Sunday, December 11, 2016

अध्यापकों के लिए-4अब तो सरकार की भक्ति से बाहर निकलो -वासुदेव शर्मा


1.20 लाख स्कूलों के बंद होने की चर्चा एवं खबरों के बाद भी अध्यापक वर्तमान सरकार की भक्ति से बाहर नहीं निकलता हैं, तब उसका भगवान ही मालिक। अध्यापकों ने पूरी जवानी तंगी में गुजारी है। उनके बच्चों ने इसे झेला है। बावजूद इसके यदि अध्यापक बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंचने के बाद 30,000 में संतुष्ट हो जाता है, तब  उसे 1.20 लाख स्कूलों के बंद होने के बाद निर्मित होने वाली परिस्थति से  कोई नहीं बचा सकता। स्कूलों की संख्या कम की जाएगी, तब यह भी निश्चत है पढ़ाने वालों की संख्या भी कम की जाएगी और शिक्षक कम करने का क्रम नीचे से नहीं ऊपर से होगा,  तब आप समझ सकते हैं कि निशाने पर कौनसा अध्यापक है। सरकार यह इसलिए भी करेगी कि उसे अपने खर्चे कम करने हैं। इसीलिए जश्न मनाने की वजाय,  बड़े खतरे से निबटने के लिए चौकन्ना हो जाईए।
छंटनी जैसी तैयारी एकाएक और शोर मचाकर नहीं की जाती। इसकी तैयारी चुपचाप  सालों पहले से की जा चुकी होती है। जैसे शिक्षाकर्मी भर्ती की तैयारी 13 जून 1993 के  एम सी व्यास, उप सचिव स्कूल शिक्षा विभाग के आदेश क्रं. 73-1,93,बी-2,बीस के जरिए ग्राम शिक्षा समिति के गठन से शुरू हुई थी, इस आदेश में ग्राम शिक्षा समिति को शिक्षक रखने का अधिकार दिया गया था। यही वो आदेश था, जिसने स्कूलों में वेतन विसंगतियों को जन्म दिया और स्थाई शिक्षक के रास्ते बंद किए। इस आदेश के खिलाफ मप्र का कर्मचारी आंदोलन दो धड़ों में बंट गया था। एक धड़ा इस आदेश का विरोध कर रहा था, विरोध करने वालों में कांग्रेसी एवं वामपंथी सोच के कर्मचारी थे, जो तृतीय वर्ग कर्मचारी संघ से जुड़े थे। दूसरा धड़ा इस आदेश के समर्थन में था, जो राज्य कर्मचारी संघ एवं शिक्षक संघ के साथ था, इनका कहना था कि इससे हमारी नौकरी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
आगे चल कर इस आदेश के खिलाफ बोलने वाले वामपंथी सोच के कर्मचारी अकेले रह गए, जिसका परिणाम यह हुआ कि 30 जुलाई 1994 को ए एन तिवारी, उपसचिव के हस्ताक्षर से स्कूल शिक्षा विभाग का एक आदेश और आया, जिसमें  5,00, 700 एवं 1000 रुपए में शिक्षाकर्मी रखने के लिए कहा गया। हालांकि इसका विरोध कर रहे कर्मचारी नेताओं के दबाव में सरकार को भर्ती नियमों के पैरा-7 में यह लिखना पड़ा कि यदि उपरोक्त तीन वर्गों के कर्मीगण पांच वर्ष तक लगातार संतोषजनक सेवा कर लेते हैं तो राज्य शासन एक चयन प्रक्रिया अपना कर इन्हें रिक्त पद के विरुद्ध शासकीय सेवा में नियमित नियुक्ति देने पर विचार कर सकता है। ( ध्यान रहे गुरूजियों की परीक्षा इसी नियम के तहत ली गई थी और उन्हें संविदा शिक्षक बनाया गया।) बहरहाल, सरकार ने शिक्षाकर्मियों को पांच साल पूरे नहीं करने दिए और  1998 में  नए नियम बनाकर नई नियुक्ति दी गई। यह शिक्षाकर्मियों से पहला धोखा था, जिसमें उन्हें नियमानुसार 2000 में शिक्षक बन जाने से रोका गया।
शुरू में ही बता दें कि 1998 के शिक्षाकर्मी भर्ती नियम भी बेहतर थे, जो उन्हें भर्ती के साथ पांचवें वेतनमान का अधिकार देते हैं, लेकिन ले नहीं पाए, तो यह कहीं न कहीं गलती हुई है। 20 जनवरी 98 को आर पी वर्मा, अवर सचिव के हस्ताक्षर से निकले स्कूल शिक्षा विभाग के आदेश में शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति  शिक्षाकर्मी-1 को 1200-2000, शिक्षाकर्मी-2 को 1000-1600 एवं शिक्षाकर्मी-3 को 800-1200 वेतनमान में की गई और इन्हें 182 प्रतिशत महंगाई भत्ता दिया गया साथ ही समय-समय पर शासन के स्वीकृत महंगाई भत्ते का हकदार बनाया गया।
9 मार्च 1998 को अवर सचिव आर पी वर्मा के हस्ताक्षर से संशोधित आदेश जारी हुआ जिसमें शिक्षाकर्मियों के लिए पांचवे वेतनमान की अनुमानित तालिका जारी की गई। जिसमें 182 प्रतिशत महंगाई भत्ते के साथ शिक्षाकर्मी-1 को 4000-6000, शिक्षाकर्मी-2 3500-5200 एवं शिक्षाकर्मी-3 को 2750-4400 वेतनमान देने के आदेश थे। पांचवें वेतनमान में व्याख्याता को 5500-9000, शिक्षक को 5000-8000 और सहायक शिक्षक को 4000-6000 वेतनमान था। इसी वेतन विसंगति को  समाप्त करने के लिए ही तो पहले शिक्षाकर्मी और अब अध्यापक लड़ रहा है, लेकिन अब तक सफलता नहीं मिली है, तब हमें इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि सरकारों की भक्ति से विसंगतियां समाप्त होने वाली नहीं है।
अब जरा सोचिए यदि शिक्षाकर्मियों को 1998 से ही पांचवां वेतनमान, जिसे देने के आदेश खुद सरकार ने 9 मार्च 1998 को जारी किए, मिल गया होता, तो शिक्षाकर्मी की  आज आर्थिक स्थिति कैसी होती? दिग्विजय सिंह की सरकार 1998 में शिक्षाकर्मियों को पांचवा वेतनमान देने का नियम बनाती है और शिक्षाकर्मी 1998 से ही दिग्विजय सिंह को हराने के काम में लग जाता है और 2003 में वह दिग्विजय सिंह को हरा भी देता है, तब इतना विचार तो करना ही चाहिए कि दिग्विजय सिंह को हराकर कितना बड़ा नुकसान किया है।
अंत में इतना ही अध्यापकों को जनवरी 2016 से छठवां वेतनमान लेने के लिए नहीं बल्कि 1998 से पांचवा वेतनमान लेने के लिए लडऩा होगा। यही वो लड़ाई है जिसे जीतने के बाद ही सरकारों द्वारा बर्बाद की गई अध्यापकों की जवानी का बदला लिया जा सकता है। मेरा पहली की तरह अब भी विश्वास है कि अध्यापक इस लड़ाई कोक जीत सकता है, वह 1998 से पांचवा, 2006 से छठवां और जनवरी 2016 से  सातवां वेतनमान ले सकता है, शर्त इतनी है कि लड़ाई बदला लेने
के तेवरों में लड़ी जानी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है ,और जनांदोलनों का अनुभव है )

