सिर्फ अध्यापको के लिए भाग 2
शिक्षाकर्मियों का आंदोलन चरम पर था। मप्र के कर्मचारी इनकी मिसाल देने लगे थे। जितने भी अल्पवेतनभोगी कर्मी थे, वे सभी आंदोलन कर रहे थे, मगर निराशा ही हाथ लग रही थी। उस वक्त जो आंदोलन कर रहे थे, उनमें शिक्षाकर्मियों के अलावा गुरूजी संघ एवं पंचायत सचिव प्रमुख थे। शिक्षाकर्मी जीत के करीब थे, लेकिन बाकी संगठनों ेके नेताओं में निराशा थी। तभी गुरूजी संघ के नेताओं से मुलाकात हुई। उन्होंने सहयोग मांगा। संदर्भ सिंह बघेल तब शायद अध्यक्ष थे। संदर्भ भारतीय मजदूर संघ एवं राज्य कर्मचारी संघ के ज्यादा करीब थे और उमा भारतीय से प्रभावित।
गुरूजी संघ के नेताओं से पहली मुलाकात 2004 में हुई थी, इसके बाद लगातार बातचीत होती रही। तब इनके नेताओं को दो सुझाव दिए थे। पहला, राज्य कर्मचारी संघ एवं भारतीय मजदूर संघ से दूर रहने का एवं दूसरा, नेतृत्व बदलने का।
पहला सुझाव इसलिए दिया था कि जिनसे लडऩा चाहते हो, उनके पास रहकर उनके खिलाफ आंदोलन नहीं कर सकते। पहले तो वे आंदोलन करने नहीं देंगे और करने भी देंगे तो अपनी शर्तों पर, जिसमें ज्यादा संभावना आंदोलनकारियों के हारने की होती है।
दूसरा सुझाव इसलिए दिया था कि सरकार से वही नेता लड़ सकता है, जिसमें सरकार के खिलाफ गुस्सा हो। सरकार के खिलाफ गुस्सा उसी नेता में होता है, जिसने सरकार से फायदे की उम्मीदें नहीं पाल रखी हों। चूंकि गुरूजी संघ का उस वक्त का नेतृत्व सरकार के संगठनों के जरिए सरकार के करीब था, इसीलिए गुरूजियों की जायज मांगों पर दमदारी के साथ सौदेबाजी नहीं कर पा रहा था। यही वजह रही होगी, जिस कारण गुरूजी नहीं जीत पा रहे थे।
हालांकि ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे इन सुझावों को मानेंगे। गुरूजी संघ के उस वक्त के नेतृत्व ने सुझावों को गंभीरता से लिया और दोनों ही सुझावों को मानते हुए पहले तो उन्होंने मनोज गौतम के रूप में अपना नया अध्यक्ष चुना और मनोज गौतम के अध्यक्ष बनते ही गुरूजी संघ की बैठकें बीएमएस कार्यालय में होने की वजाय नीलम पार्क में होने लगीं। इसके बाद जो होना था, वही हुआ और वे संविदा शिक्षक बन गए।
जब गुरूजी संघ के नेताओं ने दोनों सुझाव मान ही लिए थे, तब उनकी मदद करना भी जरूरी था। मुरलीधर पाटीदार को इसके लिए तैयार किया, उन्हें समझाया कि शिक्षा विभाग में संविलियन की लड़ाई को गुरूजियों के स्कूलों में आ जाने से ताकत मिलेगी। गुरूजियों के 10 सूत्रीय मांगपत्र को छोटा करके एक सूत्रीय किया गया, जिसकी मांग थी कि गुरूजियों के लिए अलग से परीक्षा लेकर संविदा शिक्षक बनाया जाए।
इसी एक मांग को लेकर चले गुरूजियों के आंदोलन का एक चरण दिल्ली रैली के रूप में भी हुआ। हजारों की संख्या में दिल्ली पहुंचे गुरूजियों को माकपा नेत्री वृंदा कारात, मुरलीधर पाटीदार ने संबोधित किया और उस वक्त के मानव संसाधन विकास मंत्री से मुलाकात हुई। एक घंटे लंबी बातचीत में मंत्रीजी को भी परीक्षा लेकर संविदा शिक्षक बनाने की मांग जायज लगी। उन्होंने कहा कि इसमें सरकार को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने मांग पूरी हो जाने का पक्का भरोसा दिलाया और गुरूजी दिल्ली से भोपाल लौट आए।
