सिर्फ अध्यापको के लिए भाग एक
ढाई हजार का शिक्षाकर्मी, पच्चीस हजार का अध्यापक बनकर थोड़ी राहत महसूस कर रहा है तो इसका श्रेय 100 से अधिक जुझारू, लड़ाकू अध्यापकों के दिमागों को जाता है, जिन्होंने ठोस योजना बनाकर आंदोलन खड़े किए, जीतने की रणनीति बनाई और संघर्ष में कूदेे, देखते ही देखते लाखों अध्यापक उनके पीछे खड़ा हो गया। यह इसलिए संभव हुआ कि पिछले आंदोलनों का मकसद सिर्फ जीतना था, सरकार की चौखट नापना नहीं। किसी भी आंदोलन की गंभीरता उसके मांगपत्र से पता चलती है। 2002 से 2013 तक के मांगपत्रों के अध्यायन पर पता चलेगा कि पूर्व के आंदोलन बेहतरीन दिमागों की देखरेख में चले थे, जिस कारण जीत भी मिलती रही थी। आखिरी जीत 2013 की थी, जिसमें सरकार समान काम-समान वेतन के फार्मूले के तहत अंतरिम राहत देने को मजबूर हुई। (हालांकि यहां भी कुछ गलतिया हुईं, जिनका जिक्र अब जरूरी नहीं है।) 2013 के समझौते के अनुसार अध्यापकों को 2017 में शिक्षकों के समान वेतन मिलना निश्चित था क्योंकि सरकार समझोते से बंधी थी।
बेलगाम होती जा रही है सरकार
2015 के दिशाहीन आंदोलन ने सरकार को इस समझौते से आजाद कर दिया। हालांकि भरत पटेल ने 2015 में अनुभवी लोगों का साथ लिया होता तो वे उस आंदोलन को संविलियन में बदल सकते थे, जो पिछली जीतों से बढ़ी जीत होती। 2013 के समझौते से मुक्त होकर सरकार बेलगाम हो गई और वह सालभर से छठवें वेतनमान को लटकाए हुए है। बार-बार गणनापत्रक में विसंगतियां छोड़ी गई हैं, इसके पीछे सरकार की मंशा है कि अध्यापकों के नेता उनकी चौखट पर नाक रगड़ें और फिर वह टुकड़ा डालकर अहसान करे। ऐसी ही स्थिति सरकार और अध्यापक नेताओं के बीच बनती दिख रही है। जनवरी 2016 में मिलने वाला छठवां वेतनमान दिसंबर 2016 तक भी नहीं मिला है, तब भी कोई सरकार को माला पहनाने के लिए उतावला हो, तो समझिए सरकार और माला पहनाने वाले की नियत में खोट है।
प्रधानमंत्री से मिले शिक्षाकर्मी, तब जाकर जीते
चूंकि मैं इनके आंदोलनों का हिस्सा रहा हूं। 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने वाले शिक्षाकर्मियों के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का एक सदस्य मैं भी था। प्रधानमंत्री से 30 मिनट चर्चा हुई। तर्कों के साथ शिक्षाकर्मियों की मांगों को रखा गया और प्रधानमंत्री को भी यह कहना पड़ा था कि वाकई अन्याय हो रहा है, इसे दूर कराया जाएगा। तीन दिन तक दिल्ली के संसद मार्ग पर कब्जा करके बैठे शिक्षाकर्मी तभी लौटे जब उन्हें भरोसा हो गया कि उनका वेतन बढ़ेगा। केंद्र सरकार ने मप्र सरकार से कहा कि शिक्षाकर्मियों को वेतनमान दिया जाए और उन्हें पेंशन स्कीम में शामिल किया जाए। मप्र सरकार ने यहां भी शिक्षाकर्मियों के साथ धोखा किया। बाबूलाल गौर के हटने के बाद शिवराज सिंह मुख्यमंत्री बने। उन्होंने शर्त लगा दी कि वेतन तभी बढ़ाया जाएगा, जब शिक्षाकर्मी सम्मान करें। 2007 में शिक्षाकर्मी पंचायत बुलाई गई, जिसमें शिक्षाकर्मियों को अध्यापक संवर्ग नाम दिया मिला।
शिवराज सिंह ने लगातार किया धोखा
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर 2005 में शिक्षाकर्मियों को नया संवर्ग और वेतनमान के रूप में बढ़ी जीत मिली थी। एकमुश्त 30 प्रतिशत डीए तो बाबूलाल गौर की सरकार ने तत्काल बढ़ा भी दिया था और संवर्ग और वेतनमान पर शिक्षा विभाग ने काम शुरू कर दिया था। तब यह चर्चा थी कि 2006 में कर्मचारियों को मिलने वाले छठवें वेतनमान जैसा वेतनमान शिक्षाकर्मियों के बनने वाले संवर्ग को देगी। उस वक्त हर अधिकारी ऐसे ही संकेत भी देते थे, लेकिन बाबूलाल गौर के हटने के बाद मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान ने बड़ा धोखा किया। उन्होंने संवर्ग तो बनाया, लेकिन वेतनमान में धोखा दे दिया। चूंकि इसकी घोषणा शिवराज सिंह ने 50 हजार से अधिक शिक्षाकर्मियों की पंचायत में की थी, यहां सीएम ने लच्छेदार भाषण में वे यह कहकर चले गए कि अभी तो यह शुरूआत है, आगे वह सब देंगे जो मांग रहे हैं। शिक्षाकर्मी पंचायत के बाद सरकार ने शिक्षाकर्मियों की घेराबंदी कर दी, उनके नेतृत्व में सेंध लगानी शुरू कर दी, अंतत: शिवराज सिंह इसमें सफल हुए और शिक्षाकर्मी, अध्यापक बनकर अब भी ठगा हुआ बैठा है।