No comments:

Post a Comment

Comments system

Sunday, December 11, 2016

अध्यापकों के लिए-4अब तो सरकार की भक्ति से बाहर निकलो -वासुदेव शर्मा


1.20 लाख स्कूलों के बंद होने की चर्चा एवं खबरों के बाद भी अध्यापक वर्तमान सरकार की भक्ति से बाहर नहीं निकलता हैं, तब उसका भगवान ही मालिक। अध्यापकों ने पूरी जवानी तंगी में गुजारी है। उनके बच्चों ने इसे झेला है। बावजूद इसके यदि अध्यापक बुढ़ापे की दहलीज पर पहुंचने के बाद 30,000 में संतुष्ट हो जाता है, तब  उसे 1.20 लाख स्कूलों के बंद होने के बाद निर्मित होने वाली परिस्थति से  कोई नहीं बचा सकता। स्कूलों की संख्या कम की जाएगी, तब यह भी निश्चत है पढ़ाने वालों की संख्या भी कम की जाएगी और शिक्षक कम करने का क्रम नीचे से नहीं ऊपर से होगा,  तब आप समझ सकते हैं कि निशाने पर कौनसा अध्यापक है। सरकार यह इसलिए भी करेगी कि उसे अपने खर्चे कम करने हैं। इसीलिए जश्न मनाने की वजाय,  बड़े खतरे से निबटने के लिए चौकन्ना हो जाईए।
छंटनी जैसी तैयारी एकाएक और शोर मचाकर नहीं की जाती। इसकी तैयारी चुपचाप  सालों पहले से की जा चुकी होती है। जैसे शिक्षाकर्मी भर्ती की तैयारी 13 जून 1993 के  एम सी व्यास, उप सचिव स्कूल शिक्षा विभाग के आदेश क्रं. 73-1,93,बी-2,बीस के जरिए ग्राम शिक्षा समिति के गठन से शुरू हुई थी, इस आदेश में ग्राम शिक्षा समिति को शिक्षक रखने का अधिकार दिया गया था। यही वो आदेश था, जिसने स्कूलों में वेतन विसंगतियों को जन्म दिया और स्थाई शिक्षक के रास्ते बंद किए। इस आदेश के खिलाफ मप्र का कर्मचारी आंदोलन दो धड़ों में बंट गया था। एक धड़ा इस आदेश का विरोध कर रहा था, विरोध करने वालों में कांग्रेसी एवं वामपंथी सोच के कर्मचारी थे, जो तृतीय वर्ग कर्मचारी संघ से जुड़े थे। दूसरा धड़ा इस आदेश के समर्थन में था, जो राज्य कर्मचारी संघ एवं शिक्षक संघ के साथ था, इनका कहना था कि इससे हमारी नौकरी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
आगे चल कर इस आदेश के खिलाफ बोलने वाले वामपंथी सोच के कर्मचारी अकेले रह गए, जिसका परिणाम यह हुआ कि 30 जुलाई 1994 को ए एन तिवारी, उपसचिव के हस्ताक्षर से स्कूल शिक्षा विभाग का एक आदेश और आया, जिसमें  5,00, 700 एवं 1000 रुपए में शिक्षाकर्मी रखने के लिए कहा गया। हालांकि इसका विरोध कर रहे कर्मचारी नेताओं के दबाव में सरकार को भर्ती नियमों के पैरा-7 में यह लिखना पड़ा कि यदि उपरोक्त तीन वर्गों के कर्मीगण पांच वर्ष तक लगातार संतोषजनक सेवा कर लेते हैं तो राज्य शासन एक चयन प्रक्रिया अपना कर इन्हें रिक्त पद के विरुद्ध शासकीय सेवा में नियमित नियुक्ति देने पर विचार कर सकता है। ( ध्यान रहे गुरूजियों की परीक्षा इसी नियम के तहत ली गई थी और उन्हें संविदा शिक्षक बनाया गया।) बहरहाल, सरकार ने शिक्षाकर्मियों को पांच साल पूरे नहीं करने दिए और  1998 में  नए नियम बनाकर नई नियुक्ति दी गई। यह शिक्षाकर्मियों से पहला धोखा था, जिसमें उन्हें नियमानुसार 2000 में शिक्षक बन जाने से रोका गया।
