Saturday, October 15, 2016

अध्यापक बार बार आंदोलन करने को क्यों मजबूर है - महेश देवड़ा ( कुक्षी,जिला-धार )


महेश देवड़ा-प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के कर्णधार तीन लाख अध्यापक एक बार फिर आंदोलित है। हाल ही मे प्रदेश भर मे तिरंगा रैलियों के माध्यम से अध्यापकों ने अपना आक्रोश प्रकट किया ओर पुनः एक बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । गत वर्ष भी सितंबर के महीने मे ही अध्यापको का उग्र आंदोलन हुआ था । ऐसे मे ये सवाल उठना लाज़मी है की आखिर प्रदेश के अध्यापक बार बार आंदोलन क्यो करते है ? आखिर ऐसी क्या मांगे है इन अध्यापकों की जिसे सरकार अठारह वर्षों मे भी पूरी नहीं कर पायी, जिसके कारण अध्यापको को बार बार आंदोलन, हड़तालों के लिए बाध्य होना पढ़ता है । अध्यापको की लड़ाई केवल वेतन भत्तों ओर सरकारी सुविधाओं भर की नहीं है जैसा की आमतौर पर समझा जाता है, अपितु यह प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शिक्षा विभाग को बचाने का संघर्ष है । नियमित शिक्षक संवर्गों के डाइंग केडर घोषित करने के बाद से जिस तरह शिक्षा विभाग अपने अघोषित अंत की ओर बढ़ रहा है यह सिर्फ अध्यापकों की नहीं अपितु प्रदेश के शिक्षाविदो, आम जनता ओर सामाजिक संगठनों की चिंता का विषय होना चाहिए । जल्द ही शिक्षा विभाग सिर्फ अधिकारियों ओर बाबुओं का विभाग बन के रह जाएगा । इसी से उपजती है अध्यापको की सर्वप्रथम मांग “शिक्षा विभाग मे संविलियन”। शिक्षक शिक्षा विभाग का ना हो ये अपने आप मे विरोधाभास है । प्रदेश के विध्यालयों मे अध्यापन कराने वाले अध्यापक शिक्षा विभाग के कर्मचारी नहीं माने जाते ये बात शायद बहुत कम लोग जानते होंगे । शिक्षा की बदहाली के लिए सरकार की ये दोहरी नीति ही जिम्मेदार है । सरकारी शिक्षा ओर सरकारी विध्यालय की बदनामी और निजीकरण के कुत्सित प्रयास प्रदेश के गरीब, शोषित, वंचित वर्ग के के बच्चों को निःशुल्क ओर अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित करने का प्रयास मात्र है । विध्यालय की एक ही छत के नीचे शिक्षक, अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षक के रूप मे अलग अलग पदनाम ओर वेतनमान के साथ वर्ग विषमता का वातावरण बना दिया गया है। इस तरह की भेदभावपूर्ण ओर शोषणपरक व्यवस्था के विरुद्ध अध्यापक यदि आवाज उठाते है तो उनका आंदोलन न्यायोचित ही है। यदि एक छत के नीचे एक जैसा काम करने के बाद अध्यापक यह मांग करे की उसे भी विभाग के शिक्षकों की तरह वही छठवाँ वेतनमान दिया जाए जो प्रदेश ओर देश के अन्य सभी कर्मचारियों को 2006 से मिल रहा है तो क्या गलत है इसमे ? एक ओर जहां सरकार सभी  कर्मचारियों को सातवाँ वेतनमान देने जा रही है वही दूसरी ओर अध्यापक को छठे वेतनमान के लिए ही सड़कों पर उतरना पड़ रहा है, वह भी तब जब प्रदेश के मुखिया स्वयं कई बार इसकी घोषणा कर चुके है ।वेतनमान ओर विभाग मे संविलियन के अलावा भी अध्यापको की कई मांगे तो गैर आर्थिक ओर मानवीय है पर सरकार की उपेक्षा ओर असंवेदनशीलता अध्यापकों को बार बार आंदोलन के लिए मजबूर करती है । अपने गृह जिलों मे कई पद रिक्त होने के बाद भी अध्यापक स्थानांतरण नीति के अभाव मे अल्प वेतन मे घरो से सेकड़ों किलोमीटर दूर सेवा करने को मजबूर है। अठारह सालों मे एक स्थानांतरण नीति का ना बन पाना सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है । पशुओं तक का बीमा करने वाले प्रदेश मे अध्यापकों का बीमा सरकार नहीं कर पाई । और तो और दोयम व्यवहार की हद तब हो गई जब प्रदेश सरकार ने ‘माँ’ ओर ‘माँ’ तक मे भेद कर लिया ओर महिला अध्यापक को संतान पालन अवकाश से वंचित कर दिया गया । संविदा शिक्षकों ओर अतिथि शिक्षकों की दशा तो ओर दयनीय है शिक्षा के अधिकार अधिनियम के बाद भर्ती के लिए तो पूर्ण शैक्षणिक ओर व्यावसायिक योग्यताओं की अपेक्षा की जाती है पर वेतन कीसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम दिया जाता है। वर्षों से जारी इस भेदभाव ओर शोषण से अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षकों मे हीनता ओर आक्रोश की भावना घर कर गई है । ऐसे मे इनसे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । इसके अलावा गैर शैक्षणिक कार्यों मे शिक्षकों को निरंतर लगाए रखना ओर गुणवत्ता सुधार के नाम पर नीत नए प्रयोग कर कर के अधिकारियों ने प्रदेश के शिक्षा विभाग को एक प्रयोगशाला मे तब्दील कर दिया है । राज्य शिक्षा सेवा भी सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के कारण विगत तीन वर्षों मे अस्तित्व मे नहीं आ सकी है । विभाग मे एकरूपता ओर समानता के वातावरण से ही शिक्षित ओर स्वर्णिम मध्यप्रदेश की ओर कदम बड़ाएँ जा सकते है । इसके लिए अध्यापकों की समस्याओं का निराकरण आवश्यक है । “शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009” के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो ।( लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )      

