Friday, December 9, 2016

आंदोलनकारियों के लिए-3 .......आंदोलन से नेता बनते हैं और चापलूसी से .......... ?- वासुदेव शर्मा


आंदोलनों के महत्व को कम करने के लिए सरकार ने अपने पाले हुए लोगों से स्वागत, सम्मान की परंपरा शुरू कराई।  पंचायत सचिवों के नेता ने इससे आगे जाकर मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को खून से तौलने की नई परिपाटी शुरू की। इससे नुकसान यह हुआ कि सरकार ने आंदोलनों की आवाज को सुनना बंद कर दिया और जयकारे लगाने वालों को पुचकारने लगी, उनकी पीठ पर हाथ रखकर दलाल बना लिया और उन्हें चुनावों में प्रचार में इस्तेमाल कर लगी। पिछले 10-12 साल में पंचायत सचिव संगठन की ओर से 10-12 बार सरकार के मुखिया को खून से तौला गया, लेकिन इसके बदले मिला क्या?  1995 के पंचायत सचिव को 15,000 हजार और 2008 के बाद वाले को 8000 से 11000 रुपए महीना वेतन मिलता है। यह किस श्रेणी के कर्मचारी हैं, यह अब तक तय नहीं हो पाया है, जबकि यही तय कराने के लिए पंचायत सचिव संगठन के अध्यक्ष दिनेश शर्मा 10-12 बार मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को खून से तौल चुके हैं।
अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर पंचायत सचिवों का 15.000 रुपए वेतन कैसे हो गया? इसका सीधा सा जबाव है कि पंचायत सचिवों का वेतन तभी  बढ़ा था, जब वे ईमानदारी से लड़े थे। जब शिक्षाकर्मियों के आंदोलन ने जीतना शुरू किया तो दूसरे संगठनों से जुड़े लोगों की इच्छाएं भी जीतने की हुईं, उन्होंने संगठन के नेताओं पर किसी भी कीमत पर जीतने का दबाव बनाया। पंचायत सचिव संगठन में भी दर्जनों पंचायत सचिव ऐसे निकलकर सामने आए, जो सरकार से लडक़र जीतना चाहते थे। पंचायत सचिवों की इस टीम ने तय किया कि वे भी शिक्षाकर्मियों की तरह ईमानदारी से आंदोलन करेंगे, फिर इसके लिए भले ही नौकरी ही क्यों न गंवाना पड़े। जब इन्होंने लडऩे का तय कर लिया, तब हमें भी इनका साथ देना ही पड़ा। भोपाल में लगातार आंदोलन करते रहने के बाद भी हल नहीं निकला, तब एक दिन दिल्ली जा धमके। संख्या 10 हजार के करीब थी। पूरा जंतन-मंतर भरा गया था। जोश और उत्साह से भरे पंचायत सचिवों को माकपा नेत्री बृंदा कारात सहित कई राष्ट्रीय नेताओं ने संबोधित किया। चूंकि मनरेगा से जुड़ा मामला था, इसीलिए हर नेता ने गंभीरता से लिया और केंद्रीय पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री मणिशंकर अय्यर से मुलाकात कराई। आंदोलन के कारणों के बारे में केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर को विस्तार से बताया, उन्होंने भी पंचायत सचिवों को मिलने वाले वेतन पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि इससे तो मनरेगा को लागू कराने में मुश्किल होगी और उन्होंने मनरेगा की राशि से पंचायत सचिवों का वेतन बढ़वाने पक्का भरोसा दिलवाया। इसके बाद भी पंचायत सचिवों को 2250 का वेतनमान डीए का हक मिला। इस तरह पहली बार पंचायत सचिवों के वेतन में बढ़ोतरी हुई, जो डीए मिलते रहने के बाद आज 15-16 हजार रुपए तक हो गई है।
     कहना का मतलब यह है कि जब एक आंदोलन जीतने की ओर बढ़ता है, तब दूसरे आंदोलनों के भी जीतने के रास्ते बनते हैं। मप्र के शिक्षाकर्मी आंदोलन ने यह महत्वपूर्ण काम किया था, जिसके कारण मप्र ही नहीं देशभर में सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा एवं स्वास्थ्य मिशन जैसी केंद्र सरकार की योजनाओं में काम कर रहे अल्पवेतनभोगीकर्मियों के वेतन बढऩे शुरू हुए थे। अफसोस की बात यह है कि मप्र के अल्पवेतनभोगी कर्मियों के नेता यह जानते हुए भी कि आंदोलन से जीत मिली है, फिर उन्होंने आंदोलनों की पंरपरा को हाशिए पर पहुंचने के लिए स्वागत-सत्कार की परंपरा को चुना, जिसकी कीमत अब तक चुकानी पड़ रही है, खुद पंचायत सचिव अब तक अपनी श्रेणी का वर्गीकरण नहीं करवा पाए हैं, जबकि इनके नेता ने 10-12 पर सरकार को खून से तौला है।
अंत में इतना ही कि मप्र का अल्पवेतन भोगी कर्मचारी आज भी ऐसे आंदोलन की तलाश में है, जो उसके लिए जीत के रास्ते तैयार करे। यह आंदोलन अध्यापकों, पंचायत सचिवों एवं अतिथि शिक्षकों में से कौन विकसित करेगा, इसका इंतजार रहेगा।
        फिलहाल यह लोग आंदोलन की राह पर हैं, 17 दिसंबर को अतिथि शिक्षकों की भोपाल में रैली है। 20 दिसंबर से पंचायत सचिवों की कलमबंद हड़ताल प्रस्तावित है और अध्यापक भी भोपाल को घेरने की रणनीति बना ही रहे हैं यानि आने वाला समय सरकार के लिए मुश्किल का समय है।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कर्मचारी आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं )
          