एक तरफ केंद्र सरकार का दबाव, दूसरी तरफ गुरूजियों के आंदोलन की सही दिशा ने मप्र सरकार को भी इस एक मांग को मानने को मजबूर किया। हालांकि मप्र सरकार ने अपनी आदत के अनुसार अलग से परीक्षा तो कराई, लेकिन तमाम शर्तें लगा दीं, जिस कारण कुछ गुरूजी संविदा शिक्षक बनने से वंचित भी रह गए।
बहरहाल, *जो गुरूजी मानदेय बढ़ाने के लिए लड़ रहा था, वह आज सहायक अध्यापक है।* जो संभव हुआ है आंदोलन के कारण। ऐसे आंदोलन के कारण जिसने सरकार की चौखट पर जाने की वजाय, नीलम पार्क में ठडे रहना जरूरी समझा। खैर, गुरूजी जीत गए थे, वे संविदा शिक्षक बने, अब वे सहायक अध्यापक हैं। लेकिन अब आपको मनोज गौतम का नाम सुनाई नहीं देता होगा। गुरूजियों के जीतने के बाद उनके संगठन पर फिर सरकारी संगठनों ने कब्जा कर लिया और मनोज गौतम संगठन छोडक़र पढ़ाने में लग गए।
आंदोलनकारी अतिथि शिक्षकों को गुरूजियों के पूर्व के आंदोलन से सीखना चाहिए। अतिथि शिक्षकों के लिए भी रास्ता निकल सकता है, शर्त है कि वे सरकार की जड़ पर हमला करें, उसे ईमानदारी से डराएं।
( लेखक वरिस्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं )
शिक्षाकर्मियों का आंदोलन चरम पर था। मप्र के कर्मचारी इनकी मिसाल देने लगे थे। जितने भी अल्पवेतनभोगी कर्मी थे, वे सभी आंदोलन कर रहे थे, मगर निराशा ही हाथ लग रही थी। उस वक्त जो आंदोलन कर रहे थे, उनमें शिक्षाकर्मियों के अलावा गुरूजी संघ एवं पंचायत सचिव प्रमुख थे। शिक्षाकर्मी जीत के करीब थे, लेकिन बाकी संगठनों ेके नेताओं में निराशा थी। तभी गुरूजी संघ के नेताओं से मुलाकात हुई। उन्होंने सहयोग मांगा। संदर्भ सिंह बघेल तब शायद अध्यक्ष थे। संदर्भ भारतीय मजदूर संघ एवं राज्य कर्मचारी संघ के ज्यादा करीब थे और उमा भारतीय से प्रभावित।
गुरूजी संघ के नेताओं से पहली मुलाकात 2004 में हुई थी, इसके बाद लगातार बातचीत होती रही। तब इनके नेताओं को दो सुझाव दिए थे। पहला, राज्य कर्मचारी संघ एवं भारतीय मजदूर संघ से दूर रहने का एवं दूसरा, नेतृत्व बदलने का।
पहला सुझाव इसलिए दिया था कि जिनसे लडऩा चाहते हो, उनके पास रहकर उनके खिलाफ आंदोलन नहीं कर सकते। पहले तो वे आंदोलन करने नहीं देंगे और करने भी देंगे तो अपनी शर्तों पर, जिसमें ज्यादा संभावना आंदोलनकारियों के हारने की होती है।
दूसरा सुझाव इसलिए दिया था कि सरकार से वही नेता लड़ सकता है, जिसमें सरकार के खिलाफ गुस्सा हो। सरकार के खिलाफ गुस्सा उसी नेता में होता है, जिसने सरकार से फायदे की उम्मीदें नहीं पाल रखी हों। चूंकि गुरूजी संघ का उस वक्त का नेतृत्व सरकार के संगठनों के जरिए सरकार के करीब था, इसीलिए गुरूजियों की जायज मांगों पर दमदारी के साथ सौदेबाजी नहीं कर पा रहा था। यही वजह रही होगी, जिस कारण गुरूजी नहीं जीत पा रहे थे।
