Sunday, July 31, 2016

कारणों को समझे बिना लड़ोगे तो निराशा ही आएगी भाई- वासुदेव शर्मा छिंदवाड़ा

वासुदेव शर्मा-एक अध्यापक संघ के नेता  की पोस्ट से निराशा हुई। निराशा इसलिए भी हुई कि जिस ने, अपने नेता  की ब्रांडिग शेर की तस्वीर के साथ की, अब वही मैदान छोडऩे की बात कह रहा है।  मैं आप  की निराशा के कारणों को समझ सकता हूं। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है, जो समस्या के वास्तविक कारणों को समझे बिना उसके समाधान का रास्ता खोजते हैं। आप  को यह समझना होगा कि अध्यापकों या अन्य अस्थाई कर्मचारियों की समस्याओं के समाधान की ताकत किसी नेता में नहीं हैं, खुद मुख्यमंत्री में भी नहीं। मुख्यमंत्री भी एक-दो हजार रुपए तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन वह नहीं दे सकते, जो आप लोग चाहते हैं।
आप  या उनसे दूसरे अध्यापक नेताओं को समझना होगा कि, सरकार और उसकी पोषक विचारधारा  जिस राजनीति को आगे बढ़ाती हैं, वह सरकारी क्षेत्र को कमजोर करने वाली राजनीति हैं। सरकार  की विचारधारा समाज में असमानता को बढ़ाने वाली विचारधारा है, यह जानते हुए भी शिवराज सिंह से यह उम्मीद करना कि वे सरकारी स्कूलों को ताकतवर बनाएंगे, उनमें पढ़ाने वाले अध्यापकों, अतिथि शिक्षकों या दूसरे शिक्षकों के जीवन में निश्चिंतता लाएंगे, मूर्खता होगी।  भाई आपने संगठन बनाने से लेकर उसे चलाने के  एक-डेढ़ साल में यही गलती की कि आप सरकार के असली इरादों को नहीं समझ सके,  जिस कारण ही आप शिव चौबे एवं रमेश शर्मा जैसे सरकारी लोगो के झांसे में आकर सरकार की गोद में जा बैठे, जबकि आपको अध्यापकों ने सरकार की गोद में बैठने के लिए नहीं बल्कि उससे लड़कर जीत हासिल करने के लिए नेता माना था। इस स्थिति पर विचार किए बिना आपने तो मैदान छोडऩे की ही घोषणा कर डाली, जो न तो आपके खुद के और न ही अध्यापकों के हित में है। इसीलिए यह समय मैदान से भागने का नहीं बल्कि मैदान में डटे रहने का है। आने वाले सालों में स्थिति सुधरने की वजाय बिगड़ेगी, आज आपकी लड़ाई छठवें वेतनमान की है, कल नौकरी बचाने की लड़ाई भी तो लडऩी है।
विधानसभा के इसी सत्र में 5,000 हजार सरकारी स्कूल बंद करने की जानकारी आई है। बंद होने वाले स्कूलों की संख्या हर शिक्षण सत्र में बढ़ेगी। सरकार जिस रफ्तार से स्कूलों को बंद करने की दिशा में बढ़ रही है, उससे ऐसा लगता है कि हम लोग सरकारी स्कूलों की समाप्ति का आदेश पढ़ लेंगे। सरकार जिनके लिए काम कर रही है, उनका दबाव है कि जितनी जल्दी हो सके, सरकारी स्कूलों को कमजोर किया जाए, उन्हें अविश्वसनीय बनाया जाए, उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को नकारा-निकम्मा साबित किया जाए। सरकार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है, इसीलिए जावेद भाई आप लोगों को भोपाल में बैठने के लिए जगह नहीं दी जाती, रैली नहीं निकालने दी जाती और  आप ऐसा करने की जिद करते हैं तो खदेड़ दिए जाते हो।  कभी आपने सोचा कि लोकतंत्र में आपके पास अपनी बात कहने का जो अधिकार हैं शिवराज सिंह सरकार ने आपसे वही छीन लिया है? इसके बाद भी आप बातचीत से समस्या के समाधान की उम्मीद लगाए हो, तब निराशा होना स्वाभाविक है और आपके साथ ऐसा हुआ भी, शायद इसीलिए आपने आंदोलनों से खुद को अलग करने लेने का इशारा किया है।     
              भाई यदि आपको जीतना है तो खुलकर बोलना होगा। जिस दिन आप शिव चौबे या रमेश शर्मा जैसे लोगों को उनके मुंह पर सरकारी आदमी  कहने की हिम्मत कर लोगे, उस दिन से शिक्षाकर्मियों की तरह अध्यापकों के जीतने का सिलसिला भी शुरू हो जाएगा। ये , दो व्यक्तिभर नहीं हैं, यह लोग उस शिक्षामाफिया तंत्र की मजबूत कड़ी हैं, जो समूची सरकरी स्कूली शिक्षा को कब्जाना चाहती है। अलग-अलग नामों की हजारों शिक्षा समितियों के जरिए इन लोगों ने  निजी स्कूलों का विशाल नेटवर्क तैयार कर लिया है, जहां एक खास मकसद और खास विचारधारा की शिक्षा दी जाती है, यही वो विचारधारा है, जो सरकारी स्कूलों में ताले लगवाना चाहती है, जिससे उनके स्कूल वहां भी खुल जाएं, जहां वे अब तक नहीं पहुंचे हैं। अरे भाई, सर पर आ चुके इस खतरे को जब तक आप जैसे लोग नहीं पहचानेंगे, तब तक सरकारी स्कूलों को बचाने का रास्ता भी नहीं निकाल पाएंगे।