No comments:

Post a Comment

Comments system

Saturday, October 15, 2016

अध्यापक बार बार आंदोलन करने को क्यों मजबूर है - महेश देवड़ा ( कुक्षी,जिला-धार )


महेश देवड़ा-प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के कर्णधार तीन लाख अध्यापक एक बार फिर आंदोलित है। हाल ही मे प्रदेश भर मे तिरंगा रैलियों के माध्यम से अध्यापकों ने अपना आक्रोश प्रकट किया ओर पुनः एक बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । गत वर्ष भी सितंबर के महीने मे ही अध्यापको का उग्र आंदोलन हुआ था । ऐसे मे ये सवाल उठना लाज़मी है की आखिर प्रदेश के अध्यापक बार बार आंदोलन क्यो करते है ? आखिर ऐसी क्या मांगे है इन अध्यापकों की जिसे सरकार अठारह वर्षों मे भी पूरी नहीं कर पायी, जिसके कारण अध्यापको को बार बार आंदोलन, हड़तालों के लिए बाध्य होना पढ़ता है । अध्यापको की लड़ाई केवल वेतन भत्तों ओर सरकारी सुविधाओं भर की नहीं है जैसा की आमतौर पर समझा जाता है, अपितु यह प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शिक्षा विभाग को बचाने का संघर्ष है । नियमित शिक्षक संवर्गों के डाइंग केडर घोषित करने के बाद से जिस तरह शिक्षा विभाग अपने अघोषित अंत की ओर बढ़ रहा है यह सिर्फ अध्यापकों की नहीं अपितु प्रदेश के शिक्षाविदो, आम जनता ओर सामाजिक संगठनों की चिंता का विषय होना चाहिए । जल्द ही शिक्षा विभाग सिर्फ अधिकारियों ओर बाबुओं का विभाग बन के रह जाएगा । इसी से उपजती है अध्यापको की सर्वप्रथम मांग “शिक्षा विभाग मे संविलियन”। शिक्षक शिक्षा विभाग का ना हो ये अपने आप मे विरोधाभास है । प्रदेश के विध्यालयों मे अध्यापन कराने वाले अध्यापक शिक्षा विभाग के कर्मचारी नहीं माने जाते ये बात शायद बहुत कम लोग जानते होंगे । शिक्षा की बदहाली के लिए सरकार की ये दोहरी नीति ही जिम्मेदार है । सरकारी शिक्षा ओर सरकारी विध्यालय की बदनामी और निजीकरण के कुत्सित प्रयास प्रदेश के गरीब, शोषित, वंचित वर्ग के के बच्चों को निःशुल्क ओर अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित करने का प्रयास मात्र है । विध्यालय की एक ही छत के नीचे शिक्षक, अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षक के रूप मे अलग अलग पदनाम ओर वेतनमान के साथ वर्ग विषमता का वातावरण बना दिया गया है। इस तरह की भेदभावपूर्ण ओर शोषणपरक व्यवस्था के विरुद्ध अध्यापक यदि आवाज उठाते है तो उनका आंदोलन न्यायोचित ही है। यदि एक छत के नीचे एक जैसा काम करने