संविदाशिक्षकों के साथ होने वाला था धोखा
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शिक्षाकर्मियों के लिए संवर्ग बनाना चाहते थे और संविदा शिक्षकों को इससे अलग रखना चाहते थे। इसकी जानकारी 2006 में मंत्रालयों से बाहर भी आ गई थी। मैंने इसे गंभीरता से लिया और मुरलीधर पाटीदार को इसका विरोध करने के लिए कहा। सरकार से यह कहा गया कि एक ही संवर्ग बनाएं, जिसमें शिक्षाकर्मी और संविदा शिक्षक दोनों को रखा जाए। शिवराज सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे, तब सितंबर 2006 में सरकार को आंदोलन की चेतावनी दी गई। अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर तीन महीने बातचीत चली, जब शिवराज सिंह नहीं माने तो जनवरी 2007 से 2005 जैसा ही आंदोलन करने की घोषणा की गई। आंदोलन की इस घोषणा से सरकार डर गई थी, उसकी तरफ से खबर आई कि शिक्षाकर्मी पंचायत की तारीख घोषित करें, शिक्षाकर्मी एवं संविदा शिक्षक के लिए एक ही संवर्ग बनाया जाएगा। इस तरह 2007 में शिक्षाकर्मी और संविदा शिक्षक दोनों अध्यापक बन गए। यह सीएम की चौखट चूमने से नहीं बल्कि सरकार को आंख दिखाने से मिला है और आगे भी तभी मिलेगा, जब आंख दिखाओगे।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)
ढाई हजार का शिक्षाकर्मी, पच्चीस हजार का अध्यापक बनकर थोड़ी राहत महसूस कर रहा है तो इसका श्रेय 100 से अधिक जुझारू, लड़ाकू अध्यापकों के दिमागों को जाता है, जिन्होंने ठोस योजना बनाकर आंदोलन खड़े किए, जीतने की रणनीति बनाई और संघर्ष में कूदेे, देखते ही देखते लाखों अध्यापक उनके पीछे खड़ा हो गया। यह इसलिए संभव हुआ कि पिछले आंदोलनों का मकसद सिर्फ जीतना था, सरकार की चौखट नापना नहीं। किसी भी आंदोलन की गंभीरता उसके मांगपत्र से पता चलती है। 2002 से 2013 तक के मांगपत्रों के अध्यायन पर पता चलेगा कि पूर्व के आंदोलन बेहतरीन दिमागों की देखरेख में चले थे, जिस कारण जीत भी मिलती रही थी। आखिरी जीत 2013 की थी, जिसमें सरकार समान काम-समान वेतन के फार्मूले के तहत अंतरिम राहत देने को मजबूर हुई। (हालांकि यहां भी कुछ गलतिया हुईं, जिनका जिक्र अब जरूरी नहीं है।) 2013 के समझौते के अनुसार अध्यापकों को 2017 में शिक्षकों के समान वेतन मिलना निश्चित था क्योंकि सरकार समझोते से बंधी थी।
बेलगाम होती जा रही है सरकार
2015 के दिशाहीन आंदोलन ने सरकार को इस समझौते से आजाद कर दिया। हालांकि भरत पटेल ने 2015 में अनुभवी लोगों का साथ लिया होता तो वे उस आंदोलन को संविलियन में बदल सकते थे, जो पिछली जीतों से बढ़ी जीत होती। 2013 के समझौते से मुक्त होकर सरकार बेलगाम हो गई और वह सालभर से छठवें वेतनमान को लटकाए हुए है। बार-बार गणनापत्रक में विसंगतियां छोड़ी गई हैं, इसके पीछे सरकार की मंशा है कि अध्यापकों के नेता उनकी चौखट पर नाक रगड़ें और फिर वह टुकड़ा डालकर अहसान करे। ऐसी ही स्थिति सरकार और अध्यापक नेताओं के बीच बनती दिख रही है। जनवरी 2016 में मिलने वाला छठवां वेतनमान दिसंबर 2016 तक भी नहीं मिला है, तब भी कोई सरकार को माला पहनाने के लिए उतावला हो, तो समझिए सरकार और माला पहनाने वाले की नियत में खोट है।
