Tuesday, December 20, 2016

क्यों आवश्यक है संविलियन :-अजीतपाल यादव (भोपाल)


भाग-1
किसी भी राष्ट्र की 3 मूल आवश्यकताएं होती हैं -
(1) शिक्षा
(2) चिकित्सा
(3) सुरक्षा
इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा होती है, क्योंकि बाकी सभी आवश्यकताओं की नींव शिक्षा ही है । पूर्ववर्ती सरकार ने हर किलोमीटर पर प्राथमिक व हर तीन किलोमीटर पर माध्यमिक शाला शालाएं खोली । शिक्षा को हर गांव व हर बच्चे तक पहुँचाने का प्रयास किया । पर कुछ बातों में कमी रह गयी ।
भर्ती प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी का कहना था की गाँव से प्रतिभा का पलायन रोकना है । उसे गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होना चाहिए । आगे जाकर संविदा के पद सृजित किए गए और व्यापम द्वारा प्रदेश स्तरीय चयन प्रक्रिया अपनाई  गई ।
शिक्षा विभाग में सन् 1993 से नियमित भर्ती प्रक्रिया बंद कर दी गई । सहायक शिक्षक के पद को डाईंग  केडर घोषित कर दिया गया । कई प्रकार के शिक्षक भर्ती किए गए, जिन्हें विभिन्न विचित्र नामों से जाना गया :- औपचारिकेत्तर शिक्षक, तदर्थ शिक्षक, आपरेशन ब्लेक बोर्ड शिक्षक, प्रौढ़ शिक्षक, शिक्षककर्मी, संविदा शिक्षक, गुरूजी, अतिथि शिक्षक, अध्यापक ।
ये सारे प्रयोग अंततः शिक्षा के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं । गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । अब म प्र में लगभग 2.84 लाख अध्यापक संवर्ग शिक्षा प्रदान कर रहा है सरकारी शालाओं में । अध्यापक संवर्ग में शिक्षककर्मी, संविदा व गुरूजी समाहित किए गए हैं । किंतु सबसे महत्वपूर्ण विडंबना ये है की अध्यापक संवर्ग शिक्षा विभाग का कर्मचारी नहीं है । किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं है । म प्र शासन किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं मानती ।
सरकारी विद्यालयों में निर्धन वर्ग का विद्यार्थी पढता है । यदि शासकीय विद्यालय बंद होंगे तो गरीब बच्चे शिक्षा से मेहरूम रहेंगे । इसलिए अध्यापक संवर्ग को पुरजोर तरीके से दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर शिक्षा विभाग को पुनर्जीवन देना होगा । जिसका एकमात्र उपाय है शिक्षा विभाग में संविलियन ।

भाग -2
शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बहुत बात होती है । पर इसकी तभी बात होती है जब शिक्षक को डराना हो । यानि की जो शिक्षा प्रदान करने वाला मुख्य मदारी है जो डमरु लेकर बैठा है ।
लेकिन जब हम इस अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य शासन की जिम्मेदारी का आंकलन करते हैं तो वो नगण्य पाते हैं । उदाहरण के तौर पर जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ था तो ढाई वर्ष की समय सीमा तय की गई थी की प्राथमिक शाला में 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक और माध्यमिक विद्यालय में 35 पर एक ।
किंतु जब हम वास्तविक स्थिति को देखते हैं तो भयानक विसंगति नजर आती है । जहाँ शिक्षक थे उनको भी नए आदेशों से अतिशेष करके हटा दिया गया और उस स्कूल के विद्यार्थियो को यतीम कर दिया गया शिक्षा से । यकीन न हो तो 14.09.2016 के आदेश को पढ़ें ।
ये कैसी नीति है? ये कैसी योजनाएं हैं?  ये कैसे नियम हैं जो बच्चे को हिंदी, विज्ञान, संस्कृत पढने से वंचित कर रहे हैं । 1998 से लेकर आज दिनांक तक जो भर्ती हुई है वो विज्ञान, भाषा के आधार पर हुई हैं । पर अब अचानक नियम बनाकर दुहाई दी जा रही है की विज्ञान वाला गणित नहीं पढ़ा सकता । तो क्या अभी तक कमिशनर पढ़ा रहा था स्कूल जाकर?
खोखले आदेश, दोगली व्यवस्था को बदलकर ही शिक्षा को बचाया जा सकता है । वर्ना आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेंगी हमें ।
अंतिम स्थिति संविलियन है ।(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार है)
                        

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क्यों आवश्यक है संविलियन :-अजीतपाल यादव (भोपाल)


