Saturday, December 31, 2016

खादी वस्त्र ही नही ,अपितु विचार भी है-सुनिल भारी, कन्नौद(देवास)

मप्र शासन द्वारा कर्मचारियों के लिये सप्ताह मे एक दिन स्वैच्छिक खादी वस्त्र पहनने संबंधी आदेश स्वागत योग्य है, खादी हमारी राष्ट्रीय पहचान है, खादी हमारी सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करती है, खादी स्वदेशी को परिपूर्णता प्रदान करती है.... "खादी फाॅर फैशन ही नही, खादी फाॅर नेशन भी है... खादी केवल वस्त्र ही नही, अपितु विचार भी है, संस्कार भी है..."
          
राष्ट्रनायक महात्मा गाँधीजी ने खादी को जन आस्था का केंद्र बना दिया.. जब आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था, तब गाँधीजी अंग्रेजो से आजादी के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक एवम् सांस्कृतिक आजादी के पक्षधर थे...वे खादी के माध्यम से हमारे कृषक वर्ग को समृद्ध करना चाहते थे.... इसलिये उन्होने खादी को भरपूर बढ़ावा दिया....उनके एक आह्वान पर सूत,चरखा और खादी आंदोलन की पहचान बन चुके थे.. चरखे की प्रवाहमान गति अहिंसक क्रांति को गतिमान कर रही थी,गाँधीजी चरखे के माध्यम से साधारण जन मानस की चेतना उद्वेलित करने मे  सफल रहे..लोगो ने खादी के विचार को अपनाकर स्वदेशी को अपना समर्थन दिया...चरखा अहिंसक क्रांति की पहचान बन गया.. इस तरह खादी साधारण जनमानस के साथ साथ भारत की पहचान बन गई... कृषि कार्य मे बचे समय मे कृषक वर्ग सूत कातते.....और इस तरह खादी हमारे जीवन मे रच बस गई..
खादी, राष्ट्रप्रेम की ज्योति जलाती है,
खादी, ह्रदय को पवित्र कर हर्षाती है ।
तीन रंग की खादी चूनर ओढ़े, देखो,
आजादी की दुल्हिनयाँ मुस्काती है ।
       
किंतु शनैः शनैः खादी, आउट आॅफ फैशन समझा जाने लगा, आर्थिक उदारीकरण और बढ़ते वैश्विक बाजारीकरण ने खादी उद्योग को समाप्ति की कगा़र पर पँहुचाने मे कोई कसर नही छोड़ी...जबसे  मेक इन इंडिया प्रभावी हुआ तभी से खादी को समृद्ध बनाने की योजनाएं कागज़ो से बाहर निकलकर क्रियान्वित होने लगी... एसे मे राज्य शासन का अपने कर्मचारियों को खादी को सप्ताह मे एक दिवस स्वैच्छिक करने के निर्णय का भरपूर समर्थन करना चाहिये.. मेरा तो मानना है कि खादी पहनने संबंधी आदेश को अनिवार्य करना चाहिये.. कम से कम सप्ताह मे एक दिन खादी का उपयोग अवश्य करे ...
सुनिल भारी
कन्नौद, जिला देवास (मप्र) 
(लेखक स्वयं अध्यापक है, लेख मे प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है)
           
        

56 निजी स्कुलो को शासकीय बनाया गया

Thursday, December 29, 2016

शिक्षक की प्रतिष्ठा की दिशा में भी विचार करें अधिकारी-सियाराम पटेल

सम्मानीय साथियों
सादर वंन्दन।

मध्यप्रदेश शासन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के नाम पर नित नूतन लोकलुभावन नए प्रयोग किये जा रहे हैं, कभी किसी नाम से और कभी किसी नाम से और उन सभी प्रयोगों में सफलता और असफलता हेतु केवल शासकीय स्कूलों में कार्यरत शिक्षक ही जवाबदेह हैं शायद, इन सब प्रयोगों की सफलता के लिए न तो शासन , न विभाग के आला अधिकारी, न ही पालक और न ही बालक उत्तरदारी होते हैं, ये सभी अनुभव पूर्ववर्ती बहुत से प्रयोगों और उनके क्रियान्वयन को लेकर आये हैं।

इन सब क्रियाकलापों के प्रति उपर्युक्त में से शायद ही कोई जवाबदेह हो सिवाय शिक्षक के। देश की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की मुख्य भूमिका होती है किंतु कुछ हद तक बालक, पालक और विभाग की भी कही न कही कुछ भूमिका व उत्तरदायित्व होते हैं, एक ओर व्यवस्था संबंधी किसी आदेश के पालन में यदि शिक्षक से कोई चूक या विरोध होता है तो आला अधिकारी शिक्षक के विरुद्ध उसे दोषी मानते हुए तुरंत कार्यवाही करने उद्यत देखे जाते हैं किंतु जब राष्ट्र निर्माता और देश का भविष्य निर्माण करने वाले इन शिक्षकों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले आदेश और नीतियां बनाने वाले यही अधिकारी दोषपूर्ण आदेश जारी करते हैं और आदेश में व्याप्त दोषपूर्ण विसंगति के चलते जब उस आदेश का फॉलोअप संपूर्ण प्रदेश में कार्यरत शिक्षक के हित में नही होता और शिक्षक द्वारा उसके सम्बन्ध में इन वरिष्ठ आला अधिकारियों और शासन को बार बार अवगत कराया जाता है और उसके बाद भी दोषपूर्ण आदेश जारी करने या जानबूझकर हीला हवाली करने वाले उन नीति निर्धारक अधिकारियों पर कोई कार्यवाही नही किया जाना शासन और इन आला अधिकारियों की दोषपूर्ण नीति को स्वमेव सिद्ध करता है। उदाहरण स्वरूप शिक्षा विभाग के शासकीय प्राथमिक/माध्यमिक/हाई स्कूल/हायर सेकंडरी स्कूलों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग के लोगों को विगत 01 जनवरी 2016 से प्रदत्त छटे वेतन के आदेश को लीजियेे, शासन द्वारा सितम्बर 2015 से दिसम्बर 2016 तक लगभग प्रदेश के अनेकों मंच व बॉम्बे में आयोजित की गयी माननीय मुख्यमंत्री जी की प्रेस वार्ता सहित कुल मिलाकर 10-12 बार घोषणा की गयी और 25 मई 2016 और 15अक्टूबर 2016 को तत्सम्बन्ध में अस्पस्ट और विसंगतिपूर्ण जारी आदेश होना और उन आदेशों के पालन में कार्यरत कर्मचारियों के वेतन निर्धारण में संपूर्ण प्रदेश में एकरूपता का अभाव होना, कुछ कनिष्ठ साथियों को वरिष्ठ साथियों से अधिक वेतन निर्धारण होना और प्रदेश भर में अनेकों संकुलों में  2 से 3 महीने व्यतीत होने पर भी छटे वेतन का भुगतान न होना और इन सभी परिस्थितियों से शासन व शासन के आला अधिकारियों को संघ के माध्यम से बार बार अवगत कराने और आदेश की प्रतियां जलाते हुए विरोध प्रदर्शन कर मार्गदर्शन हेतु गुहार लगाने के साथ दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की मांग करने पर भी अभी तक कोई ठोस परिणाम प्राप्त न होना कही न कही शासन व इन आला अधिकारियों की नीति और नियत में अंतर होना भी सिद्ध स्वमेव सिद्ध करता है।

2-3 से माह व्यतीत होने के उपरान्त भी छटा वेतन अध्यापक संवर्ग को प्राप्त न होने के विरुद्ध शासन ने व इन आला अधिकारियों ने वेतन निर्धारण न होने की स्थिति में फालोअप न करने वाले कितने डी डी ओ व लिपिकीय अमले के विरुद्ध कार्यवाही हेतु निर्णय लिए या ठोस कदम उठाये ?

शायद यदि जांच भी की जाए तो उत्तर शून्य होगा इसमें कोई अतिश्योक्ति नही।
इसीलिए यदि शासन शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार और सकारात्मक परिणाम लाना चाहती है तो कुछ इस तरह की नीति निर्धारण होना चाहिये की हम जिन्हें गुरु या राष्ट्र निर्माता कहते हैं उनकी सुख सुविधाओं, उनके हितों से जुडी हुई समस्याओं पर भी उतनी ही जल्दी एक्शन लिया जाये जितना कि किसी व्यवस्था या योजना का फालोअप नही होने पर उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने हेतु निर्णय ले लिए जाते हैं।

अतएव एकपक्षीय कार्यवाही से सम्बंधित त्वरित आदेश जारी किया जाना कहा तक उचित है?
यह बहुत ही अहम और विचारणीय बिंदु है।
राष्ट्र के भविष्य नन्हे मुन्ने बच्चों के भविष्य से जुडी हुई शिक्षा व्यवस्था सुधार के साथ साथ राष्ट्र निर्माता अध्यापक एवं शिक्षक संवर्ग के भविष्य व उनकी सुविधाओं के सुधार को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए जितनी की हम शासन की किसी योजना के क्रियान्वयन व उसकी सफलता के लिए उनसे आशा करते हैं।

आप सभी का साथी-

सियाराम पटेल, नरसिंहपुर
प्रदेश मीडिया प्रभारी
राज्य अध्यापक संघ मध्यप्रदेश।

अभी तो अंगड़ाई है ,अंतिम यही लड़ाई है-एच एन नरवरिया

साथियो,

अपील

जैसा की विदित हे अध्य्यापक संवर्ग अपनी मुलभुत समस्याओं को लेकर आंदोलित हे , और उसके हल के लिए समाधान ढूंढ रहा हे , उसका समाधान शिक्षा विभाग में संविलियंन को लेकर हे पर उसे जैसे तैसे दिशा मिलती हे  फिर दिशा हींन हो जाता हे । दोस्तों 2016 खत्म और 2017 शुरू हुआ हमारे सामने मात्र 2 बजट हे एक 2017 का और एक 2018 का 18 का बजट चुनावी होगा , थोड़ा थोड़ा सबको प्रसाद मिलेगा ,पर हमें 2017 के बजट के पहले ही हमला करना हे।

हम 18 वर्षो से पीड़ित अध्य्यापक संवर्ग नित नई समस्याओं से पीड़ित होता जा रहा हे कभी स्कूल को मर्ज करने, स्कूलों का निजीकरण होना आदि वो अलग बात हे की बीते वर्षो में इसका विरोध् हुआ तो कुछ हद तक रुका , पर फिर से सरकार और सरकार के समर्थक नये नाम से  कोई दूसरा प्रयोग करने लग जाते हे , उनका टारगेट करने का तरीका बदल जाता हे और हम समझ नहीँ पाते हे , जब समझ आता हे तब देर हो जाती हे, खैर इसकी लम्बी फेहरिश्त हे।

