उक्त लोगो के बच्चे शासकीय विद्यालयो में अध्ययन करेंगे तो वहा आवश्यक शिक्षक , फर्नीचर , सुविधा सम्पन्न शौचालय खेल का मैदान व् सामान और स्वच्छ वातावरण का निर्माण पर ये स्वयम् जोर देकर कराएँगे ।। जिसका आज अधिकांश विद्यालयोमे आभाव इन्ही की भरष्टाचारि के कारण नही हो पा रहा हे ।।
          इस निर्णय का विशेष पहलू की यह निर्णय लागू होने से जो गरीब बच्चे शिक्षक या सुविधाओ के अभाव में वांछित शिक्षा नही प्राप्त क्र पा रहे हे इस निर्णय के क्रियान्वित होने के वाद अपनी क्षमता को विकसित क्र सकेंगे ।। हमारे शासकीय विद्यालयो में पढ़ाने वाले शिक्षक प्राइवेट स्कूल के शिक्षक से कहि अधिक योग्यता वाले हे और सरकार द्वारा आयोजित व्यापम TET जैसी परीक्षाओ को पास कर व् पूर्ण  ट्रेंड हो के अपनी सेवाये दे रहे हे ।
                अतः इलाहावाद हाईकोर्ट का निर्णय के पीछे इक व्यापक और सकारात्म सोच हे । जिसका सकारात्मक लाभ सम्पूर्ण समाज को होगा ।।
      लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' यह लेख दुसरे स्थान के लिए  चुना गया है . 

आखिर, इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐसा आदेश क्यों ?......सचिन गुप्ता ( खितौली )

सचिन गुप्ता ( खितौली ) - लोकसेवकों(अफसर,कर्मचारी,विधायक,सांसद) के बच्चे ही क्यों ? अभिनेता,व्यापारी,उधोगपतियों,पत्रकारों व अन्य वर्गो या देश के समस्त बच्चों का  नामांकन सरकारी स्कूलों में कराने का आदेश क्यों नहीं ?
क्या केवल लोकसेवकों के बच्चों के नामांकन करा देने मात्र से शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा क्या वाकई में ये इतने प्रभावशाली हैं ?

इस प्रयोग में दो बातें छिपी है ,
1. लोकसेवकों के माध्यम से शिक्षकों पर अध्यापन कार्य के लिए अतिरिक्त दबाव निर्मित करवाने की मंशा।
2. लोकसेवकों को उनके अपने बच्चे के माध्यम से सरकारी स्कूलों की हालत का प्रत्यक्ष रूप से सामना करवाने की मंशा
 
  उपर्युक्त दोनों मंशाओ में शोषण छिपा है पहली बात में शिक्षक का और दूसरी बात में लोकसेवकों के बच्चों का जिनका उपयोग किया जाना है।
अगर आप मान रहें हैं कि लोकसेवकों के बच्चों के नामांकन मात्र भर से सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा तो थोडा रूकिए , फिर सोचिए ........ कही ये अभिभावकों का अपने बच्चे के सुरक्षित भविष्य के लिए निर्णय लेने के अधिकार का हनन तो नहीं ?

एक जिले में कितने विधायक हैं औसतन 4-5 ,सांसद की संख्या जिले में 1 भी नहीं होती प्रथम द्वितीय श्रेणी के अधिकारी 200-400 की सीमा में ही होंगे और तृतीय श्रेणी के कर्मचारियों के बच्चे प्राय: सरकारी स्कूल में ही पढते हैं जबकि सरकारी स्कूल सैकड़ो की तादात में ।

महज 500 बच्चें जो बाध्यता की स्थिति में जिले में ही स्थित सरकारी स्कूलों को प्राथमिकता देंगे तो क्या इस आदेश से अंतिम छोर में सुदूर स्थित ग्रामीण अंचलों की, जहाँ पहुँचने के लिए आज भी पक्का रास्ता नहीं है ,शिक्षा स्तर में सुधार हो पाएगा और इस बात की क्या गारंटी है कि शहरी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों का स्तर ऐसा होने पर सुधर जाएगा अगर सुधार न हुआ तो कल को दलीलें दी जाएगी सारी स्कूलों को बंद करके जिले में केवल एक विशाल सर्वसुविधायुक्त स्कूल खोल दिया जाएँ जहाँ सब पढें तब भी सफल न हुए तो कहा जाएगा कि शिक्षा केवल जागरूक  कर धनाढ्यौ को दी जाए और वंचित ,कमजोर वर्ग के हाथों से शिक्षा फिसल जाएँ 


मामला उलझता जाएगा अंत में शिक्षा का मजाक बन जाएगा ।
वर्तमान में समस्त लोकसेवकों के बच्चें भव्य निजी स्कूलों में पढ रहे हैं तो क्या ये सभी पूर्णतः दक्ष हो जाते हैं। अपेक्षित परिणाम न आने पर क्या ये लोग निजी विधालयों पर  दबाव बना पाते हैं ?

वैसे भी निजी स्कूलों की तरफ लोगों का बढता हुआ आर्कषण उनकी शिक्षा देने की कला व तरीका नहीं बल्कि अँग्रेजी भाषा के ग्लोबलाइज होने के कारण उसकी बढती हुयी माँग ,खेल विधा ,कंप्यूटर व अन्य सांस्कृतिक ,आधुनिक गतिविधियाँ हैं जिससे छात्र का सर्वागीण विकास होता है जबकि सरकारी स्कूल इन सारी सुविधाओं से आज भी वंचित हैं जबकि सयकारी स्कूलों की उपयोगिता आज भी ग्रामीण अंचलों में ज्यादा है
निष्कर्ष यह है कि अनावश्यक रूप से नए नए प्रयोगों को जन्म देकर; शिक्षक समुदाय पर किसी भी तरह के दबाव डालने की छिपी हुयी मंशा को पूरा करने की कोशिश करने के बजाए ; शिक्षा के स्तर को सुधारने हेतु ; शिक्षकों का सहयोग लेकर वास्तविक समस्याओं को चिन्हित कर; उनको दूर करने के सकारात्मक उपाय किए जाएँ ।
            
लेखक सवयं अध्यापक है और यह इनके निजी विचार है -यह लेख बुधवार और गुरूवार को शिक्षा विमर्श में चर्चा के विषय 
'  माननीय ईलाहबाद उच्च न्यायालय का आदेश जिसमे प्रत्येक लोकसेवक "अफसर ,कर्मचारी ,विधायक और सांसद " को अपने बच्चों को शासकीय विद्यालयों में पढ़ाने का आदेश  ' में संयुक्त रूप से प्रथम स्थान पर चुना गया है .