शुरू में ही बता दें कि 1998 के शिक्षाकर्मी भर्ती नियम भी बेहतर थे, जो उन्हें भर्ती के साथ पांचवें वेतनमान का अधिकार देते हैं, लेकिन ले नहीं पाए, तो यह कहीं न कहीं गलती हुई है। 20 जनवरी 98 को आर पी वर्मा, अवर सचिव के हस्ताक्षर से निकले स्कूल शिक्षा विभाग के आदेश में शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति  शिक्षाकर्मी-1 को 1200-2000, शिक्षाकर्मी-2 को 1000-1600 एवं शिक्षाकर्मी-3 को 800-1200 वेतनमान में की गई और इन्हें 182 प्रतिशत महंगाई भत्ता दिया गया साथ ही समय-समय पर शासन के स्वीकृत महंगाई भत्ते का हकदार बनाया गया।
9 मार्च 1998 को अवर सचिव आर पी वर्मा के हस्ताक्षर से संशोधित आदेश जारी हुआ जिसमें शिक्षाकर्मियों के लिए पांचवे वेतनमान की अनुमानित तालिका जारी की गई। जिसमें 182 प्रतिशत महंगाई भत्ते के साथ शिक्षाकर्मी-1 को 4000-6000, शिक्षाकर्मी-2 3500-5200 एवं शिक्षाकर्मी-3 को 2750-4400 वेतनमान देने के आदेश थे। पांचवें वेतनमान में व्याख्याता को 5500-9000, शिक्षक को 5000-8000 और सहायक शिक्षक को 4000-6000 वेतनमान था। इसी वेतन विसंगति को  समाप्त करने के लिए ही तो पहले शिक्षाकर्मी और अब अध्यापक लड़ रहा है, लेकिन अब तक सफलता नहीं मिली है, तब हमें इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि सरकारों की भक्ति से विसंगतियां समाप्त होने वाली नहीं है।
अब जरा सोचिए यदि शिक्षाकर्मियों को 1998 से ही पांचवां वेतनमान, जिसे देने के आदेश खुद सरकार ने 9 मार्च 1998 को जारी किए, मिल गया होता, तो शिक्षाकर्मी की  आज आर्थिक स्थिति कैसी होती? दिग्विजय सिंह की सरकार 1998 में शिक्षाकर्मियों को पांचवा वेतनमान देने का नियम बनाती है और शिक्षाकर्मी 1998 से ही दिग्विजय सिंह को हराने के काम में लग जाता है और 2003 में वह दिग्विजय सिंह को हरा भी देता है, तब इतना विचार तो करना ही चाहिए कि दिग्विजय सिंह को हराकर कितना बड़ा नुकसान किया है।
अंत में इतना ही अध्यापकों को जनवरी 2016 से छठवां वेतनमान लेने के लिए नहीं बल्कि 1998 से पांचवा वेतनमान लेने के लिए लडऩा होगा। यही वो लड़ाई है जिसे जीतने के बाद ही सरकारों द्वारा बर्बाद की गई अध्यापकों की जवानी का बदला लिया जा सकता है। मेरा पहली की तरह अब भी विश्वास है कि अध्यापक इस लड़ाई कोक जीत सकता है, वह 1998 से पांचवा, 2006 से छठवां और जनवरी 2016 से  सातवां वेतनमान ले सकता है, शर्त इतनी है कि लड़ाई बदला लेने
के तेवरों में लड़ी जानी चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है ,और जनांदोलनों का अनुभव है )

No comments:

Post a Comment