श्रीराम राठौर - 1995 के बाद से ही शिक्षकों की भर्ती पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग को सौंपी दी गई थी, 1998 के बाद से पंचायतो ने सरकारी नियमानुसार शिक्षाकर्मी गुरूजी तथा संविदा शिक्षको की भर्तियाँ की गयी, जिनमे शिक्षको की विभिन्न श्रेणीयो वाले शिक्षाकर्मी संविदा शिक्षक वर्ग 1,2,3 एवं गुरूजी आदि शिक्षक के रूप में थे। बाद में सरकार ने पंचायती नियमो एवं अर्थव्यवस्था का हवाला देकर नियमित शिक्षकों के वेतन की अपेक्षा अति न्यूनतम वेतन देकर शिक्षाकर्मीयों एवं अन्य प्रकार के शिक्षको का भरपूर शोषण किया ।बिडम्बना यह थी की हमारे साथियो का वेतन चपरासी से भी अत्यधिक कम था। शिक्षाकर्मीयों संविदा शिक्षको व गुरुजियो का मानदेय उस समय वेतन न होकर मानदेय था, जबकि नियमित शिक्षको को चौथा,पांचवाँ और छटवां वेतनमान दिया जा रहा था।मुझे अच्छे से याद है एक समय था जब हमारे वर्ग 03 वाले शिक्षाकर्मी साथियो की तो 2256 के नाम से समुदाय में पहचान ही बन गई थी। और हमारा साथी न्यूनतम मानदेय की इस स्तिथि के कारण जीवन यापन के अन्य स्त्रोत भी तलाशने में लगा था। हमारे साथियो की ख़राब स्थिति यही नहीं रुकी सरकारों की दमनकारी और शोषण की निति के खिलाफ आख़िरकार हमारे साथियो ने आन्दोलन की राह पकड़ी काफ़ी संघर्ष और आन्दोलन के बाद 2007 में म.प्र. सरकार ने फिर राष्ट्रनिर्माताओ को एकबार फिर छलते हुए अध्यापक संवर्ग का गठन किया जिसमे हमारी जायज मांगों के फलस्वरूप हमें सिर्फ नाम ही मिला हमारी मेहनत का दाम नहीं।
आज तक भी आम अध्यापक छटवे वेतनमान की लड़ाई लड़ रहा है और अन्य शिक्षकों को सातवां वेतनमान मिलने वाला है । 1995 के बाद से ही सरकारों के शोषण का प्रतिफल यह हुआ की शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता में कमी आती गई तथा न्यूनतम वेतन तथा विभाग में छोटे बड़े,कम ज्यादा,स्थायी अस्थायी और विभिन्न नामो श्रेणियों में बंटने के कारण कही न कही इन सब बातों का प्रभाव शिक्षक की मानसिकता पर भी पड़ा। उसके बाद शिक्षा के स्तर में थोड़ी बहुत गिरावट तो आना स्वभाभिक ही थी, स्तर की इस गिरावट को और ज्यादा बड़ी खाई बनाने का काम किया सरकारों के विभाग पर,शिक्षको पर विभिन्न नित नए प्रयोगों और लाल फीताशाही ने, जिनके कारण आम अध्यापक आज तक ठगा जा रहा है तथा अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत है।
अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत अध्यापक तो आज भी शिक्षातंत्र की भलाई के लिए सोंचते हुये शिक्षा का बेड़ा पार लगाते हुये नन्हे-मुन्हो का भविष्य संवारना चाहता है और अपने मूल कर्तव्य राष्ट्र निर्माता की भूमिका को बखूबी निभाना चाहता है...
पर सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग यह समझ ले की आम अध्यापको के बेड़ापार से ही शिक्षातंत्र का बेड़ापार होगा अन्यथा नैनिहालो के भविष्य के लिए यदि कोई जबाबदार होगा तो सिर्फ और सिर्फ सरकार ही होगी.....
अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत अध्यापक तो आज भी शिक्षातंत्र की भलाई के लिए सोंचते हुये शिक्षा का बेड़ा पार लगाते हुये नन्हे-मुन्हो का भविष्य संवारना चाहता है और अपने मूल कर्तव्य राष्ट्र निर्माता की भूमिका को बखूबी निभाना चाहता है...
पर सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग यह समझ ले की आम अध्यापको के बेड़ापार से ही शिक्षातंत्र का बेड़ापार होगा अन्यथा नैनिहालो के भविष्य के लिए यदि कोई जबाबदार होगा तो सिर्फ और सिर्फ सरकार ही होगी.....
जय हिन्द साथियो......
( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके निजी विचार हैं " १९९८ के बाद नियुक्त शिक्षको का शिक्षा पर और स्वय उनके जिवन पर प्रभाव " विषय पर 2 दिवसीय विमर्श में प्रथम स्थान पर इस रचना को रखा गया )
( लेखक स्वय अध्यापक है और यह उनके निजी विचार हैं " १९९८ के बाद नियुक्त शिक्षको का शिक्षा पर और स्वय उनके जिवन पर प्रभाव " विषय पर 2 दिवसीय विमर्श में प्रथम स्थान पर इस रचना को रखा गया )
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