लेख लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ  इतना हे की हम लोगो की समस्या अभी जस की तस हे , चाहे वेतनमान , अनुकम्पा नियुक्ति ट्रान्सफर पॉलिसी, बीमा, क्रमोन्नति में अगले पद का वेतन, सी सी एल, आदि आदि, इन सभी समस्याओं का हल मात्र शिक्षा विभाग में संविलियन हे इसके लिए संघर्ष समिति ने वर्ष 2017 को  "शिक्षा विभाग में संविलियन संकल्प  संघर्ष वर्ष"  के रूप में  तय किया हे , जिसके कार्यक्रम तय कर दिए गए हे दिंनाक  "5 जनवरी को शिक्षा विभाग में संकल्प रैली/ सभा " का आयोजन होगा और  "9 जनवरी को भोपाल में सारे प्रदेश के लोगो को भोपाल में बुलाकर संविलियन शिक्षा संकल्प रैली करेंगे" , हमे पता हे इस रैली को करने के लिए हमे परमिशन नहीँ मिलेगी लेकिन हम आंदोलन movement करेंगे , हम यह आंदोलन छुट्टी के दिन जान बूझ कर नहीँ किया हे क्योकि अब् बहुत हो चूका हे , हमारी वेतन कटे , निलंबन करे या बर्खाश्त करे उस से हम नहीँ डरेंगे ऐसी गीदड़ भभकियां शाषन की हम बहुत झेल चुके हे और अब् तो कोर्ट का सहारा भी ले चुके हे ये अब् कोई नई तरकीब सामने आ सकती हे उस से अभी से सावधान रहें ।

समस्या का जड़मूल से नाश ही हमारा अंतिम ध्येय और लक्ष्य हे । हमारे पास समय अल्प हे और लक्ष्य बड़ा हे सिर्फ  एक वर्ष बचा हे इसमें ही हमे बहुत कुछ करना हे साल का एक एक दिन हमे संघर्ष के नाम करना हे और संघर्ष में सफलता हमे एकता और अनुशाशन से ही मिलेगी , और हमे सबको संघ वाद भूल कर इसमें योगदान देना हे।

अंत में संघर्ष समिति अध्यपको से निवेदन करती हे जो कार्यक्रम समिति द्वारा तैयार किये हे उन्हें संघ भेद त्याग कर लड़ाई में तन मन धन से शामिल होकर संघर्ष को सफल बनायें ।
          
धन्यवाद
एच एन नरवरिया
आई टी / सोशल मीडिया सेल
अध्य्यापक संघर्ष समिति मप्र

विचार करे और 9 जनवरी को भोपाल कूच करे -जगदीश यादव

अधिकारी अफसर विद्यालयों का निरीक्षण कर रहे हैं और रोज अखबारों में आ रहा है कि फलाना स्कूल चेक हुआ और बच्चों से राजधानी पूछी, मुख्यमन्त्री का नाम पूछा और बच्चों को नहीं आया, इसी क्रम में एक खबर आयी कि एक शिक्षिका को black board पर  अंत्येष्टि शब्द गलत लिखते हुए देखा और उस अध्यापिका का नाम व फोटो अखबार में छाप दिया ।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ऐसा करके समाज में, लोगों को, अभिभावकों को क्या सूचना और सन्देश दिया जा रहा है? यही कि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को विषय का ज्ञान नहीं है? उनको हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, आदि नहीं आती ?
बड़ा विरोधाभास है ........ एक तरफ सरकार कहती है कि सरकारी स्कूलों में नामांकन बढे, ज्यादा बच्चे जुड़े, कोर्ट में केस दाखिल किये जा रहे हैं कि सरकारी स्कूल में अफसरों के बच्चे पढ़ाई करें और दूसरी तरफ शिक्षकों की गरिमा और मर्यादा तथा उनके ज्ञान को धूमिल किया जा रहा है| ऐसी खबरें आने के बाद अभिभावक गण और समाज में ये सोच पनपेगी कि मास्टरों को कुछ नहीं आता, "मास्टर" यही शब्द अब संबोधन का ज़िंदा रह गया और गुरु जी जैसे लफ्ज गायब हैं ।

एक सोचनीय तत्व ये है कि अफसर किस उद्देश्य स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं? अपनी अफसरी दिखाने? अध्यापकों को नीचा दिखाने? उनको अपमानित करने? अपना रौब दिखाने? उनको फटकार लगाने? .....  ...... ?
निंदनीय है  ......... 
नकारात्मक है ........
गलत है .......
होना तो यह चाहिए कि अफसरों को शिक्षकों और बच्चों को प्रेरित करना चाहिए, उनका morale up करना चाहिये, उनको boost करना चाहिए, एक जोश भरना चाहिए,कोई कमी दिखे भी तो शिक्षकों और बच्चों में सकारात्मक ऊर्जा भरनी चाहिए, अपमानित करने से तो शिक्षक निराश हो जाएगा ।

अच्छा , इन अफसरों के प्रश्न होते भी ऐसे हैं जो syllabus से बाहर के होते हैं, अफसरों का उद्देश्य सुधारवादी नहीं, आलोचनात्मक दृष्टिकोण लिये होता है कि शिक्षक की गलती नजर आये बस, और हम अपना रौब दिखाए, एक अफसर ने लेफ्टिनेंट शब्द पूछा था शिक्षक से, क्योंकि यह अब अप्रचलित शब्द है और लेफ्टिनेंट अंग्रेजी में lieutenant लिखा जाता है ।

हिन्दी में तो और भी कठिन शब्द हैं जो भ्रमित करते हैं  और किताबों में, अखबारों में गलत वर्तनी ही प्रचलित है जैसे उपरोक्त शब्द मिलता है सही शब्द उपर्युक्त कि जगह, कितने लोग जानते हैं कि कैलाश शब्द गलत है और कैलास सही, दुरवस्था सही है दुरावस्था गलत, सुई नहीं सूई शब्द सही है, अध:पतन को अधोपतन लिखा जाता है,  हिन्दी भाषा की सही वर्तनी पूरे भारत में ही गिने-चुने लोग सही लिख पायेगे, दो aunthentic (प्रमाणिक) किताबों में एक में दोपहर सही शब्द माना है और एक ने दुपहर, भगवान जाने स्थाई शब्द सही है या स्थायी? दवाई शब्द तो होता ही नहीं है सही शब्द या तो दवा है या दवाईयाँ, दुकानों पर लिखा मिष्ठान शब्द ही गलत है क्योंकि सही शब्द मिष्टान्न है।

कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और कोई भी शिक्षक सर्वज्ञ नहीं होता, चाहे कितना भी कोई स्वाध्याय कर लें, शादी न करे, घर से कम निकले, शादी विवाह मृत्यु त्यौहार आदि में जाना बन्द करके कोई शिक्षक सारी जिन्दगी पढ़ाई करे फिर भी किसी न किसी प्रश्न पर वो अटक जाएगा क्योंकि विषय और ज्ञान अनन्त है ।

सरकारी स्कूल का अध्यापक कोई भी हो, वो बुद्धिमान अवश्य होगा, उसका कारण साफ़ है, वो कई परीक्षाएं पास करके शिक्षक बनाता है, बी ए, ऍम ए, बीटीसी, जेबीटी,  pre बीएड, फिर बीएड, ऍम एड, tet, ctet, आदि के उपरांत teacher के लिये प्रतियोगी परीक्षा, सिर्फ क्रीम क्रीम प्रतियोगी ही अध्यापक बन पाते हैं ।

कुछ हद तक शिक्षक स्वाध्याय नहीं कर रहा, जिसकी जिम्मेदारी समाज और शिक्षा विभाग की  है, आम इन्सान को नहीं पता कि सरकारी teacher के कैरियर में 40% fild work है, 40% लिखा पढ़ी और सिर्फ 20% अध्ययन अध्यापन है, field work मतलब शिक्षक गाँव में या शहर में घूमता है, उसको स्कूल परिसर में बैठने  का वक्त नहीं, बाल गणना, जनगणना, pulse पोलियो, चुनाव, सर्वे, पोषाहार के लिये दाल सब्जी मिर्च मसाले लाना, अभी चूल्हे cylinder लाने के लिये मशक्कत की, और सबसे बड़ा कार्य b.l.o. गाँव में घूमते रहो, फिर आये दिन ट्रेनिग, नामांकन और वोटर कार्ड बनाने के लिये द्वार-द्वार घूमो, छात्रवृति वाले काम के लिये बच्चों और अभिभावकों से आय प्रमाण पत्र और जाति प्रमाण पत्र की माथापच्ची में पूरा जुलाई निकल जाता है , बोर्ड एग्जाम में तो सिर्फ  govt टीचर की ही ड्यूटी लगाती है तो मार्च में सरकारी स्कूल खाली हो जाते हैं, वृक्षारोपण अभियान  में पेड़ लेने भागो, निशुल्क पाठ्य पुस्तक लेने भागो,  निशुल्क गणवेश भी तो वितरित करना है उसका भी इन्तजाम करना है, राशन कार्ड और आधार कार्ड की ड्यूटी, बैंक का काम, बच्चों की पढ़ाई गयी भाड़ में , रोजाना नई नई सूचनाये विभाग मागता है और तरह तरह की u.c., किसी स्कूल में कमरा office निर्माण कार्य आ गया तो समझो 6 महीने गए, कभी पोषाहार की डाक जाती है to कभी छात्रवृति की, कभी dise बुकलेट भरो, तो कभी अनीमिया गोलियों की डाक, स्कूल आकर कोई आम इन्सान देखे तो पता चलेगा कि सरकारी स्कूल डाकखाना है।
शिक्षक स्वाध्याय कैसे करे? क्या करे? इस अजीबोगरीब माहोल में , और पढ़ाई चाहिए भी किसको? हर कोई पास भर होना चाहता है, डिग्री चाहता है, ज्ञान किसको चाहिए? एक तरफ गुणवत्ता सुधारने के लिये ncert books लगा दी गयी और जिनका standard ऐसा कि विज्ञान की किताब पढ़ाने के लिये lab की जरूरत है क्योंकि सारे प्रयोग हैं, सरकारी स्कूल में chalk duster black बोर्ड की व्यवस्था होती नहीं सही से, बाकी lab की  बात ..... ? कक्षा कमरे हैं सही लेकिन एक में कबाड़ पडा है, एक में चावल गेहूं और एक में पोषाहार पकाने के लिये लकड़ी भरी है, और एक में ऑफिस अलमारी, एक तरफ ncert books का आदर्शवाद और वहीं बोर्ड result सुधारने के लिये ...........

