Monday, December 19, 2016

शिक्षा विभाग में संविलियन के नारे पर विचार होना चाहिए.-रिजवान खान (बैतूल)


कल दिनांक 18.12.2016 की बैठक में अध्यापक संघर्ष समिति ने शिक्षा विभाग में संविलियन मुख्य मांग घोषित कर इस दिशा में निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर दिया है. शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग शिक्षाकर्मी आंदोलन की शुरुवाती मांगो में से एक है. संविलियन ही एकमात्र रास्ता है जिससे अध्यापको की समस्त समस्याओ का अंत हो सकता है. आज इसी विषय पर एक सारगर्भित पोस्ट अजीत पाल यादव जी ने लिखी है जिसमे उन्होंने संविलियन और उसका प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर समग्र प्रभाव की सटीक विवेचना की है.
         यह सच है की संविलियन से अध्यापको की लगभग सभी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाएँगी किन्तु शासन के साथ पूर्व का अनुभव और अधिकारियो का अध्यापको के प्रति नकारात्मक रुख मुझे संविलियन पर शंका करने का पर्याप्त आधार प्रदान करता है. 1997 में सुप्रीम कोर्ट में शिक्षाकर्मियों सम्बन्धी हलफनामे में वेतन का कॉलम खाली छोड़ने से इस धोखेबाजी की शुरुवात हुई थी जो आज गणना पत्रक में अध्यापक और वरिष्ठ अध्यापक के वेतन की दसवी स्टेप एक समान 13160 पर बनांकर निरन्तर जारी है.
कहने का तातपर्य यह की संविलियन का हाल भी वर्तमान छठे वेतन जैसा ना हो जाय जिसपर नित नाना प्रकार के प्रयोग अधिकारी कर रहे है. 1994 में शिक्षक संवर्ग को मृत संवर्ग घोषित किया जा चुका है जो की 2025 तक लगभग समाप्त हो जायेगा. आज भी अध्यापक और नियमित शिक्षक का रेशियो 75:25 के लगभग है जो की साल दर साल घटता जायेगा. अतः  क्या आज अध्यापक आंदोलन इस स्तिथि में है जो शासन से नीति बदलवाकर उक्त संवर्ग को जीवित कर उन नियमित पदों पर अपना संविलियन करवा सके? क्या शासन आंदोलन का लाभ उठाकर अध्यापक संवर्ग को समान सेवा शर्तों के साथ यथास्तिथि शिक्षा विभाग में संविलियन तो नही कर देगा ? क्योकि छठा वेतन देकर वह समान कार्य समान वेतन के पचड़े से मुक्त हो गया है. यदि ऐसा हुआ तो 1998 से लेकर 2005 तक भर्ती अध्यापको का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा क्योकि उसके साथ चिपकी विसंगतियां शिक्षा विभाग में भी चली आयेगी.
        विदित हो की त्रि स्तरीय पंचायती राज के प्रावधानों के तहद 1994 से ही शिक्षा स्थानीय निकाय को सौपी जा चुकी है जिसके अंतर्गत केवल भर्ती का कार्य ही निकायों द्वारा किया गया है अतः यदि अध्यापक ही उक्त विभाग से चला जायेगा तब पंचायती राज की क्या उपयोगिता बचेगी ? क्या प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व में इतनी इच्छा शक्ति है जो की वह संसद में पारित कानून के विपरीत जाकर कार्य कर सके ? क्या अध्यापको के ग्यारह के लगभग संघो के नेतृत्व में वो किलर इंस्टिंक्ट है जो की इस दुरूह कार्य को एकता के साथ पूर्ण कर सके ? 18 वर्षो का अनुभव इसके विपरीत है.
           मेरा केवल एक अनुरोध सभी संघ संगठनो से है की समान कार्य समान वेतन के झुनझुने से खेलते हुए आज अध्यापको की आधी से अधिक सेवा होने को आई है यदि शिक्षा विभाग में संविलियन से अधिकारियो ने खेलना शुरू किया तो दस वर्ष और निकल जायेंगे. इन सबके बीच अध्यापको की एक पूरी पीढ़ी अपने नसीब को कोसती शोषण का शिकार होते होते रिटायर हो जायेगी. अतः संविलियन को मात्र एक नारा मात्र ना बनाया जाय बल्कि इसको लेकर स्पष्ट निति घोषित की जाय.
पुनश्च: - शिक्षाकर्मी भूले नही है जब 2007 में संविलियन के नाम एक विभाग के नियमित कर्मचारी होकर उसी विभाग में नए पदनाम से संविलियन हुआ था, इतिहास में सर्वथा पहली बार ऐसा हुआ होगा.
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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Monday, December 19, 2016

