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Friday, October 14, 2016
पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं।- राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर )
राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर ) - अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है। यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं। यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं। कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है। बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है।राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम सभी शासकीय विद्यालयों के लिए लागू करना कोई बहुत लाभकारी निर्णय नहीं होगा। यह मांग बहुत समय से हो रही है की, राष्ट्रीय स्तर पर शासकीय विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम लागू किया जाए , परंतु इसमें बहुत सी व्यवहारिक कठिनाइयां हैं जैसे हर राज्य का आर्थिक दृष्टि से अलग-अलग विकास होना । छात्रों का मानसिक स्तर राज्य के अनुसार अलग अलग होना। अलग-अलग राज्यों में विद्यालयों की संरचना , छात्र शिक्षक अनुपात ,एक विद्यार्थी के ऊपर सरकार के द्वारा खर्च किए जाने वाला पैसा आदि , अलग अलग होता है। अतः एक जैसा पाठ्यक्रम पूरे देश में लागू करना, पिछड़े राज्यों के छात्रों के साथ अन्याय होगा।वैसे भी केंद्र सरकार ,सभी राज्यों में समान पाठ्यक्रम लागू करने के लिए, केंद्रीय विद्यालय एवं नवोदय विद्यालय के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसा पाठ्यक्रम छात्रों को उपलब्ध कराती है। और शैक्षिक दृष्टि से विकसित कुछ राज्य जैसे केरल आदि, केंद्र सरकार के द्वारा लागू किए पाठ्यक्रम को अपने यहां फौरन लागू कर देते हैं ।परंतु यही कार्य उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के लिए उनके ख़राब शैक्षिक ढांचे के कारण करना संभव नहीं हो सकता।
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Friday, October 14, 2016
पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं।- राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर )
राहुल रौसैय ( नौगाँव छतरपुर ) - अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी। नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है। यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं। यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं। कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है। बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है।राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम सभी शासकीय विद्यालयों के लिए लागू करना कोई बहुत लाभकारी निर्णय नहीं होगा। यह मांग बहुत समय से हो रही है की, राष्ट्रीय स्तर पर शासकीय विद्यालयों में समान पाठ्यक्रम लागू किया जाए , परंतु इसमें बहुत सी व्यवहारिक कठिनाइयां हैं जैसे हर राज्य का आर्थिक दृष्टि से अलग-अलग विकास होना । छात्रों का मानसिक स्तर राज्य के अनुसार अलग अलग होना। अलग-अलग राज्यों में विद्यालयों की संरचना , छात्र शिक्षक अनुपात ,एक विद्यार्थी के ऊपर सरकार के द्वारा खर्च किए जाने वाला पैसा आदि , अलग अलग होता है। अतः एक जैसा पाठ्यक्रम पूरे देश में लागू करना, पिछड़े राज्यों के छात्रों के साथ अन्याय होगा।वैसे भी केंद्र सरकार ,सभी राज्यों में समान पाठ्यक्रम लागू करने के लिए, केंद्रीय विद्यालय एवं नवोदय विद्यालय के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर एक जैसा पाठ्यक्रम छात्रों को उपलब्ध कराती है। और शैक्षिक दृष्टि से विकसित कुछ राज्य जैसे केरल आदि, केंद्र सरकार के द्वारा लागू किए पाठ्यक्रम को अपने यहां फौरन लागू कर देते हैं ।परंतु यही कार्य उड़ीसा, बिहार, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के लिए उनके ख़राब शैक्षिक ढांचे के कारण करना संभव नहीं हो सकता।
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