शिक्षा विभाग भी जादू का खेल है, कभी क्या तो कभी क्या? कभी एकीकरण, कभी समानीकरण, कभी स्टाफिंग pattern, शिक्षक को खुद नहीं पता कि उसका पत्ता कब कट जाएगा?
शिक्षक भी इन्सान है, मीडिया भी बस आदर्शवाद का ढकोसला करता है, अंतेष्टि गलत लिखा शिक्षिका ने तो उसका फोटो खींच लिया, किसी बच्चे ने चाहे खुद ही खुद को चोटिल कर  दिया हो लेकिन बड़े बड़े अक्षरों में खबर छपेगी 
"शिक्षक ने  पीटा"
"शिक्षक की करतूत "
कोई भी शिक्षक स्कूल में बैठकर time pass नहीं करता, बच्चों को उनके मां बाप भी गलत काम पर पिटाई करते हैं, शिक्षक राक्षस नहीं है, अगर कोई एक शिक्षक गलती करता है तो पूरा शिक्षक समुदाय की गलती सिद्ध नहीं हो जाती, पढ़ाई कोई घुट्टी नहीं है कि बच्चे का मुँह खोला और दो बूँद डाल दी, अनुशासन के लिये भय भी जरूरी होता है,  मीडिया को बहुत शौक है सच छापने का तो किसी स्कूल में कुछ दिन काटकर आये, देखे शिक्षक की दोहरी तिहरी जिम्मेदारी और माहौल ,
विश्व का सारा ज्ञान और विकास शिक्षा और शिक्षक के कारण ही वजूद में आया है, सरकारी शिक्षक बहुत ही निरीह और आम इन्सान है, वो अपना 100% देना चाहता है, ये जरूर है कि वो दबावों में है, शिक्षण बस एक नौकरी भर नहीं है। अफसर मीडिया और समाज तीनों शिक्षक के प्रति अनुदार हैं, और शिक्षक की गलत छवि पेश कर रहे हैं।

शिक्षा व्यवस्था के सन्दर्भ में आज से पचास वर्ष पहले श्रीलाल शुक्ल जी ने एक कड़वी मगर सच बात राग दरवारी में लिखी थी, जोआज भी प्रासंगीय है "सरकारी शिक्षा रास्ते में पड़ी हुई एक कुतिया है, जिसको कोई भी ठोकर मारकर चला जाता है। जो भी मंत्री, अधिकारी आते हैं बजाय इसके कि वह शिक्षा व्यवस्था को ठीक करें, शिक्षकों को जिम्मेदार मानकर बात शुरू करता है। हर आदमी सरकारी शिक्षा के खिलाफ वक्तव्य देकर चला जाता है, मगर उसके लिए कुछ नहीं करता।"

आपका अनुज
जगदीश यादव

Friday, December 23, 2016

2013 में नियुक्त संविदा शाला शिक्षक के सम्बन्ध में DPI का मार्गदर्शन

जिन  संविदा शिक्षक का 2013 में स्थान परिवर्तन किया गया है उस सम्बन्ध में लोक शिक्षण संचालनालय ने मार्ग दर्शन जारी किया है । अब एक ही निकाय में स्थान परिवर्त्तन हुआ है तो प्रथम नियुक्ति तिथि से वरिष्ठता गिनी जायेगी लेकिन निकाय परिवर्तन हुआ है तो नविन निकाय में पदस्थापना से वरिष्ठता गिनी जायेगी ।

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Thursday, December 22, 2016

मार्गदर्शन के अभाव में अध्यापको का वेतन निर्धारण और भुगतान न रोका जाये DPI का आदेश

आज DPI ने आदेश जारी किया की ,जिलो से जानकारी मिल रही है ,की 30 नंवबर 16 के आदेश के संदर्भ में कई जिलो में अध्यापको का वेतन रोक दिया गया है ,जबकि संदर्भित आदेश में वेतन रोकने का नहीं कहा गया है .शासन आदेश के पालन में वेतन भुगतान  करने का कहा गया है .

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Wednesday, December 21, 2016

पहली बार किसी को अपने हाथ से जानकर पैर मे कुल्हाड़ी मारते देखा है -अखिलेश पाण्डे (सतना)

शिक्षक संवर्ग के मान्यता प्राप्त संगठन है l
जिसकी उदासीनता का नतीजा है कि वह अपने घर को नही बचा सके और न ही बचाने का प्रयास किया परिणाम संवर्ग समाप्ति की ओर है l यदि  उस समय के शिक्षक संगठनों ने ध्यान दिया होता  तो
    1997-98 मे शिक्षाकर्मी का जन्म न होता l
म.प्र. का शिक्षित बेरेजगार संविदा के आगोश मे न होता l
म.प्र. के हर कर्मचारी संगठनों ने अपने संवर्ग को बचाने की कोशिश नहीं की यदि उसे  बचाने के  लिये कोशिश की होती तो हर विभाग संविदा के गाल मे न होता l
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       सत्ता के गलियारों की नजदीकियाँ बन गई तो भूल गये कि हम एक दबाब समूह है l जो अपने दबाब को बनाये रखने से ही वह संवर्ग जीवित है नही मृतप्राय है और उस संवर्ग को बचाये रखने की जरूरत है l तभी हमारी ताकत  है वह शेष रहेगी l
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     सत्ता की गलियों के सुख ने इन पदाधिकारियों को और संवर्ग को सुख से दूर कर दिया है l
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इसके ठीक विपरीत  मै अपने अध्यापक संगठन को कहूँगा वह सही दिशा मे थे l जो कहते है कि कुछ नहीं किया वह भ्रम मे है l
          और उनका  यह कहना कि अध्यापक संगठन के पदाधिकारी वर्ग ने कुछ नही किया l
   कुछ न किया होता तो एक वर्ष के शिक्षा कर्मी होते थे जो हर वर्ष अतिथि के समान भरे जाते और निकाले जाते l
शिक्षाकर्मी 10 माह काम करता था l तो  बाद मे संविदा भी बना साथ मे एक गुरूजी भी रहा है l सभी की एकजुटता ने अध्यापक संवर्ग को जन्म दिलाने मे और कर्मी कल्चर गुरूजी कल्चर,संविदा कल्चर को समाप्त कराने मे सफल रहे है l 1998 से 2013 तक इन्ही सब से मुक्ति मिली है जिसे कम नही कहा जा सकता तब जाके आज वह छठवाँ तक लाया है l
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              2013 मे पाटीदारजी ने सत्ता के गलियों मे कदम रखा जिसका परिणाम था कि हम 2 वर्ष 2013 से 2015 तक दबाब को सरकार मे बनाने मे कामयाब न हो सके l देख ले दबाब समूह का सत्ता की ओर रूझान कितना दबाब को कम करता है l
   ---------- 2015 मे आजाद अध्यापक संगठन  की तिरंगा रैली के बाद सरकार दबाब मे थी और सभी संघों के संयुक्त मोर्चा के बाद सरकार दबाब बना था  l
लेकिन स्वागत करके आजाद अध्यापक संघ ने दबाब को कम कर दिया l सरकार को घटते दबाब का लाभ मिला कि वह इसे लंबा खीचने की प्रक्रिया जो शासन की होती है वह कामयाब रही l इससे आजाद संघ का नुकसान नहीं हुआ l नुकसान अध्यापक संवर्ग का हुआ जो 1998 से लड़ते हुए हर कल्चर को धोता हुआ आज 2015 मे छठवाँ पाने के नजदीक था l
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   ब्रजेश शर्मा के नेतृत्व मे 2016 को संयुक्त मोर्चा ने फिर से दबाब को जीवित किया परिणाम यह हुआ कि सतत आँदोलन के बाद
16 अक्टूबर की शहडोल तिरंगा रैली ने जबरदस्त सरकार पर दबाब बनाया  l
सरकार इतने दबाब मे थी कि वह 15 अक्टूबर को आनन फानन मे उल्टा सीधा गणनापत्रक जारी करना पड़ा l
यह होता है संगठन का दबाब कि दो घंटे मे माँग पूरी होती है l
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       लेकिन फिर दबाब घटा आजाद संघ को आनन फानन मे जारी आदेश मे विसंगति न दिखी क्यूँ न दिखी कारण सत्ता के गलियों का सुख छूटने का डर यहाँ भूल जाते है कि जब तक दबाब है तभी तक शासन पास बुलाती है l
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   ताज्जुब होता है कि कहाँ की नीति है कि दोबारा स्वागत किया जाय और क्यूँ किया जाय l
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       इस अध्यापक संघ ने आगे लगातार किये धरा मे पानी फेरने का काम किया है l
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    पहली बार किसी को अपने हाथ से जानकर पैर मे कुल्हाड़ी मारते देखा है l
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यदि कर्मी कल्चर से संविदा जो आज  अध्यापक है l  अध्यापक संघर्ष ने बराबर दबाब बना के रखा जिसका परिणाम था कि हम धीरे धीरे लाभ की ओर अग्रसर है l यदि यही दबाब जीवित रखा को उचित माँगे पूरी होती रहेगी जिसमे कई माँगे शेष है l
       एक बात और अध्यापक का निर्माण हो चुका
संविदा और फिर गुरूजी समाप्त कराने मे सफल रहे कारण क्या था  l
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हमने शिक्षक संवर्ग और संविदा मे आगोश मे समाये विभाग के कर्मचारी की तरह नही सोचा था जिसका लाभ मिला  हमने सबको  समेटकर कर्मी कल्चर गुरूजी कल्चर, संविदा कल्चर को  एकजायी  अध्यापक बनाने मे सफलता हासिल की  l
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यह सब 1998 से आज तक के संघर्ष का परिणाम था की दबाब समूह जीवित है l
लेकिन शिक्षक संवर्ग की गलती को हम सुधार करने मे सफल न हो सके
जिसका खामियाजा सामने है l
कि हम उस संवर्ग के लाभ तक पहुँचने के लिये अभी सीढ़ियाँ चढ़ रहे है l
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     सरकार निजी करण की तरफ
मन  लगाने वाली है कारण अभी हारे हुए खिलाड़ी संयास की ओर है l और वह खुद संवर्ग सहित बुझने वाले है l और हमारे बढ़ने मे एक रोड़ा है l
(लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

कक्षा -05 व् 08 वी वार्षिक परीक्षा-मूल्यांकन निर्देश वर्ष 2016-17 इस वर्ष बोर्ड होने की संभवना लगभग समाप्त

कक्षा -05 व् 08 वी वार्षिक परीक्षा-मूल्यांकन निर्देश वर्ष 2016-17 इस वर्ष बोर्ड होने की संभावना लगभग समाप्त

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सत्र 2016-17 में कक्षा - 5 व 8 के स्वाध्यायी परीक्षार्थियों के संवंध में





Tuesday, December 20, 2016

क्यों आवश्यक है संविलियन :-अजीतपाल यादव (भोपाल)