भाग-1
किसी भी राष्ट्र की 3 मूल आवश्यकताएं होती हैं -
(1) शिक्षा
(2) चिकित्सा
(3) सुरक्षा
इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा होती है, क्योंकि बाकी सभी आवश्यकताओं की नींव शिक्षा ही है । पूर्ववर्ती सरकार ने हर किलोमीटर पर प्राथमिक व हर तीन किलोमीटर पर माध्यमिक शाला शालाएं खोली । शिक्षा को हर गांव व हर बच्चे तक पहुँचाने का प्रयास किया । पर कुछ बातों में कमी रह गयी ।
भर्ती प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं तो पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी का कहना था की गाँव से प्रतिभा का पलायन रोकना है । उसे गाँव में ही रोजगार उपलब्ध होना चाहिए । आगे जाकर संविदा के पद सृजित किए गए और व्यापम द्वारा प्रदेश स्तरीय चयन प्रक्रिया अपनाई  गई ।
शिक्षा विभाग में सन् 1993 से नियमित भर्ती प्रक्रिया बंद कर दी गई । सहायक शिक्षक के पद को डाईंग  केडर घोषित कर दिया गया । कई प्रकार के शिक्षक भर्ती किए गए, जिन्हें विभिन्न विचित्र नामों से जाना गया :- औपचारिकेत्तर शिक्षक, तदर्थ शिक्षक, आपरेशन ब्लेक बोर्ड शिक्षक, प्रौढ़ शिक्षक, शिक्षककर्मी, संविदा शिक्षक, गुरूजी, अतिथि शिक्षक, अध्यापक ।
ये सारे प्रयोग अंततः शिक्षा के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं । गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है । अब म प्र में लगभग 2.84 लाख अध्यापक संवर्ग शिक्षा प्रदान कर रहा है सरकारी शालाओं में । अध्यापक संवर्ग में शिक्षककर्मी, संविदा व गुरूजी समाहित किए गए हैं । किंतु सबसे महत्वपूर्ण विडंबना ये है की अध्यापक संवर्ग शिक्षा विभाग का कर्मचारी नहीं है । किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं है । म प्र शासन किसी भी विभाग का कर्मचारी नहीं मानती ।
सरकारी विद्यालयों में निर्धन वर्ग का विद्यार्थी पढता है । यदि शासकीय विद्यालय बंद होंगे तो गरीब बच्चे शिक्षा से मेहरूम रहेंगे । इसलिए अध्यापक संवर्ग को पुरजोर तरीके से दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर शिक्षा विभाग को पुनर्जीवन देना होगा । जिसका एकमात्र उपाय है शिक्षा विभाग में संविलियन ।

भाग -2
शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बहुत बात होती है । पर इसकी तभी बात होती है जब शिक्षक को डराना हो । यानि की जो शिक्षा प्रदान करने वाला मुख्य मदारी है जो डमरु लेकर बैठा है ।
लेकिन जब हम इस अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य शासन की जिम्मेदारी का आंकलन करते हैं तो वो नगण्य पाते हैं । उदाहरण के तौर पर जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ था तो ढाई वर्ष की समय सीमा तय की गई थी की प्राथमिक शाला में 30 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक और माध्यमिक विद्यालय में 35 पर एक ।
किंतु जब हम वास्तविक स्थिति को देखते हैं तो भयानक विसंगति नजर आती है । जहाँ शिक्षक थे उनको भी नए आदेशों से अतिशेष करके हटा दिया गया और उस स्कूल के विद्यार्थियो को यतीम कर दिया गया शिक्षा से । यकीन न हो तो 14.09.2016 के आदेश को पढ़ें ।
ये कैसी नीति है? ये कैसी योजनाएं हैं?  ये कैसे नियम हैं जो बच्चे को हिंदी, विज्ञान, संस्कृत पढने से वंचित कर रहे हैं । 1998 से लेकर आज दिनांक तक जो भर्ती हुई है वो विज्ञान, भाषा के आधार पर हुई हैं । पर अब अचानक नियम बनाकर दुहाई दी जा रही है की विज्ञान वाला गणित नहीं पढ़ा सकता । तो क्या अभी तक कमिशनर पढ़ा रहा था स्कूल जाकर?
खोखले आदेश, दोगली व्यवस्था को बदलकर ही शिक्षा को बचाया जा सकता है । वर्ना आने वाली पीढ़ी कभी माफ नहीं करेंगी हमें ।
अंतिम स्थिति संविलियन है ।(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार है)
                        

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