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Friday, December 9, 2016

आंदोलनकारियों के लिए-3 .......आंदोलन से नेता बनते हैं और चापलूसी से .......... ?- वासुदेव शर्मा


आंदोलनों के महत्व को कम करने के लिए सरकार ने अपने पाले हुए लोगों से स्वागत, सम्मान की परंपरा शुरू कराई।  पंचायत सचिवों के नेता ने इससे आगे जाकर मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को खून से तौलने की नई परिपाटी शुरू की। इससे नुकसान यह हुआ कि सरकार ने आंदोलनों की आवाज को सुनना बंद कर दिया और जयकारे लगाने वालों को पुचकारने लगी, उनकी पीठ पर हाथ रखकर दलाल बना लिया और उन्हें चुनावों में प्रचार में इस्तेमाल कर लगी। पिछले 10-12 साल में पंचायत सचिव संगठन की ओर से 10-12 बार सरकार के मुखिया को खून से तौला गया, लेकिन इसके बदले मिला क्या?  1995 के पंचायत सचिव को 15,000 हजार और 2008 के बाद वाले को 8000 से 11000 रुपए महीना वेतन मिलता है। यह किस श्रेणी के कर्मचारी हैं, यह अब तक तय नहीं हो पाया है, जबकि यही तय कराने के लिए पंचायत सचिव संगठन के अध्यक्ष दिनेश शर्मा 10-12 बार मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को खून से तौल चुके हैं।
अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर पंचायत सचिवों का 15.000 रुपए वेतन कैसे हो गया? इसका सीधा सा जबाव है कि पंचायत सचिवों का वेतन तभी  बढ़ा था, जब वे ईमानदारी से लड़े थे। जब शिक्षाकर्मियों के आंदोलन ने जीतना शुरू किया तो दूसरे संगठनों से जुड़े लोगों की इच्छाएं भी जीतने की हुईं, उन्होंने संगठन के नेताओं पर किसी भी कीमत पर जीतने का दबाव बनाया। पंचायत सचिव संगठन में भी दर्जनों पंचायत सचिव ऐसे निकलकर सामने आए, जो सरकार से लडक़र जीतना चाहते थे। पंचायत सचिवों की इस टीम ने तय किया कि वे भी शिक्षाकर्मियों की तरह ईमानदारी से आंदोलन करेंगे, फिर इसके लिए भले ही नौकरी ही क्यों न गंवाना पड़े। जब इन्होंने लडऩे का तय कर लिया, तब हमें भी इनका साथ देना ही पड़ा। भोपाल में लगातार आंदोलन करते रहने के बाद भी हल नहीं निकला, तब एक दिन दिल्ली जा धमके। संख्या 10 हजार के करीब थी। पूरा जंतन-मंतर भरा गया था। जोश और उत्साह से भरे पंचायत सचिवों को माकपा नेत्री बृंदा कारात सहित कई राष्ट्रीय नेताओं ने संबोधित किया। चूंकि मनरेगा से जुड़ा मामला था, इसीलिए