भाग-1
किसी भी राष्ट्र की 3 मूल आवश्यकताएं होती हैं -
(1) शिक्षा
(2) चिकित्सा
(3) सुरक्षा
इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा होती है, क्योंकि बाकी सभी आवश्यकताओं की नींव शिक्षा ही है । पूर्ववर्ती सरकार ने हर किलोमीटर पर प्राथमिक व हर तीन किलोमीटर पर माध्यमिक शाला शालाएं खोली । शिक्षा को हर गांव व हर बच्चे तक पहुँचाने का प्रयास किया । पर कुछ बातों में कमी रह गयी ।
भर्ती प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी का कहना था की गाँव से प्रतिभा का पलायन रोकना है । उसे गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होना चाहिए । आगे जाकर संविदा के पद सृजित किए गए और व्यापम द्वारा प्रदेश स्तरीय चयन प्रक्रिया अपनाई  गई ।
शिक्षा विभाग में सन् 1993 से नियमित भर्ती प्रक्रिया बंद कर दी गई । सहायक शिक्षक के पद को डाईंग  केडर घोषित कर दिया गया । कई प्रकार के शिक्षक भर्ती किए गए, जिन्हें विभिन्न विचित्र नामों से जाना गया :- औपचारिकेत्तर शिक्षक, तदर्थ शिक्षक, आपरेशन ब्लेक बोर्ड शिक्षक, प्रौढ़ शिक्षक, शिक्षककर्मी, संविदा शिक्षक, गुरूजी, अतिथि शिक्षक, अध्यापक ।
ये सारे प्रयोग अंततः शिक्षा के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं । गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । अब म प्र में लगभग 2.84 लाख अध्यापक संवर्ग शिक्षा प्रदान कर रहा है सरकारी शालाओं में । अध्यापक संवर्ग में शिक्षककर्मी, संविदा व गुरूजी समाहित किए गए हैं । किंतु सबसे महत्वपूर्ण विडंबना ये है की अध्यापक संवर्ग शिक्षा विभाग का कर्मचारी नहीं है । किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं है । म प्र शासन किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं मानती ।
सरकारी विद्यालयों में निर्धन वर्ग का विद्यार्थी पढता है । यदि शासकीय विद्यालय बंद होंगे तो गरीब बच्चे शिक्षा से मेहरूम रहेंगे । इसलिए अध्यापक संवर्ग को पुरजोर तरीके से दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर शिक्षा विभाग को पुनर्जीवन देना होगा । जिसका एकमात्र उपाय है शिक्षा विभाग में संविलियन ।

भाग -2
शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बहुत बात होती है । पर इसकी तभी बात होती है जब शिक्षक को डराना हो । यानि की जो शिक्षा प्रदान करने वाला मुख्य मदारी है जो डमरु लेकर बैठा है ।
लेकिन जब हम इस अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य शासन की जिम्मेदारी का आंकलन करते हैं तो वो नगण्य पाते हैं । उदाहरण के तौर पर जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ था तो ढाई वर्ष की समय सीमा तय की गई थी की प्राथमिक शाला में 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक और माध्यमिक विद्यालय में 35 पर एक ।
किंतु जब हम वास्तविक स्थिति को देखते हैं तो भयानक विसंगति नजर आती है । जहाँ शिक्षक थे उनको भी नए आदेशों से अतिशेष करके हटा दिया गया और उस स्कूल के विद्यार्थियो को यतीम कर दिया गया शिक्षा से । यकीन न हो तो 14.09.2016 के आदेश को पढ़ें ।
ये कैसी नीति है? ये कैसी योजनाएं हैं?  ये कैसे नियम हैं जो बच्चे को हिंदी, विज्ञान, संस्कृत पढने से वंचित कर रहे हैं । 1998 से लेकर आज दिनांक तक जो भर्ती हुई है वो विज्ञान, भाषा के आधार पर हुई हैं । पर अब अचानक नियम बनाकर दुहाई दी जा रही है की विज्ञान वाला गणित नहीं पढ़ा सकता । तो क्या अभी तक कमिशनर पढ़ा रहा था स्कूल जाकर?
खोखले आदेश, दोगली व्यवस्था को बदलकर ही शिक्षा को बचाया जा सकता है । वर्ना आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेंगी हमें ।
अंतिम स्थिति संविलियन है ।(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार है)
                        

वर्षों पुराना सपना सच हो अपना - समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना सियाराम पटेल(नरसिंहपुर)


    सम्मानीय साथियों सादर वंदे।
1995/1998 से अल्पवेतन भोगी कर्मचारी के रूप में कार्यरत शिक्षाकर्मी संम्वर्ग से वर्तमान 2007 से गठित अध्यापक संवर्ग में पूर्ण लग्न, निष्ठा एवं समर्पण के साथ संघर्षशील कार्यरत साथियों का एक सपना जो सच हो अपना- समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना पूर्ण होने का समय आ गया है। अभी तक विगत एक वर्ष से विसंगति रहित छटे वेतन एवं एकता स्थापित करने के लिए किये गए प्रयास के सुखद परिणाम स्वरूप गठित अध्यापक संघर्ष समिति मध्यप्रदेश व अध्यक्षीय मंडल ने आपकी भावना एवं मनोभावों के अनुरूप शिक्षा विभाग में संविलियन एवं वास्तविक रूप से समान कार्य - समान वेतन की लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आज ज्ञापन प्रेषित कर शासन को आगाह करते हुए शिक्षा विभाग संविलियन संकल्प वर्ष 2017 की घोषणा कर दी है।
      अब एक सपना जो सच हो अपना- समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना लक्ष्य की प्राप्ति सभी आम अध्यापकों के अपेक्षित सह्योग और समर्पण भाव पर निर्भर है।
इसीलिए घर बैठ केवल सोशल मीडिया रुपी रणक्षेत्र को छोड़ वास्तविक आंदोलन के रणक्षेत्र/समरभूमि में उतरना होगा। आप सभी के मनोभावों एवं संकल्प की वानगी एवं आपकी संख्यात्मक उपस्थिति ही आगामी 5 जनवरी 2017 को आयोजित जिला स्तरीय संकल्प सभा एवं 9 जनवरी 2017 को आयोजित प्रान्तीय संकल्प रैली की सफलता निर्भर करेगी।
आपका साथी-
सियाराम पटेल, नरसिंहपुर
प्रदेश मीडिया प्रभारी,
रा. अ. संघ म.प्र. एवं
अध्यापक संघर्ष समिति मध्यप्रदेश

Monday, December 19, 2016

शिक्षा विभाग में संविलियन के नारे पर विचार होना चाहिए.-रिजवान खान (बैतूल)


कल दिनांक 18.12.2016 की बैठक में अध्यापक संघर्ष समिति ने शिक्षा विभाग में संविलियन मुख्य मांग घोषित कर इस दिशा में निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर दिया है. शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग शिक्षाकर्मी आंदोलन की शुरुवाती मांगो में से एक है. संविलियन ही एकमात्र रास्ता है जिससे अध्यापको की समस्त समस्याओ का अंत हो सकता है. आज इसी विषय पर एक सारगर्भित पोस्ट अजीत पाल यादव जी ने लिखी है जिसमे उन्होंने संविलियन और उसका प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर समग्र प्रभाव की सटीक विवेचना की है.
         यह सच है की संविलियन से अध्यापको की लगभग सभी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाएँगी किन्तु शासन के साथ पूर्व का अनुभव और अधिकारियो का अध्यापको के प्रति नकारात्मक रुख मुझे संविलियन पर शंका करने का पर्याप्त आधार प्रदान करता है. 1997 में सुप्रीम कोर्ट में शिक्षाकर्मियों सम्बन्धी हलफनामे में वेतन का कॉलम खाली छोड़ने से इस धोखेबाजी की शुरुवात हुई थी जो आज गणना पत्रक में अध्यापक और वरिष्ठ अध्यापक के वेतन की दसवी स्टेप एक समान 13160 पर बनांकर निरन्तर जारी है.
कहने का तातपर्य यह की संविलियन का हाल भी वर्तमान छठे वेतन जैसा ना हो जाय जिसपर नित नाना प्रकार के प्रयोग अधिकारी कर रहे है. 1994 में शिक्षक संवर्ग को मृत संवर्ग घोषित किया जा चुका है जो की 2025 तक लगभग समाप्त हो जायेगा. आज भी अध्यापक और नियमित शिक्षक का रेशियो 75:25 के लगभग है जो की साल दर साल घटता जायेगा. अतः  क्या आज अध्यापक आंदोलन इस स्तिथि में है जो शासन से नीति बदलवाकर उक्त संवर्ग को जीवित कर उन नियमित पदों पर अपना संविलियन करवा सके? क्या शासन आंदोलन का लाभ उठाकर अध्यापक संवर्ग को समान सेवा शर्तों के साथ यथास्तिथि शिक्षा विभाग में संविलियन तो नही कर देगा ? क्योकि छठा वेतन देकर वह समान कार्य समान वेतन के पचड़े से मुक्त हो गया है. यदि ऐसा हुआ तो 1998 से लेकर 2005 तक भर्ती अध्यापको का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा क्योकि उसके साथ चिपकी विसंगतियां शिक्षा विभाग में भी चली आयेगी.
        विदित हो की त्रि स्तरीय पंचायती राज के प्रावधानों के तहद 1994 से ही शिक्षा स्थानीय निकाय को सौपी जा चुकी है जिसके अंतर्गत केवल भर्ती का कार्य ही निकायों द्वारा किया गया है अतः यदि अध्यापक ही उक्त विभाग से चला जायेगा तब पंचायती राज की क्या उपयोगिता बचेगी ? क्या प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व में इतनी इच्छा शक्ति है जो की वह संसद में पारित कानून के विपरीत जाकर कार्य कर सके ? क्या अध्यापको के ग्यारह के लगभग संघो के नेतृत्व में वो किलर इंस्टिंक्ट है जो की इस दुरूह कार्य को एकता के साथ पूर्ण कर सके ? 18 वर्षो का अनुभव इसके विपरीत है.
           मेरा केवल एक अनुरोध सभी संघ संगठनो से है की समान कार्य समान वेतन के झुनझुने से खेलते हुए आज अध्यापको की आधी से अधिक सेवा होने को आई है यदि शिक्षा विभाग में संविलियन से अधिकारियो ने खेलना शुरू किया तो दस वर्ष और निकल जायेंगे. इन सबके बीच अध्यापको की एक पूरी पीढ़ी अपने नसीब को कोसती शोषण का शिकार होते होते रिटायर हो जायेगी. अतः संविलियन को मात्र एक नारा मात्र ना बनाया जाय बल्कि इसको लेकर स्पष्ट निति घोषित की जाय.
पुनश्च: - शिक्षाकर्मी भूले नही है जब 2007 में संविलियन के नाम एक विभाग के नियमित कर्मचारी होकर उसी विभाग में नए पदनाम से संविलियन हुआ था, इतिहास में सर्वथा पहली बार ऐसा हुआ होगा.
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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Saturday, December 31, 2016

खादी वस्त्र ही नही ,अपितु विचार भी है-सुनिल भारी, कन्नौद(देवास)

मप्र शासन द्वारा कर्मचारियों के लिये सप्ताह मे एक दिन स्वैच्छिक खादी वस्त्र पहनने संबंधी आदेश स्वागत योग्य है, खादी हमारी राष्ट्रीय पहचान है, खादी हमारी सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करती है, खादी स्वदेशी को परिपूर्णता प्रदान करती है.... "खादी फाॅर फैशन ही नही, खादी फाॅर नेशन भी है... खादी केवल वस्त्र ही नही, अपितु विचार भी है, संस्कार भी है..."
          