हालांकि ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे इन सुझावों को मानेंगे। गुरूजी संघ के उस वक्त के नेतृत्व ने सुझावों को गंभीरता से लिया और दोनों ही सुझावों को मानते हुए पहले तो उन्होंने मनोज गौतम के रूप में अपना नया अध्यक्ष चुना और मनोज गौतम के अध्यक्ष बनते ही गुरूजी संघ की बैठकें बीएमएस कार्यालय में होने की वजाय नीलम पार्क में होने लगीं। इसके बाद जो होना था, वही हुआ और वे संविदा शिक्षक बन गए।
जब गुरूजी संघ के नेताओं ने दोनों सुझाव मान ही लिए थे, तब उनकी मदद करना भी जरूरी था। मुरलीधर पाटीदार को इसके लिए तैयार किया, उन्हें समझाया कि शिक्षा विभाग में संविलियन की लड़ाई को गुरूजियों के स्कूलों में आ जाने से ताकत मिलेगी। गुरूजियों के 10 सूत्रीय मांगपत्र को छोटा करके एक सूत्रीय किया गया, जिसकी मांग थी कि गुरूजियों के लिए अलग से परीक्षा लेकर संविदा शिक्षक बनाया जाए।
इसी एक मांग को लेकर चले गुरूजियों के आंदोलन का एक चरण दिल्ली रैली के रूप में भी हुआ। हजारों की संख्या में दिल्ली पहुंचे गुरूजियों को माकपा नेत्री वृंदा कारात, मुरलीधर पाटीदार ने संबोधित किया और उस वक्त के मानव संसाधन विकास मंत्री से मुलाकात हुई। एक घंटे लंबी बातचीत में मंत्रीजी को भी परीक्षा लेकर संविदा शिक्षक बनाने की मांग जायज लगी। उन्होंने कहा कि इसमें सरकार को कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने मांग पूरी हो जाने का पक्का भरोसा दिलाया और गुरूजी दिल्ली से भोपाल लौट आए।
एक तरफ केंद्र सरकार का दबाव, दूसरी तरफ गुरूजियों के आंदोलन की सही दिशा ने मप्र सरकार को भी इस एक मांग को मानने को मजबूर किया। हालांकि मप्र सरकार ने अपनी आदत के अनुसार अलग से परीक्षा तो कराई, लेकिन तमाम शर्तें लगा दीं, जिस कारण कुछ गुरूजी संविदा शिक्षक बनने से वंचित भी रह गए।
बहरहाल, *जो गुरूजी मानदेय बढ़ाने के लिए लड़ रहा था, वह आज सहायक अध्यापक है।* जो संभव हुआ है आंदोलन के कारण। ऐसे आंदोलन के कारण जिसने सरकार की चौखट पर जाने की वजाय, नीलम पार्क में ठडे रहना जरूरी समझा। खैर, गुरूजी जीत गए थे, वे संविदा शिक्षक बने, अब वे सहायक अध्यापक हैं। लेकिन अब आपको मनोज गौतम का नाम सुनाई नहीं देता होगा। गुरूजियों के जीतने के बाद उनके संगठन पर फिर सरकारी संगठनों ने कब्जा कर लिया और मनोज गौतम संगठन छोडक़र पढ़ाने में लग गए।
आंदोलनकारी अतिथि शिक्षकों को गुरूजियों के पूर्व के आंदोलन से सीखना चाहिए। अतिथि शिक्षकों के लिए भी रास्ता निकल सकता है, शर्त है कि वे सरकार की जड़ पर हमला करें, उसे ईमानदारी से डराएं।
( लेखक वरिस्ठ पत्रकार है और यह उनके निजी विचार हैं )
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