           2005  में शिक्षाकर्मियों का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर पचमढ़ी में हुआ था, जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डा. संजीव कुमार ने कहा था कि आप लोग वेतन बढ़ाने की मांग जितनी ताकत से उठाते हैं उतनी ही ताकत से स्कूली शिक्षा के सामने मौजूद सरकार की विचारधारा वाले स्कुल के खतरे को भी उठाना चाहिए यानि स्कूली शिक्षा के निजीकरण की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी जानी चाहिए, स्कूल रहेंगे, तो उनमें शिक्षकों की जरूरत भी रहेगी और यदि स्कूल नहीं रहे, तब क्या करेंगे ? भाई आप इस सवाल पर गंभीरता से सोचिए और आंदोलनों से खुद को दूर करने के इरादे को त्यागिए।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं,यह इनके निजी विचार हैं।)

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Sunday, July 31, 2016

कारणों को समझे बिना लड़ोगे तो निराशा ही आएगी भाई- वासुदेव शर्मा छिंदवाड़ा

वासुदेव शर्मा-एक अध्यापक संघ के नेता  की पोस्ट से निराशा हुई। निराशा इसलिए भी हुई कि जिस ने, अपने नेता  की ब्रांडिग शेर की तस्वीर के साथ की, अब वही मैदान छोडऩे की बात कह रहा है।  मैं आप  की निराशा के कारणों को समझ सकता हूं। ऐसा अक्सर उन लोगों के साथ होता है, जो समस्या के वास्तविक कारणों को समझे बिना उसके समाधान का रास्ता खोजते हैं। आप  को यह समझना होगा कि अध्यापकों या अन्य अस्थाई कर्मचारियों की समस्याओं के समाधान की ताकत किसी नेता में नहीं हैं, खुद मुख्यमंत्री में भी नहीं। मुख्यमंत्री भी एक-दो हजार रुपए तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन वह नहीं दे सकते, जो आप लोग चाहते हैं।
आप  या उनसे दूसरे अध्यापक नेताओं को समझना होगा कि, सरकार और उसकी पोषक विचारधारा  जिस राजनीति को आगे बढ़ाती हैं, वह सरकारी क्षेत्र को कमजोर करने वाली राजनीति हैं। सरकार  की विचारधारा समाज में असमानता को बढ़ाने वाली विचारधारा है, यह जानते हुए भी शिवराज सिंह से यह उम्मीद करना कि वे सरकारी स्कूलों को ताकतवर बनाएंगे, उनमें पढ़ाने वाले अध्यापकों, अतिथि शिक्षकों या दूसरे शिक्षकों के जीवन में निश्चिंतता लाएंगे, मूर्खता होगी।  भाई आपने संगठन बनाने से लेकर उसे चलाने के  एक-डेढ़ साल में यही गलती की कि आप सरकार के असली इरादों को नहीं समझ सके,  जिस कारण ही आप शिव चौबे एवं रमेश शर्मा जैसे सरकारी लोगो के झांसे में आकर सरकार की गोद में जा बैठे, जबकि आपको अध्यापकों ने सरकार की गोद में बैठने के लिए नहीं बल्कि उससे लड़कर जीत हासिल करने के लिए नेता माना था। इस स्थिति पर विचार किए बिना आपने तो मैदान छोडऩे की ही घोषणा कर डाली, जो न तो आपके खुद के और न ही अध्यापकों के हित में है। इसीलिए यह समय मैदान से भागने का नहीं बल्कि मैदान में डटे रहने का है। आने वाले सालों में स्थिति सुधरने की वजाय बिगड़ेगी, आज आपकी लड़ाई छठवें वेतनमान की है, कल नौकरी बचाने की लड़ाई भी तो लडऩी है।