राष्ट्रनायक महात्मा गाँधीजी ने खादी को जन आस्था का केंद्र बना दिया.. जब आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था, तब गाँधीजी अंग्रेजो से आजादी के साथ साथ सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक एवम् सांस्कृतिक आजादी के पक्षधर थे...वे खादी के माध्यम से हमारे कृषक वर्ग को समृद्ध करना चाहते थे.... इसलिये उन्होने खादी को भरपूर बढ़ावा दिया....उनके एक आह्वान पर सूत,चरखा और खादी आंदोलन की पहचान बन चुके थे.. चरखे की प्रवाहमान गति अहिंसक क्रांति को गतिमान कर रही थी,गाँधीजी चरखे के माध्यम से साधारण जन मानस की चेतना उद्वेलित करने मे  सफल रहे..लोगो ने खादी के विचार को अपनाकर स्वदेशी को अपना समर्थन दिया...चरखा अहिंसक क्रांति की पहचान बन गया.. इस तरह खादी साधारण जनमानस के साथ साथ भारत की पहचान बन गई... कृषि कार्य मे बचे समय मे कृषक वर्ग सूत कातते.....और इस तरह खादी हमारे जीवन मे रच बस गई..
खादी, राष्ट्रप्रेम की ज्योति जलाती है,
खादी, ह्रदय को पवित्र कर हर्षाती है ।
तीन रंग की खादी चूनर ओढ़े, देखो,
आजादी की दुल्हिनयाँ मुस्काती है ।
       
किंतु शनैः शनैः खादी, आउट आॅफ फैशन समझा जाने लगा, आर्थिक उदारीकरण और बढ़ते वैश्विक बाजारीकरण ने खादी उद्योग को समाप्ति की कगा़र पर पँहुचाने मे कोई कसर नही छोड़ी...जबसे  मेक इन इंडिया प्रभावी हुआ तभी से खादी को समृद्ध बनाने की योजनाएं कागज़ो से बाहर निकलकर क्रियान्वित होने लगी... एसे मे राज्य शासन का अपने कर्मचारियों को खादी को सप्ताह मे एक दिवस स्वैच्छिक करने के निर्णय का भरपूर समर्थन करना चाहिये.. मेरा तो मानना है कि खादी पहनने संबंधी आदेश को अनिवार्य करना चाहिये.. कम से कम सप्ताह मे एक दिन खादी का उपयोग अवश्य करे ...
सुनिल भारी
कन्नौद, जिला देवास (मप्र) 
(लेखक स्वयं अध्यापक है, लेख मे प्रस्तुत विचार लेखक के निजी विचार है)
           
        

56 निजी स्कुलो को शासकीय बनाया गया

Thursday, December 29, 2016

शिक्षक की प्रतिष्ठा की दिशा में भी विचार करें अधिकारी-सियाराम पटेल

सम्मानीय साथियों
सादर वंन्दन।

मध्यप्रदेश शासन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के नाम पर नित नूतन लोकलुभावन नए प्रयोग किये जा रहे हैं, कभी किसी नाम से और कभी किसी नाम से और उन सभी प्रयोगों में सफलता और असफलता हेतु केवल शासकीय स्कूलों में कार्यरत शिक्षक ही जवाबदेह हैं शायद, इन सब प्रयोगों की सफलता के लिए न तो शासन , न विभाग के आला अधिकारी, न ही पालक और न ही बालक उत्तरदारी होते हैं, ये सभी अनुभव पूर्ववर्ती बहुत से प्रयोगों और उनके क्रियान्वयन को लेकर आये हैं।

इन सब क्रियाकलापों के प्रति उपर्युक्त में से शायद ही कोई जवाबदेह हो सिवाय शिक्षक के। देश की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की मुख्य भूमिका होती है किंतु कुछ हद तक बालक, पालक और विभाग की भी कही न कही कुछ भूमिका व उत्तरदायित्व होते हैं, एक ओर व्यवस्था संबंधी किसी आदेश के पालन में यदि शिक्षक से कोई चूक या विरोध होता है तो आला अधिकारी शिक्षक के विरुद्ध उसे दोषी मानते हुए तुरंत कार्यवाही करने उद्यत देखे जाते हैं किंतु जब राष्ट्र निर्माता और देश का भविष्य निर्माण करने वाले इन शिक्षकों के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले आदेश और नीतियां बनाने वाले यही अधिकारी दोषपूर्ण आदेश जारी करते हैं और आदेश में व्याप्त दोषपूर्ण विसंगति के चलते जब उस आदेश का फॉलोअप संपूर्ण प्रदेश में कार्यरत शिक्षक के हित में नही होता और शिक्षक द्वारा उसके सम्बन्ध में इन वरिष्ठ आला अधिकारियों और शासन को बार बार अवगत कराया जाता है और उसके बाद भी दोषपूर्ण आदेश जारी करने या जानबूझकर हीला हवाली करने वाले उन नीति निर्धारक अधिकारियों पर कोई कार्यवाही नही किया जाना शासन और इन आला अधिकारियों की दोषपूर्ण नीति को स्वमेव सिद्ध करता है। उदाहरण स्वरूप शिक्षा विभाग के शासकीय प्राथमिक/माध्यमिक/हाई स्कूल/हायर सेकंडरी स्कूलों में कार्यरत अध्यापक संवर्ग के लोगों को विगत 01 जनवरी 2016 से प्रदत्त छटे वेतन के आदेश को लीजियेे, शासन द्वारा सितम्बर 2015 से दिसम्बर 2016 तक लगभग प्रदेश के अनेकों मंच व बॉम्बे में आयोजित की गयी माननीय मुख्यमंत्री जी की प्रेस वार्ता सहित कुल मिलाकर 10-12 बार घोषणा की गयी और 25 मई 2016 और 15अक्टूबर 2016 को तत्सम्बन्ध में अस्पस्ट और विसंगतिपूर्ण जारी आदेश होना और उन आदेशों के पालन में कार्यरत कर्मचारियों के वेतन निर्धारण में संपूर्ण प्रदेश में एकरूपता का अभाव होना, कुछ कनिष्ठ साथियों को वरिष्ठ साथियों से अधिक वेतन निर्धारण होना और प्रदेश भर में अनेकों संकुलों में  2 से 3 महीने व्यतीत होने पर भी छटे वेतन का भुगतान न होना और इन सभी परिस्थितियों से शासन व शासन के आला अधिकारियों को संघ के माध्यम से बार बार अवगत कराने और आदेश की प्रतियां जलाते हुए विरोध प्रदर्शन कर मार्गदर्शन हेतु गुहार लगाने के साथ दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की मांग करने पर भी अभी तक कोई ठोस परिणाम प्राप्त न होना कही न कही शासन व इन आला अधिकारियों की नीति और नियत में अंतर होना भी सिद्ध स्वमेव सिद्ध करता है।

2-3 से माह व्यतीत होने के उपरान्त भी छटा वेतन अध्यापक संवर्ग को प्राप्त न होने के विरुद्ध शासन ने व इन आला अधिकारियों ने वेतन निर्धारण न होने की स्थिति में फालोअप न करने वाले कितने डी डी ओ व लिपिकीय अमले के विरुद्ध कार्यवाही हेतु निर्णय लिए या ठोस कदम उठाये ?

शायद यदि जांच भी की जाए तो उत्तर शून्य होगा इसमें कोई अतिश्योक्ति नही।
इसीलिए यदि शासन शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार और सकारात्मक परिणाम लाना चाहती है तो कुछ इस तरह की नीति निर्धारण होना चाहिये की हम जिन्हें गुरु या राष्ट्र निर्माता कहते हैं उनकी सुख सुविधाओं, उनके हितों से जुडी हुई समस्याओं पर भी उतनी ही जल्दी एक्शन लिया जाये जितना कि किसी व्यवस्था या योजना का फालोअप नही होने पर उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने हेतु निर्णय ले लिए जाते हैं।

अतएव एकपक्षीय कार्यवाही से सम्बंधित त्वरित आदेश जारी किया जाना कहा तक उचित है?
यह बहुत ही अहम और विचारणीय बिंदु है।
राष्ट्र के भविष्य नन्हे मुन्ने बच्चों के भविष्य से जुडी हुई शिक्षा व्यवस्था सुधार के साथ साथ राष्ट्र निर्माता अध्यापक एवं शिक्षक संवर्ग के भविष्य व उनकी सुविधाओं के सुधार को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए जितनी की हम शासन की किसी योजना के क्रियान्वयन व उसकी सफलता के लिए उनसे आशा करते हैं।

आप सभी का साथी-

सियाराम पटेल, नरसिंहपुर
प्रदेश मीडिया प्रभारी
राज्य अध्यापक संघ मध्यप्रदेश।

अभी तो अंगड़ाई है ,अंतिम यही लड़ाई है-एच एन नरवरिया

साथियो,

अपील

जैसा की विदित हे अध्य्यापक संवर्ग अपनी मुलभुत समस्याओं को लेकर आंदोलित हे , और उसके हल के लिए समाधान ढूंढ रहा हे , उसका समाधान शिक्षा विभाग में संविलियंन को लेकर हे पर उसे जैसे तैसे दिशा मिलती हे  फिर दिशा हींन हो जाता हे । दोस्तों 2016 खत्म और 2017 शुरू हुआ हमारे सामने मात्र 2 बजट हे एक 2017 का और एक 2018 का 18 का बजट चुनावी होगा , थोड़ा थोड़ा सबको प्रसाद मिलेगा ,पर हमें 2017 के बजट के पहले ही हमला करना हे।

हम 18 वर्षो से पीड़ित अध्य्यापक संवर्ग नित नई समस्याओं से पीड़ित होता जा रहा हे कभी स्कूल को मर्ज करने, स्कूलों का निजीकरण होना आदि वो अलग बात हे की बीते वर्षो में इसका विरोध् हुआ तो कुछ हद तक रुका , पर फिर से सरकार और सरकार के समर्थक नये नाम से  कोई दूसरा प्रयोग करने लग जाते हे , उनका टारगेट करने का तरीका बदल जाता हे और हम समझ नहीँ पाते हे , जब समझ आता हे तब देर हो जाती हे, खैर इसकी लम्बी फेहरिश्त हे।