के बाद अध्यापक यह मांग करे की उसे भी विभाग के शिक्षकों की तरह वही छठवाँ वेतनमान दिया जाए जो प्रदेश ओर देश के अन्य सभी कर्मचारियों को 2006 से मिल रहा है तो क्या गलत है इसमे ? एक ओर जहां सरकार सभी  कर्मचारियों को सातवाँ वेतनमान देने जा रही है वही दूसरी ओर अध्यापक को छठे वेतनमान के लिए ही सड़कों पर उतरना पड़ रहा है, वह भी तब जब प्रदेश के मुखिया स्वयं कई बार इसकी घोषणा कर चुके है ।वेतनमान ओर विभाग मे संविलियन के अलावा भी अध्यापको की कई मांगे तो गैर आर्थिक ओर मानवीय है पर सरकार की उपेक्षा ओर असंवेदनशीलता अध्यापकों को बार बार आंदोलन के लिए मजबूर करती है । अपने गृह जिलों मे कई पद रिक्त होने के बाद भी अध्यापक स्थानांतरण नीति के अभाव मे अल्प वेतन मे घरो से सेकड़ों किलोमीटर दूर सेवा करने को मजबूर है। अठारह सालों मे एक स्थानांतरण नीति का ना बन पाना सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है । पशुओं तक का बीमा करने वाले प्रदेश मे अध्यापकों का बीमा सरकार नहीं कर पाई । और तो और दोयम व्यवहार की हद तब हो गई जब प्रदेश सरकार ने ‘माँ’ ओर ‘माँ’ तक मे भेद कर लिया ओर महिला अध्यापक को संतान पालन अवकाश से वंचित कर दिया गया । संविदा शिक्षकों ओर अतिथि शिक्षकों की दशा तो ओर दयनीय है शिक्षा के अधिकार अधिनियम के बाद भर्ती के लिए तो पूर्ण शैक्षणिक ओर व्यावसायिक योग्यताओं की अपेक्षा की जाती है पर वेतन कीसी दिहाड़ी मजदूर से भी कम दिया जाता है। वर्षों से जारी इस भेदभाव ओर शोषण से अध्यापक, संविदा शिक्षक ओर अतिथि शिक्षकों मे हीनता ओर आक्रोश की भावना घर कर गई है । ऐसे मे इनसे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है । इसके अलावा गैर शैक्षणिक कार्यों मे शिक्षकों को निरंतर लगाए रखना ओर गुणवत्ता सुधार के नाम पर नीत नए प्रयोग कर कर के अधिकारियों ने प्रदेश के शिक्षा विभाग को एक प्रयोगशाला मे तब्दील कर दिया है । राज्य शिक्षा सेवा भी सरकार की कमजोर इच्छा शक्ति के कारण विगत तीन वर्षों मे अस्तित्व मे नहीं आ सकी है । विभाग मे एकरूपता ओर समानता के वातावरण से ही शिक्षित ओर स्वर्णिम मध्यप्रदेश की ओर कदम बड़ाएँ जा सकते है । इसके लिए अध्यापकों की समस्याओं का निराकरण आवश्यक है । “शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009” के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो ।( लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )      

No comments:

Post a Comment