विधानसभा के इसी सत्र में 5,000 हजार सरकारी स्कूल बंद करने की जानकारी आई है। बंद होने वाले स्कूलों की संख्या हर शिक्षण सत्र में बढ़ेगी। सरकार जिस रफ्तार से स्कूलों को बंद करने की दिशा में बढ़ रही है, उससे ऐसा लगता है कि हम लोग सरकारी स्कूलों की समाप्ति का आदेश पढ़ लेंगे। सरकार जिनके लिए काम कर रही है, उनका दबाव है कि जितनी जल्दी हो सके, सरकारी स्कूलों को कमजोर किया जाए, उन्हें अविश्वसनीय बनाया जाए, उनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को नकारा-निकम्मा साबित किया जाए। सरकार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है, इसीलिए जावेद भाई आप लोगों को भोपाल में बैठने के लिए जगह नहीं दी जाती, रैली नहीं निकालने दी जाती और  आप ऐसा करने की जिद करते हैं तो खदेड़ दिए जाते हो।  कभी आपने सोचा कि लोकतंत्र में आपके पास अपनी बात कहने का जो अधिकार हैं शिवराज सिंह सरकार ने आपसे वही छीन लिया है? इसके बाद भी आप बातचीत से समस्या के समाधान की उम्मीद लगाए हो, तब निराशा होना स्वाभाविक है और आपके साथ ऐसा हुआ भी, शायद इसीलिए आपने आंदोलनों से खुद को अलग करने लेने का इशारा किया है।     
              भाई यदि आपको जीतना है तो खुलकर बोलना होगा। जिस दिन आप शिव चौबे या रमेश शर्मा जैसे लोगों को उनके मुंह पर सरकारी आदमी  कहने की हिम्मत कर लोगे, उस दिन से शिक्षाकर्मियों की तरह अध्यापकों के जीतने का सिलसिला भी शुरू हो जाएगा। ये , दो व्यक्तिभर नहीं हैं, यह लोग उस शिक्षामाफिया तंत्र की मजबूत कड़ी हैं, जो समूची सरकरी स्कूली शिक्षा को कब्जाना चाहती है। अलग-अलग नामों की हजारों शिक्षा समितियों के जरिए इन लोगों ने  निजी स्कूलों का विशाल नेटवर्क तैयार कर लिया है, जहां एक खास मकसद और खास विचारधारा की शिक्षा दी जाती है, यही वो विचारधारा है, जो सरकारी स्कूलों में ताले लगवाना चाहती है, जिससे उनके स्कूल वहां भी खुल जाएं, जहां वे अब तक नहीं पहुंचे हैं। अरे भाई, सर पर आ चुके इस खतरे को जब तक आप जैसे लोग नहीं पहचानेंगे, तब तक सरकारी स्कूलों को बचाने का रास्ता भी नहीं निकाल पाएंगे।


           2005  में शिक्षाकर्मियों का दो दिवसीय प्रशिक्षण शिविर पचमढ़ी में हुआ था, जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डा. संजीव कुमार ने कहा था कि आप लोग वेतन बढ़ाने की मांग जितनी ताकत से उठाते हैं उतनी ही ताकत से स्कूली शिक्षा के सामने मौजूद सरकार की विचारधारा वाले स्कुल के खतरे को भी उठाना चाहिए यानि स्कूली शिक्षा के निजीकरण की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी जानी चाहिए, स्कूल रहेंगे, तो उनमें शिक्षकों की जरूरत भी रहेगी और यदि स्कूल नहीं रहे, तब क्या करेंगे ? भाई आप इस सवाल पर गंभीरता से सोचिए और आंदोलनों से खुद को दूर करने के इरादे को त्यागिए।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं,यह इनके निजी विचार हैं।)

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