क्या हार में, क्या जीत में
किंचित् नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला
यह भी सही वो भी सही।
किंचित् नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य-पथ पर जो भी मिला
यह भी सही वो भी सही।
मैं एक सामान्य अध्यापक हूँ। न कोई मेरा नेता है, न ही मैं किसी व्यक्ति, समूह या संघ का समर्थक। जो भी मेरे लिए, मेरे हक के लिए लड़ा , मैं हमेशा उसके साथ खड़ा दिखाई देता हूँ और दिखाई देता रहूँगा। क्योंकि पराजय मेरा स्वभाव नहीं है, मैंने सदैव विजय ही प्राप्त की है और आगे भी विजयमाल को ही प्राप्त करूँगा।
1995 से आज 2016 तक मेरी ही तो शक्ति है जिसने मुझे आज यहाँ तक लाकर खड़ा किया है। ये मेरी ही तो ताकत है जिसने मेरे अध्यापक नेताओ को महत्वाकांक्षी बना दिया।
अब ताजा ताजा उदाहरण ही देख लीजिये। 2013 का विसंगतिपूर्ण चार किश्त का आदेश मुझे स्वीकार नहीं था तो मैं इस अन्याय में सहभागी नेतृत्व के खिलाफ हो गया। 2015 के सितम्बर माह की 13 तारीख को शाहजहाँनी पार्क में मेरी ही तो शक्ति थी जिसने सरकार के माथे पर बल ला दिए। 28 सितम्बर 2015 को लालघाटी के मैदान को हल्दीघाटी मैंने ही बनाया।
अब मेरी ताकत और मेरी ऊर्जा को जब मेरे अपने नेताओं ने खुद की तरफ मोड़ने की भूल की तब उस नेतृत्व को पराजित होना पड़ा। सारे संघ नए या पुराने सीमिति आँकड़ो में सिमट गए।
तब फिर मैं सजग हुआ और मजबूर किया अपने पराजित नेतृत्व को कि मैं सामान्य अध्यापक किसी का गुलाम नहीं। तब ये व्यक्ति, ये समूह, ये संघ 18 सितम्बर 2016 को बिना मन के एक हुए। तारिख 25 सितम्बर 2016 सूबे के हर जिले में सिर्फ मैं था और मेरा तिरंगा। मैं फिर विजयी हुआ। बड़े भैया को खबर पूरी हो गई।
तारिख 2 अक्टूबर 2016 मेरे नेता फिर बैठ गए 16 अक्टूबर 2016 दी है तारीख , स्थान दिया है शहडोल परंतु सबके सब लग रहे हैं डांवाडोल। किसी में वो साहस नहीं दिख रहा है जो साहस मेरे अंदर है। अपने अपने हजार पाँच सौ वाले मेरे नेता शायद फिर पराजित हो जाएँ।
किन्तु मुझे ख़ुशी है कि सरकार तक मेरा सन्देश पहुच गया है 25 सितम्बर 2016 को ही कि मेरे मन में क्या है? और अगली सम संख्यांक वाले वर्ष की चिंता उसे अवश्य हो रही होगी।
मेरे जैसे 3 लाख और हैं जो पीड़ित हैं, शोषित हैं, परन्तु हारे हुए नहीं हैं। न कभी हार सकते हैं।
अंत में,
अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है।
1995 से आज 2016 तक मेरी ही तो शक्ति है जिसने मुझे आज यहाँ तक लाकर खड़ा किया है। ये मेरी ही तो ताकत है जिसने मेरे अध्यापक नेताओ को महत्वाकांक्षी बना दिया।
अब ताजा ताजा उदाहरण ही देख लीजिये। 2013 का विसंगतिपूर्ण चार किश्त का आदेश मुझे स्वीकार नहीं था तो मैं इस अन्याय में सहभागी नेतृत्व के खिलाफ हो गया। 2015 के सितम्बर माह की 13 तारीख को शाहजहाँनी पार्क में मेरी ही तो शक्ति थी जिसने सरकार के माथे पर बल ला दिए। 28 सितम्बर 2015 को लालघाटी के मैदान को हल्दीघाटी मैंने ही बनाया।
अब मेरी ताकत और मेरी ऊर्जा को जब मेरे अपने नेताओं ने खुद की तरफ मोड़ने की भूल की तब उस नेतृत्व को पराजित होना पड़ा। सारे संघ नए या पुराने सीमिति आँकड़ो में सिमट गए।
तब फिर मैं सजग हुआ और मजबूर किया अपने पराजित नेतृत्व को कि मैं सामान्य अध्यापक किसी का गुलाम नहीं। तब ये व्यक्ति, ये समूह, ये संघ 18 सितम्बर 2016 को बिना मन के एक हुए। तारिख 25 सितम्बर 2016 सूबे के हर जिले में सिर्फ मैं था और मेरा तिरंगा। मैं फिर विजयी हुआ। बड़े भैया को खबर पूरी हो गई।
तारिख 2 अक्टूबर 2016 मेरे नेता फिर बैठ गए 16 अक्टूबर 2016 दी है तारीख , स्थान दिया है शहडोल परंतु सबके सब लग रहे हैं डांवाडोल। किसी में वो साहस नहीं दिख रहा है जो साहस मेरे अंदर है। अपने अपने हजार पाँच सौ वाले मेरे नेता शायद फिर पराजित हो जाएँ।
किन्तु मुझे ख़ुशी है कि सरकार तक मेरा सन्देश पहुच गया है 25 सितम्बर 2016 को ही कि मेरे मन में क्या है? और अगली सम संख्यांक वाले वर्ष की चिंता उसे अवश्य हो रही होगी।
मेरे जैसे 3 लाख और हैं जो पीड़ित हैं, शोषित हैं, परन्तु हारे हुए नहीं हैं। न कभी हार सकते हैं।
अंत में,
अब लड़ाई मेरी और मेरे मुखिया की है।
कोई बीच में न आये।
हर हर अध्यापक
घर घर अध्यापक
(लेखक सव्य अध्यापक है और यह उनके निजी विचार है )
घर घर अध्यापक
(लेखक सव्य अध्यापक है और यह उनके निजी विचार है )
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