लेख लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ  इतना हे की हम लोगो की समस्या अभी जस की तस हे , चाहे वेतनमान , अनुकम्पा नियुक्ति ट्रान्सफर पॉलिसी, बीमा, क्रमोन्नति में अगले पद का वेतन, सी सी एल, आदि आदि, इन सभी समस्याओं का हल मात्र शिक्षा विभाग में संविलियन हे इसके लिए संघर्ष समिति ने वर्ष 2017 को  "शिक्षा विभाग में संविलियन संकल्प  संघर्ष वर्ष"  के रूप में  तय किया हे , जिसके कार्यक्रम तय कर दिए गए हे दिंनाक  "5 जनवरी को शिक्षा विभाग में संकल्प रैली/ सभा " का आयोजन होगा और  "9 जनवरी को भोपाल में सारे प्रदेश के लोगो को भोपाल में बुलाकर संविलियन शिक्षा संकल्प रैली करेंगे" , हमे पता हे इस रैली को करने के लिए हमे परमिशन नहीँ मिलेगी लेकिन हम आंदोलन movement करेंगे , हम यह आंदोलन छुट्टी के दिन जान बूझ कर नहीँ किया हे क्योकि अब् बहुत हो चूका हे , हमारी वेतन कटे , निलंबन करे या बर्खाश्त करे उस से हम नहीँ डरेंगे ऐसी गीदड़ भभकियां शाषन की हम बहुत झेल चुके हे और अब् तो कोर्ट का सहारा भी ले चुके हे ये अब् कोई नई तरकीब सामने आ सकती हे उस से अभी से सावधान रहें ।

समस्या का जड़मूल से नाश ही हमारा अंतिम ध्येय और लक्ष्य हे । हमारे पास समय अल्प हे और लक्ष्य बड़ा हे सिर्फ  एक वर्ष बचा हे इसमें ही हमे बहुत कुछ करना हे साल का एक एक दिन हमे संघर्ष के नाम करना हे और संघर्ष में सफलता हमे एकता और अनुशाशन से ही मिलेगी , और हमे सबको संघ वाद भूल कर इसमें योगदान देना हे।

अंत में संघर्ष समिति अध्यपको से निवेदन करती हे जो कार्यक्रम समिति द्वारा तैयार किये हे उन्हें संघ भेद त्याग कर लड़ाई में तन मन धन से शामिल होकर संघर्ष को सफल बनायें ।
          
धन्यवाद
एच एन नरवरिया
आई टी / सोशल मीडिया सेल
अध्य्यापक संघर्ष समिति मप्र

विचार करे और 9 जनवरी को भोपाल कूच करे -जगदीश यादव

अधिकारी अफसर विद्यालयों का निरीक्षण कर रहे हैं और रोज अखबारों में आ रहा है कि फलाना स्कूल चेक हुआ और बच्चों से राजधानी पूछी, मुख्यमन्त्री का नाम पूछा और बच्चों को नहीं आया, इसी क्रम में एक खबर आयी कि एक शिक्षिका को black board पर  अंत्येष्टि शब्द गलत लिखते हुए देखा और उस अध्यापिका का नाम व फोटो अखबार में छाप दिया ।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ऐसा करके समाज में, लोगों को, अभिभावकों को क्या सूचना और सन्देश दिया जा रहा है? यही कि सरकारी स्कूलों के अध्यापकों को विषय का ज्ञान नहीं है? उनको हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, आदि नहीं आती ?
बड़ा विरोधाभास है ........ एक तरफ सरकार कहती है कि सरकारी स्कूलों में नामांकन बढे, ज्यादा बच्चे जुड़े, कोर्ट में केस दाखिल किये जा रहे हैं कि सरकारी स्कूल में अफसरों के बच्चे पढ़ाई करें और दूसरी तरफ शिक्षकों की गरिमा और मर्यादा तथा उनके ज्ञान को धूमिल किया जा रहा है| ऐसी खबरें आने के बाद अभिभावक गण और समाज में ये सोच पनपेगी कि मास्टरों को कुछ नहीं आता, "मास्टर" यही शब्द अब संबोधन का ज़िंदा रह गया और गुरु जी जैसे लफ्ज गायब हैं ।

एक सोचनीय तत्व ये है कि अफसर किस उद्देश्य स्कूलों का निरीक्षण करने जाते हैं? अपनी अफसरी दिखाने? अध्यापकों को नीचा दिखाने? उनको अपमानित करने? अपना रौब दिखाने? उनको फटकार लगाने? .....  ...... ?
निंदनीय है  ......... 
नकारात्मक है ........
गलत है .......
होना तो यह चाहिए कि अफसरों को शिक्षकों और बच्चों को प्रेरित करना चाहिए, उनका morale up करना चाहिये, उनको boost करना चाहिए, एक जोश भरना चाहिए,कोई कमी दिखे भी तो शिक्षकों और बच्चों में सकारात्मक ऊर्जा भरनी चाहिए, अपमानित करने से तो शिक्षक निराश हो जाएगा ।

अच्छा , इन अफसरों के प्रश्न होते भी ऐसे हैं जो syllabus से बाहर के होते हैं, अफसरों का उद्देश्य सुधारवादी नहीं, आलोचनात्मक दृष्टिकोण लिये होता है कि शिक्षक की गलती नजर आये बस, और हम अपना रौब दिखाए, एक अफसर ने लेफ्टिनेंट शब्द पूछा था शिक्षक से, क्योंकि यह अब अप्रचलित शब्द है और लेफ्टिनेंट अंग्रेजी में lieutenant लिखा जाता है ।

हिन्दी में तो और भी कठिन शब्द हैं जो भ्रमित करते हैं  और किताबों में, अखबारों में गलत वर्तनी ही प्रचलित है जैसे उपरोक्त शब्द मिलता है सही शब्द उपर्युक्त कि जगह, कितने लोग जानते हैं कि कैलाश शब्द गलत है और कैलास सही, दुरवस्था सही है दुरावस्था गलत, सुई नहीं सूई शब्द सही है, अध:पतन को अधोपतन लिखा जाता है,  हिन्दी भाषा की सही वर्तनी पूरे भारत में ही गिने-चुने लोग सही लिख पायेगे, दो aunthentic (प्रमाणिक) किताबों में एक में दोपहर सही शब्द माना है और एक ने दुपहर, भगवान जाने स्थाई शब्द सही है या स्थायी? दवाई शब्द तो होता ही नहीं है सही शब्द या तो दवा है या दवाईयाँ, दुकानों पर लिखा मिष्ठान शब्द ही गलत है क्योंकि सही शब्द मिष्टान्न है।

कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता और कोई भी शिक्षक सर्वज्ञ नहीं होता, चाहे कितना भी कोई स्वाध्याय कर लें, शादी न करे, घर से कम निकले, शादी विवाह मृत्यु त्यौहार आदि में जाना बन्द करके कोई शिक्षक सारी जिन्दगी पढ़ाई करे फिर भी किसी न किसी प्रश्न पर वो अटक जाएगा क्योंकि विषय और ज्ञान अनन्त है ।

सरकारी स्कूल का अध्यापक कोई भी हो, वो बुद्धिमान अवश्य होगा, उसका कारण साफ़ है, वो कई परीक्षाएं पास करके शिक्षक बनाता है, बी ए, ऍम ए, बीटीसी, जेबीटी,  pre बीएड, फिर बीएड, ऍम एड, tet, ctet, आदि के उपरांत teacher के लिये प्रतियोगी परीक्षा, सिर्फ क्रीम क्रीम प्रतियोगी ही अध्यापक बन पाते हैं ।

कुछ हद तक शिक्षक स्वाध्याय नहीं कर रहा, जिसकी जिम्मेदारी समाज और शिक्षा विभाग की  है, आम इन्सान को नहीं पता कि सरकारी teacher के कैरियर में 40% fild work है, 40% लिखा पढ़ी और सिर्फ 20% अध्ययन अध्यापन है, field work मतलब शिक्षक गाँव में या शहर में घूमता है, उसको स्कूल परिसर में बैठने  का वक्त नहीं, बाल गणना, जनगणना, pulse पोलियो, चुनाव, सर्वे, पोषाहार के लिये दाल सब्जी मिर्च मसाले लाना, अभी चूल्हे cylinder लाने के लिये मशक्कत की, और सबसे बड़ा कार्य b.l.o. गाँव में घूमते रहो, फिर आये दिन ट्रेनिग, नामांकन और वोटर कार्ड बनाने के लिये द्वार-द्वार घूमो, छात्रवृति वाले काम के लिये बच्चों और अभिभावकों से आय प्रमाण पत्र और जाति प्रमाण पत्र की माथापच्ची में पूरा जुलाई निकल जाता है , बोर्ड एग्जाम में तो सिर्फ  govt टीचर की ही ड्यूटी लगाती है तो मार्च में सरकारी स्कूल खाली हो जाते हैं, वृक्षारोपण अभियान  में पेड़ लेने भागो, निशुल्क पाठ्य पुस्तक लेने भागो,  निशुल्क गणवेश भी तो वितरित करना है उसका भी इन्तजाम करना है, राशन कार्ड और आधार कार्ड की ड्यूटी, बैंक का काम, बच्चों की पढ़ाई गयी भाड़ में , रोजाना नई नई सूचनाये विभाग मागता है और तरह तरह की u.c., किसी स्कूल में कमरा office निर्माण कार्य आ गया तो समझो 6 महीने गए, कभी पोषाहार की डाक जाती है to कभी छात्रवृति की, कभी dise बुकलेट भरो, तो कभी अनीमिया गोलियों की डाक, स्कूल आकर कोई आम इन्सान देखे तो पता चलेगा कि सरकारी स्कूल डाकखाना है।
शिक्षक स्वाध्याय कैसे करे? क्या करे? इस अजीबोगरीब माहोल में , और पढ़ाई चाहिए भी किसको? हर कोई पास भर होना चाहता है, डिग्री चाहता है, ज्ञान किसको चाहिए? एक तरफ गुणवत्ता सुधारने के लिये ncert books लगा दी गयी और जिनका standard ऐसा कि विज्ञान की किताब पढ़ाने के लिये lab की जरूरत है क्योंकि सारे प्रयोग हैं, सरकारी स्कूल में chalk duster black बोर्ड की व्यवस्था होती नहीं सही से, बाकी lab की  बात ..... ? कक्षा कमरे हैं सही लेकिन एक में कबाड़ पडा है, एक में चावल गेहूं और एक में पोषाहार पकाने के लिये लकड़ी भरी है, और एक में ऑफिस अलमारी, एक तरफ ncert books का आदर्शवाद और वहीं बोर्ड result सुधारने के लिये ...........