प्रधानमंत्री से मिले शिक्षाकर्मी, तब जाकर जीते
चूंकि मैं इनके आंदोलनों का हिस्सा रहा हूं। 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने वाले शिक्षाकर्मियों के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का एक सदस्य मैं भी था। प्रधानमंत्री से 30 मिनट चर्चा हुई। तर्कों के साथ शिक्षाकर्मियों की मांगों को रखा गया और प्रधानमंत्री को भी यह कहना पड़ा था कि वाकई अन्याय हो रहा है, इसे दूर कराया जाएगा। तीन दिन तक दिल्ली के संसद मार्ग पर कब्जा करके बैठे शिक्षाकर्मी तभी लौटे जब उन्हें भरोसा हो गया कि उनका वेतन बढ़ेगा। केंद्र सरकार ने मप्र सरकार से कहा कि शिक्षाकर्मियों को वेतनमान दिया जाए और उन्हें पेंशन स्कीम में शामिल किया जाए। मप्र सरकार ने यहां भी शिक्षाकर्मियों के साथ धोखा किया। बाबूलाल गौर के हटने के बाद शिवराज सिंह मुख्यमंत्री बने। उन्होंने शर्त लगा दी कि वेतन तभी बढ़ाया जाएगा, जब शिक्षाकर्मी सम्मान करें। 2007 में शिक्षाकर्मी पंचायत बुलाई गई, जिसमें शिक्षाकर्मियों को अध्यापक संवर्ग नाम दिया मिला।
शिवराज सिंह ने लगातार किया धोखा
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर 2005 में शिक्षाकर्मियों को नया संवर्ग और वेतनमान के रूप में बढ़ी जीत मिली थी। एकमुश्त 30 प्रतिशत डीए तो बाबूलाल गौर की सरकार ने तत्काल बढ़ा भी दिया था और संवर्ग और वेतनमान पर शिक्षा विभाग ने काम शुरू कर दिया था। तब यह चर्चा थी कि 2006 में कर्मचारियों को मिलने वाले छठवें वेतनमान जैसा वेतनमान शिक्षाकर्मियों के बनने वाले संवर्ग को देगी। उस वक्त हर अधिकारी ऐसे ही संकेत भी देते थे, लेकिन बाबूलाल गौर के हटने के बाद मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान ने बड़ा धोखा किया। उन्होंने संवर्ग तो बनाया, लेकिन वेतनमान में धोखा दे दिया। चूंकि इसकी घोषणा शिवराज सिंह ने 50 हजार से अधिक शिक्षाकर्मियों की पंचायत में की थी, यहां सीएम ने लच्छेदार भाषण में वे यह कहकर चले गए कि अभी तो यह शुरूआत है, आगे वह सब देंगे जो मांग रहे हैं। शिक्षाकर्मी पंचायत के बाद सरकार ने शिक्षाकर्मियों की घेराबंदी कर दी, उनके नेतृत्व में सेंध लगानी शुरू कर दी, अंतत: शिवराज सिंह इसमें सफल हुए और शिक्षाकर्मी, अध्यापक बनकर अब भी ठगा हुआ बैठा है।
संविदाशिक्षकों के साथ होने वाला था धोखा
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शिक्षाकर्मियों के लिए संवर्ग बनाना चाहते थे और संविदा शिक्षकों को इससे अलग रखना चाहते थे। इसकी जानकारी 2006 में मंत्रालयों से बाहर भी आ गई थी। मैंने इसे गंभीरता से लिया और मुरलीधर पाटीदार को इसका विरोध करने के लिए कहा। सरकार से यह कहा गया कि एक ही संवर्ग बनाएं, जिसमें शिक्षाकर्मी और संविदा शिक्षक दोनों को रखा जाए। शिवराज सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे, तब सितंबर 2006 में सरकार को आंदोलन की चेतावनी दी गई। अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर तीन महीने बातचीत चली, जब शिवराज सिंह नहीं माने तो जनवरी 2007 से 2005 जैसा ही आंदोलन करने की घोषणा की गई। आंदोलन की इस घोषणा से सरकार डर गई थी, उसकी तरफ से खबर आई कि शिक्षाकर्मी पंचायत की तारीख घोषित करें, शिक्षाकर्मी एवं संविदा शिक्षक के लिए एक ही संवर्ग बनाया जाएगा। इस तरह 2007 में शिक्षाकर्मी और संविदा शिक्षक दोनों अध्यापक बन गए। यह सीएम की चौखट चूमने से नहीं बल्कि सरकार को आंख दिखाने से मिला है और आगे भी तभी मिलेगा, जब आंख दिखाओगे।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)
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