हर नेता ने गंभीरता से लिया और केंद्रीय पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री मणिशंकर अय्यर से मुलाकात कराई। आंदोलन के कारणों के बारे में केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर को विस्तार से बताया, उन्होंने भी पंचायत सचिवों को मिलने वाले वेतन पर नाखुशी जाहिर करते हुए कहा कि इससे तो मनरेगा को लागू कराने में मुश्किल होगी और उन्होंने मनरेगा की राशि से पंचायत सचिवों का वेतन बढ़वाने पक्का भरोसा दिलवाया। इसके बाद भी पंचायत सचिवों को 2250 का वेतनमान डीए का हक मिला। इस तरह पहली बार पंचायत सचिवों के वेतन में बढ़ोतरी हुई, जो डीए मिलते रहने के बाद आज 15-16 हजार रुपए तक हो गई है।
     कहना का मतलब यह है कि जब एक आंदोलन जीतने की ओर बढ़ता है, तब दूसरे आंदोलनों के भी जीतने के रास्ते बनते हैं। मप्र के शिक्षाकर्मी आंदोलन ने यह महत्वपूर्ण काम किया था, जिसके कारण मप्र ही नहीं देशभर में सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा एवं स्वास्थ्य मिशन जैसी केंद्र सरकार की योजनाओं में काम कर रहे अल्पवेतनभोगीकर्मियों के वेतन बढऩे शुरू हुए थे। अफसोस की बात यह है कि मप्र के अल्पवेतनभोगी कर्मियों के नेता यह जानते हुए भी कि आंदोलन से जीत मिली है, फिर उन्होंने आंदोलनों की पंरपरा को हाशिए पर पहुंचने के लिए स्वागत-सत्कार की परंपरा को चुना, जिसकी कीमत अब तक चुकानी पड़ रही है, खुद पंचायत सचिव अब तक अपनी श्रेणी का वर्गीकरण नहीं करवा पाए हैं, जबकि इनके नेता ने 10-12 पर सरकार को खून से तौला है।
अंत में इतना ही कि मप्र का अल्पवेतन भोगी कर्मचारी आज भी ऐसे आंदोलन की तलाश में है, जो उसके लिए जीत के रास्ते तैयार करे। यह आंदोलन अध्यापकों, पंचायत सचिवों एवं अतिथि शिक्षकों में से कौन विकसित करेगा, इसका इंतजार रहेगा।
        फिलहाल यह लोग आंदोलन की राह पर हैं, 17 दिसंबर को अतिथि शिक्षकों की भोपाल में रैली है। 20 दिसंबर से पंचायत सचिवों की कलमबंद हड़ताल प्रस्तावित है और अध्यापक भी भोपाल को घेरने की रणनीति बना ही रहे हैं यानि आने वाला समय सरकार के लिए मुश्किल का समय है।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कर्मचारी आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं )
          

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