शिक्षा विभाग भी जादू का खेल है, कभी क्या तो कभी क्या? कभी एकीकरण, कभी समानीकरण, कभी स्टाफिंग pattern, शिक्षक को खुद नहीं पता कि उसका पत्ता कब कट जाएगा?
शिक्षक भी इन्सान है, मीडिया भी बस आदर्शवाद का ढकोसला करता है, अंतेष्टि गलत लिखा शिक्षिका ने तो उसका फोटो खींच लिया, किसी बच्चे ने चाहे खुद ही खुद को चोटिल कर  दिया हो लेकिन बड़े बड़े अक्षरों में खबर छपेगी 
"शिक्षक ने  पीटा"
"शिक्षक की करतूत "
कोई भी शिक्षक स्कूल में बैठकर time pass नहीं करता, बच्चों को उनके मां बाप भी गलत काम पर पिटाई करते हैं, शिक्षक राक्षस नहीं है, अगर कोई एक शिक्षक गलती करता है तो पूरा शिक्षक समुदाय की गलती सिद्ध नहीं हो जाती, पढ़ाई कोई घुट्टी नहीं है कि बच्चे का मुँह खोला और दो बूँद डाल दी, अनुशासन के लिये भय भी जरूरी होता है,  मीडिया को बहुत शौक है सच छापने का तो किसी स्कूल में कुछ दिन काटकर आये, देखे शिक्षक की दोहरी तिहरी जिम्मेदारी और माहौल ,
विश्व का सारा ज्ञान और विकास शिक्षा और शिक्षक के कारण ही वजूद में आया है, सरकारी शिक्षक बहुत ही निरीह और आम इन्सान है, वो अपना 100% देना चाहता है, ये जरूर है कि वो दबावों में है, शिक्षण बस एक नौकरी भर नहीं है। अफसर मीडिया और समाज तीनों शिक्षक के प्रति अनुदार हैं, और शिक्षक की गलत छवि पेश कर रहे हैं।

शिक्षा व्यवस्था के सन्दर्भ में आज से पचास वर्ष पहले श्रीलाल शुक्ल जी ने एक कड़वी मगर सच बात राग दरवारी में लिखी थी, जोआज भी प्रासंगीय है "सरकारी शिक्षा रास्ते में पड़ी हुई एक कुतिया है, जिसको कोई भी ठोकर मारकर चला जाता है। जो भी मंत्री, अधिकारी आते हैं बजाय इसके कि वह शिक्षा व्यवस्था को ठीक करें, शिक्षकों को जिम्मेदार मानकर बात शुरू करता है। हर आदमी सरकारी शिक्षा के खिलाफ वक्तव्य देकर चला जाता है, मगर उसके लिए कुछ नहीं करता।"

आपका अनुज
जगदीश यादव

Friday, December 23, 2016

2013 में नियुक्त संविदा शाला शिक्षक के सम्बन्ध में DPI का मार्गदर्शन

जिन  संविदा शिक्षक का 2013 में स्थान परिवर्तन किया गया है उस सम्बन्ध में लोक शिक्षण संचालनालय ने मार्ग दर्शन जारी किया है । अब एक ही निकाय में स्थान परिवर्त्तन हुआ है तो प्रथम नियुक्ति तिथि से वरिष्ठता गिनी जायेगी लेकिन निकाय परिवर्तन हुआ है तो नविन निकाय में पदस्थापना से वरिष्ठता गिनी जायेगी ।

आदेश पीडीऍफ़ में देखने के लिए इस लिंक को ओपन करें

Thursday, December 22, 2016

मार्गदर्शन के अभाव में अध्यापको का वेतन निर्धारण और भुगतान न रोका जाये DPI का आदेश

आज DPI ने आदेश जारी किया की ,जिलो से जानकारी मिल रही है ,की 30 नंवबर 16 के आदेश के संदर्भ में कई जिलो में अध्यापको का वेतन रोक दिया गया है ,जबकि संदर्भित आदेश में वेतन रोकने का नहीं कहा गया है .शासन आदेश के पालन में वेतन भुगतान  करने का कहा गया है .

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Wednesday, December 21, 2016

पहली बार किसी को अपने हाथ से जानकर पैर मे कुल्हाड़ी मारते देखा है -अखिलेश पाण्डे (सतना)

शिक्षक संवर्ग के मान्यता प्राप्त संगठन है l
जिसकी उदासीनता का नतीजा है कि वह अपने घर को नही बचा सके और न ही बचाने का प्रयास किया परिणाम संवर्ग समाप्ति की ओर है l यदि  उस समय के शिक्षक संगठनों ने ध्यान दिया होता  तो
    1997-98 मे शिक्षाकर्मी का जन्म न होता l
म.प्र. का शिक्षित बेरेजगार संविदा के आगोश मे न होता l
म.प्र. के हर कर्मचारी संगठनों ने अपने संवर्ग को बचाने की कोशिश नहीं की यदि उसे  बचाने के  लिये कोशिश की होती तो हर विभाग संविदा के गाल मे न होता l
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       सत्ता के गलियारों की नजदीकियाँ बन गई तो भूल गये कि हम एक दबाब समूह है l जो अपने दबाब को बनाये रखने से ही वह संवर्ग जीवित है नही मृतप्राय है और उस संवर्ग को बचाये रखने की जरूरत है l तभी हमारी ताकत  है वह शेष रहेगी l
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     सत्ता की गलियों के सुख ने इन पदाधिकारियों को और संवर्ग को सुख से दूर कर दिया है l
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इसके ठीक विपरीत  मै अपने अध्यापक संगठन को कहूँगा वह सही दिशा मे थे l जो कहते है कि कुछ नहीं किया वह भ्रम मे है l
          और उनका  यह कहना कि अध्यापक संगठन के पदाधिकारी वर्ग ने कुछ नही किया l
   कुछ न किया होता तो एक वर्ष के शिक्षा कर्मी होते थे जो हर वर्ष अतिथि के समान भरे जाते और निकाले जाते l
शिक्षाकर्मी 10 माह काम करता था l तो  बाद मे संविदा भी बना साथ मे एक गुरूजी भी रहा है l सभी की एकजुटता ने अध्यापक संवर्ग को जन्म दिलाने मे और कर्मी कल्चर गुरूजी कल्चर,संविदा कल्चर को समाप्त कराने मे सफल रहे है l 1998 से 2013 तक इन्ही सब से मुक्ति मिली है जिसे कम नही कहा जा सकता तब जाके आज वह छठवाँ तक लाया है l
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              2013 मे पाटीदारजी ने सत्ता के गलियों मे कदम रखा जिसका परिणाम था कि हम 2 वर्ष 2013 से 2015 तक दबाब को सरकार मे बनाने मे कामयाब न हो सके l देख ले दबाब समूह का सत्ता की ओर रूझान कितना दबाब को कम करता है l
   ---------- 2015 मे आजाद अध्यापक संगठन  की तिरंगा रैली के बाद सरकार दबाब मे थी और सभी संघों के संयुक्त मोर्चा के बाद सरकार दबाब बना था  l
लेकिन स्वागत करके आजाद अध्यापक संघ ने दबाब को कम कर दिया l सरकार को घटते दबाब का लाभ मिला कि वह इसे लंबा खीचने की प्रक्रिया जो शासन की होती है वह कामयाब रही l इससे आजाद संघ का नुकसान नहीं हुआ l नुकसान अध्यापक संवर्ग का हुआ जो 1998 से लड़ते हुए हर कल्चर को धोता हुआ आज 2015 मे छठवाँ पाने के नजदीक था l
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   ब्रजेश शर्मा के नेतृत्व मे 2016 को संयुक्त मोर्चा ने फिर से दबाब को जीवित किया परिणाम यह हुआ कि सतत आँदोलन के बाद
16 अक्टूबर की शहडोल तिरंगा रैली ने जबरदस्त सरकार पर दबाब बनाया  l
सरकार इतने दबाब मे थी कि वह 15 अक्टूबर को आनन फानन मे उल्टा सीधा गणनापत्रक जारी करना पड़ा l
यह होता है संगठन का दबाब कि दो घंटे मे माँग पूरी होती है l
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       लेकिन फिर दबाब घटा आजाद संघ को आनन फानन मे जारी आदेश मे विसंगति न दिखी क्यूँ न दिखी कारण सत्ता के गलियों का सुख छूटने का डर यहाँ भूल जाते है कि जब तक दबाब है तभी तक शासन पास बुलाती है l
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   ताज्जुब होता है कि कहाँ की नीति है कि दोबारा स्वागत किया जाय और क्यूँ किया जाय l
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       इस अध्यापक संघ ने आगे लगातार किये धरा मे पानी फेरने का काम किया है l
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    पहली बार किसी को अपने हाथ से जानकर पैर मे कुल्हाड़ी मारते देखा है l
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यदि कर्मी कल्चर से संविदा जो आज  अध्यापक है l  अध्यापक संघर्ष ने बराबर दबाब बना के रखा जिसका परिणाम था कि हम धीरे धीरे लाभ की ओर अग्रसर है l यदि यही दबाब जीवित रखा को उचित माँगे पूरी होती रहेगी जिसमे कई माँगे शेष है l
       एक बात और अध्यापक का निर्माण हो चुका
संविदा और फिर गुरूजी समाप्त कराने मे सफल रहे कारण क्या था  l
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हमने शिक्षक संवर्ग और संविदा मे आगोश मे समाये विभाग के कर्मचारी की तरह नही सोचा था जिसका लाभ मिला  हमने सबको  समेटकर कर्मी कल्चर गुरूजी कल्चर, संविदा कल्चर को  एकजायी  अध्यापक बनाने मे सफलता हासिल की  l
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यह सब 1998 से आज तक के संघर्ष का परिणाम था की दबाब समूह जीवित है l
लेकिन शिक्षक संवर्ग की गलती को हम सुधार करने मे सफल न हो सके
जिसका खामियाजा सामने है l
कि हम उस संवर्ग के लाभ तक पहुँचने के लिये अभी सीढ़ियाँ चढ़ रहे है l
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     सरकार निजी करण की तरफ
मन  लगाने वाली है कारण अभी हारे हुए खिलाड़ी संयास की ओर है l और वह खुद संवर्ग सहित बुझने वाले है l और हमारे बढ़ने मे एक रोड़ा है l
(लेखक स्वयं अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं )

कक्षा -05 व् 08 वी वार्षिक परीक्षा-मूल्यांकन निर्देश वर्ष 2016-17 इस वर्ष बोर्ड होने की संभवना लगभग समाप्त

कक्षा -05 व् 08 वी वार्षिक परीक्षा-मूल्यांकन निर्देश वर्ष 2016-17 इस वर्ष बोर्ड होने की संभावना लगभग समाप्त

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सत्र 2016-17 में कक्षा - 5 व 8 के स्वाध्यायी परीक्षार्थियों के संवंध में





Tuesday, December 20, 2016

क्यों आवश्यक है संविलियन :-अजीतपाल यादव (भोपाल)