शिक्षा विभाग में संविलियन के नारे पर विचार होना चाहिए.-रिजवान खान (बैतूल)


कल दिनांक 18.12.2016 की बैठक में अध्यापक संघर्ष समिति ने शिक्षा विभाग में संविलियन मुख्य मांग घोषित कर इस दिशा में निर्णायक लड़ाई का ऐलान कर दिया है. शिक्षा विभाग में संविलियन की मांग शिक्षाकर्मी आंदोलन की शुरुवाती मांगो में से एक है. संविलियन ही एकमात्र रास्ता है जिससे अध्यापको की समस्त समस्याओ का अंत हो सकता है. आज इसी विषय पर एक सारगर्भित पोस्ट अजीत पाल यादव जी ने लिखी है जिसमे उन्होंने संविलियन और उसका प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पर समग्र प्रभाव की सटीक विवेचना की है.
         यह सच है की संविलियन से अध्यापको की लगभग सभी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाएँगी किन्तु शासन के साथ पूर्व का अनुभव और अधिकारियो का अध्यापको के प्रति नकारात्मक रुख मुझे संविलियन पर शंका करने का पर्याप्त आधार प्रदान करता है. 1997 में सुप्रीम कोर्ट में शिक्षाकर्मियों सम्बन्धी हलफनामे में वेतन का कॉलम खाली छोड़ने से इस धोखेबाजी की शुरुवात हुई थी जो आज गणना पत्रक में अध्यापक और वरिष्ठ अध्यापक के वेतन की दसवी स्टेप एक समान 13160 पर बनांकर निरन्तर जारी है.
कहने का तातपर्य यह की संविलियन का हाल भी वर्तमान छठे वेतन जैसा ना हो जाय जिसपर नित नाना प्रकार के प्रयोग अधिकारी कर रहे है. 1994 में शिक्षक संवर्ग को मृत संवर्ग घोषित किया जा चुका है जो की 2025 तक लगभग समाप्त हो जायेगा. आज भी अध्यापक और नियमित शिक्षक का रेशियो 75:25 के लगभग है जो की साल दर साल घटता जायेगा. अतः  क्या आज अध्यापक आंदोलन इस स्तिथि में है जो शासन से नीति बदलवाकर उक्त संवर्ग को जीवित कर उन नियमित पदों पर अपना संविलियन करवा सके? क्या शासन आंदोलन का लाभ उठाकर अध्यापक संवर्ग को समान सेवा शर्तों के साथ यथास्तिथि शिक्षा विभाग में संविलियन तो नही कर देगा ? क्योकि छठा वेतन देकर वह समान कार्य समान वेतन के पचड़े से मुक्त हो गया है. यदि ऐसा हुआ तो 1998 से लेकर 2005 तक भर्ती अध्यापको का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा क्योकि उसके साथ चिपकी विसंगतियां शिक्षा विभाग में भी चली आयेगी.
        विदित हो की त्रि स्तरीय पंचायती राज के प्रावधानों के तहद 1994 से ही शिक्षा स्थानीय निकाय को सौपी जा चुकी है जिसके अंतर्गत केवल भर्ती का कार्य ही निकायों द्वारा किया गया है अतः यदि अध्यापक ही उक्त विभाग से चला जायेगा तब पंचायती राज की क्या उपयोगिता बचेगी ? क्या प्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व में इतनी इच्छा शक्ति है जो की वह संसद में पारित कानून के विपरीत जाकर कार्य कर सके ? क्या अध्यापको के ग्यारह के लगभग संघो के नेतृत्व में वो किलर इंस्टिंक्ट है जो की इस दुरूह कार्य को एकता के साथ पूर्ण कर सके ? 18 वर्षो का अनुभव इसके विपरीत है.
           मेरा केवल एक अनुरोध सभी संघ संगठनो से है की समान कार्य समान वेतन के झुनझुने से खेलते हुए आज अध्यापको की आधी से अधिक सेवा होने को आई है यदि शिक्षा विभाग में संविलियन से अधिकारियो ने खेलना शुरू किया तो दस वर्ष और निकल जायेंगे. इन सबके बीच अध्यापको की एक पूरी पीढ़ी अपने नसीब को कोसती शोषण का शिकार होते होते रिटायर हो जायेगी. अतः संविलियन को मात्र एक नारा मात्र ना बनाया जाय बल्कि इसको लेकर स्पष्ट निति घोषित की जाय.
पुनश्च: - शिक्षाकर्मी भूले नही है जब 2007 में संविलियन के नाम एक विभाग के नियमित कर्मचारी होकर उसी विभाग में नए पदनाम से संविलियन हुआ था, इतिहास में सर्वथा पहली बार ऐसा हुआ होगा.
(लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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