भाग-1
किसी भी राष्ट्र की 3 मूल आवश्यकताएं होती हैं -
(1) शिक्षा
(2) चिकित्सा
(3) सुरक्षा
इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा होती है, क्योंकि बाकी सभी आवश्यकताओं की नींव शिक्षा ही है । पूर्ववर्ती सरकार ने हर किलोमीटर पर प्राथमिक व हर तीन किलोमीटर पर माध्यमिक शाला शालाएं खोली । शिक्षा को हर गांव व हर बच्चे तक पहुँचाने का प्रयास किया । पर कुछ बातों में कमी रह गयी ।
भर्ती प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी का कहना था की गाँव से प्रतिभा का पलायन रोकना है । उसे गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होना चाहिए । आगे जाकर संविदा के पद सृजित किए गए और व्यापम द्वारा प्रदेश स्तरीय चयन प्रक्रिया अपनाई  गई ।
शिक्षा विभाग में सन् 1993 से नियमित भर्ती प्रक्रिया बंद कर दी गई । सहायक शिक्षक के पद को डाईंग  केडर घोषित कर दिया गया । कई प्रकार के शिक्षक भर्ती किए गए, जिन्हें विभिन्न विचित्र नामों से जाना गया :- औपचारिकेत्तर शिक्षक, तदर्थ शिक्षक, आपरेशन ब्लेक बोर्ड शिक्षक, प्रौढ़ शिक्षक, शिक्षककर्मी, संविदा शिक्षक, गुरूजी, अतिथि शिक्षक, अध्यापक ।
ये सारे प्रयोग अंततः शिक्षा के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं । गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । अब म प्र में लगभग 2.84 लाख अध्यापक संवर्ग शिक्षा प्रदान कर रहा है सरकारी शालाओं में । अध्यापक संवर्ग में शिक्षककर्मी, संविदा व गुरूजी समाहित किए गए हैं । किंतु सबसे महत्वपूर्ण विडंबना ये है की अध्यापक संवर्ग शिक्षा विभाग का कर्मचारी नहीं है । किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं है । म प्र शासन किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं मानती ।
सरकारी विद्यालयों में निर्धन वर्ग का विद्यार्थी पढता है । यदि शासकीय विद्यालय बंद होंगे तो गरीब बच्चे शिक्षा से मेहरूम रहेंगे । इसलिए अध्यापक संवर्ग को पुरजोर तरीके से दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर शिक्षा विभाग को पुनर्जीवन देना होगा । जिसका एकमात्र उपाय है शिक्षा विभाग में संविलियन ।

भाग -2
शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बहुत बात होती है । पर इसकी तभी बात होती है जब शिक्षक को डराना हो । यानि की जो शिक्षा प्रदान करने वाला मुख्य मदारी है जो डमरु लेकर बैठा है ।
लेकिन जब हम इस अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य शासन की जिम्मेदारी का आंकलन करते हैं तो वो नगण्य पाते हैं । उदाहरण के तौर पर जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ था तो ढाई वर्ष की समय सीमा तय की गई थी की प्राथमिक शाला में 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक और माध्यमिक विद्यालय में 35 पर एक ।
किंतु जब हम वास्तविक स्थिति को देखते हैं तो भयानक विसंगति नजर आती है । जहाँ शिक्षक थे उनको भी नए आदेशों से अतिशेष करके हटा दिया गया और उस स्कूल के विद्यार्थियो को यतीम कर दिया गया शिक्षा से । यकीन न हो तो 14.09.2016 के आदेश को पढ़ें ।
ये कैसी नीति है? ये कैसी योजनाएं हैं?  ये कैसे नियम हैं जो बच्चे को हिंदी, विज्ञान, संस्कृत पढने से वंचित कर रहे हैं । 1998 से लेकर आज दिनांक तक जो भर्ती हुई है वो विज्ञान, भाषा के आधार पर हुई हैं । पर अब अचानक नियम बनाकर दुहाई दी जा रही है की विज्ञान वाला गणित नहीं पढ़ा सकता । तो क्या अभी तक कमिशनर पढ़ा रहा था स्कूल जाकर?
खोखले आदेश, दोगली व्यवस्था को बदलकर ही शिक्षा को बचाया जा सकता है । वर्ना आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेंगी हमें ।
अंतिम स्थिति संविलियन है ।(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार है)
                        

वर्षों पुराना सपना सच हो अपना - समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना सियाराम पटेल(नरसिंहपुर)


    सम्मानीय साथियों सादर वंदे।
1995/1998 से अल्पवेतन भोगी कर्मचारी के रूप में कार्यरत शिक्षाकर्मी संम्वर्ग से वर्तमान 2007 से गठित अध्यापक संवर्ग में पूर्ण लग्न, निष्ठा एवं समर्पण के साथ संघर्षशील कार्यरत साथियों का एक सपना जो सच हो अपना- समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना पूर्ण होने का समय आ गया है। अभी तक विगत एक वर्ष से विसंगति रहित छटे वेतन एवं एकता स्थापित करने के लिए किये गए प्रयास के सुखद परिणाम स्वरूप गठित अध्यापक संघर्ष समिति मध्यप्रदेश व अध्यक्षीय मंडल ने आपकी भावना एवं मनोभावों के अनुरूप शिक्षा विभाग में संविलियन एवं वास्तविक रूप से समान कार्य - समान वेतन की लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आज ज्ञापन प्रेषित कर शासन को आगाह करते हुए शिक्षा विभाग संविलियन संकल्प वर्ष 2017 की घोषणा कर दी है।
      अब एक सपना जो सच हो अपना- समान कार्य का समान वेतन और शिक्षा विभाग हो अपना लक्ष्य की प्राप्ति सभी आम अध्यापकों के अपेक्षित सह्योग और समर्पण भाव पर निर्भर है।
इसीलिए घर बैठ केवल सोशल मीडिया रुपी रणक्षेत्र को छोड़ वास्तविक आंदोलन के रणक्षेत्र/समरभूमि में उतरना होगा। आप सभी के मनोभावों एवं संकल्प की वानगी एवं आपकी संख्यात्मक उपस्थिति ही आगामी 5 जनवरी 2017 को आयोजित जिला स्तरीय संकल्प सभा एवं 9 जनवरी 2017 को आयोजित प्रान्तीय संकल्प रैली की सफलता निर्भर करेगी।
आपका साथी-
सियाराम पटेल, नरसिंहपुर
प्रदेश मीडिया प्रभारी,
रा. अ. संघ म.प्र. एवं
अध्यापक संघर्ष समिति मध्यप्रदेश

Monday, December 19, 2016

शिक्षा विभाग में संविलियन के नारे पर विचार होना चाहिए.-रिजवान खान (बैतूल)


कल दिनांक 18.12.2016 की बैठक में अध्यापक संघर्ष समिति ने शिक्षा विभाग में संविलियन मुख्य मांग घोषित कर इस दिशा में निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर दिया है. शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग शिक्षाकर्मी आंदोलन की शुरुवाती मांगो में से एक है. संविलियन ही एकमात्र रास्ता है जिससे अध्यापको की समस्त समस्याओ का अंत हो सकता है. आज इसी विषय पर एक सारगर्भित पोस्ट अजीत पाल यादव जी ने लिखी है जिसमे उन्होंने संविलियन और उसका प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर समग्र प्रभाव की सटीक विवेचना की है.
         यह सच है की संविलियन से अध्यापको की लगभग सभी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाएँगी किन्तु शासन के साथ पूर्व का अनुभव और अधिकारियो का अध्यापको के प्रति नकारात्मक रुख मुझे संविलियन पर शंका करने का पर्याप्त आधार प्रदान करता है. 1997 में सुप्रीम कोर्ट में शिक्षाकर्मियों सम्बन्धी हलफनामे में वेतन का कॉलम खाली छोड़ने से इस धोखेबाजी की शुरुवात हुई थी जो आज गणना पत्रक में अध्यापक और वरिष्ठ अध्यापक के वेतन की दसवी स्टेप एक समान 13160 पर बनांकर निरन्तर जारी है.
कहने का तातपर्य यह की संविलियन का हाल भी वर्तमान छठे वेतन जैसा ना हो जाय जिसपर नित नाना प्रकार के प्रयोग अधिकारी कर रहे है. 1994 में शिक्षक संवर्ग को मृत संवर्ग घोषित किया जा चुका है जो की 2025 तक लगभग समाप्त हो जायेगा. आज भी अध्यापक और नियमित शिक्षक का रेशियो 75:25 के लगभग है जो की साल दर साल घटता जायेगा. अतः  क्या आज अध्यापक आंदोलन इस स्तिथि में है जो शासन से नीति बदलवाकर उक्त संवर्ग को जीवित कर उन नियमित पदों पर अपना संविलियन करवा सके? क्या शासन आंदोलन का लाभ उठाकर अध्यापक संवर्ग को समान सेवा शर्तों के साथ यथास्तिथि शिक्षा विभाग में संविलियन तो नही कर देगा ? क्योकि छठा वेतन देकर वह समान कार्य समान वेतन के पचड़े से मुक्त हो गया है. यदि ऐसा हुआ तो 1998 से लेकर 2005 तक भर्ती अध्यापको का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा क्योकि उसके साथ चिपकी विसंगतियां शिक्षा विभाग में भी चली आयेगी.
        विदित हो की त्रि स्तरीय पंचायती राज के प्रावधानों के तहद 1994 से ही शिक्षा स्थानीय निकाय को सौपी जा चुकी है जिसके अंतर्गत केवल भर्ती का कार्य ही निकायों द्वारा किया गया है अतः यदि अध्यापक ही उक्त विभाग से चला जायेगा तब पंचायती राज की क्या उपयोगिता बचेगी ? क्या प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व में इतनी इच्छा शक्ति है जो की वह संसद में पारित कानून के विपरीत जाकर कार्य कर सके ? क्या अध्यापको के ग्यारह के लगभग संघो के नेतृत्व में वो किलर इंस्टिंक्ट है जो की इस दुरूह कार्य को एकता के साथ पूर्ण कर सके ? 18 वर्षो का अनुभव इसके विपरीत है.
           मेरा केवल एक अनुरोध सभी संघ संगठनो से है की समान कार्य समान वेतन के झुनझुने से खेलते हुए आज अध्यापको की आधी से अधिक सेवा होने को आई है यदि शिक्षा विभाग में संविलियन से अधिकारियो ने खेलना शुरू किया तो दस वर्ष और निकल जायेंगे. इन सबके बीच अध्यापको की एक पूरी पीढ़ी अपने नसीब को कोसती शोषण का शिकार होते होते रिटायर हो जायेगी. अतः संविलियन को मात्र एक नारा मात्र ना बनाया जाय बल्कि इसको लेकर स्पष्ट निति घोषित की जाय.
पुनश्च: - शिक्षाकर्मी भूले नही है जब 2007 में संविलियन के नाम एक विभाग के नियमित कर्मचारी होकर उसी विभाग में नए पदनाम से संविलियन हुआ था, इतिहास में सर्वथा पहली बार ऐसा हुआ होगा.
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं)