रिज़वान खान बैतूल - हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार अध्यापक हितैषी श्री वासुदेव शर्मा एवं आस के महामंत्री जी की पोस्ट को पड़ने के बाद मन में विगत डेढ़ वर्षो का समूचा घटनाक्रम घूम उठा और ना चाहकर भी आज इस बात पर विश्वास करना पड़ रहा है की 2015 के अध्यापक आंदोलन का पटाक्षेप हो गया लगता है ! कोई कुछ कहे आंदोलन आस ने खड़ा किया था अतः अध्यापक अंत तक उसी से आस लगाये बैठे थे. उन्ही के पदाधिकारियो की पोस्ट का इन्तेजार रहता था और सोशल मीडिया पर सार्वाधिक आलोचना भी उन्ही की हुई जो स्वाभाविक है.
अब आगे क्या !
आज वर्तमान स्तिथी में सरकार की मेहरबानी से विभिन्न अध्यापक नेताओ के बीच इतनी अधिक मतभिन्नता और अविश्वास बढ़ गया है की आगे कोई सार्थक एकता होना मुश्किल है. यदि हो भी गई तो ज्यादा कुछ हासिल होना सम्भव नही क्योकि आंदोलन के सभी अस्त्रों का हमारे नेता बारी बारी उपयोग कर उनको निष्प्रभावी कर चुके है. दूसरे समाज हमारे आंदोलनों को अब मजाक से ज्यादा कुछ नही समझता है यही वह बिंदु है जिसपर सरकार हमारे ऊपर हावी हो रही है. आगे नेता एक हो भी गए तो आंदोलन हड़ताल को कोर्ट से रुकवा दिया जायेगा. अब विकल्प बेहद सीमित है.
एक रास्ता निकला था पर वो लोकप्रियता की राजनीति की भेंट चढ़ गया !
आगे की लड़ाई अब जनता को साथ लेकर ही लड़ी जा सकती है. राजनीति परसेप्शन का खेल है. आज शासन आम जनता को समझाने में सफल रहा है की अध्यापक कामचोर, सदा असंतोषी और शिक्षा की दुर्दशा के जिम्मेदार है. इसी परसेप्शन को उलटा करना होगा. शिक्षा के व्यवसायीकरण, लगातार बन्द होते सरकारी स्कूल, प्राइवेट शिक्षा माफिया की अनवरत लूट और सरकारी स्कूलों को चोर रास्ते से निजी हाथो में बेचने का प्रयास एक ज्वलन्त मुद्दा है जो जनमानस को सीधे गहरे तक प्रभावित करता है. आज आवश्यकता इसको अपने पक्ष में भुनाने की है.
इन्ही मुद्दों को लेकर राज्य अध्यापक संघ शिक्षा क्रांति यात्रा के माध्यम से समूचे प्रदेश में यात्रा कर जनता के बीच इस लड़ाई को ले जाने का प्रयास कर रहा था. प्रत्येक जिले में बुद्धिजीवी पत्रकार सम्मेलन में उपस्तिथ होते थे. अध्यापको को भी विषय का ज्ञान मिल रहा था. इन सबसे शासन के विरुद्ध एक स्थाई विरोध आम जनता में पैदा हो रहा था जो की एक प्रकार का धीमा जहर था. किन्तु खेद की बात है की विभिन्न संघो की लोकप्रियता और श्रेय की राजनीति का शिकार होकर रास ने उक्त यात्रा को स्थगित करके एक लोकप्रिय जुमला नुमा यात्रा निकाली जो सर्वथा अनुपयुक्त है.
जनता चाहेगी तो उम्मीद से बढ़कर मिल सकता है !
हम साढे तीन लाख है जो प्रदेश के गांव गांव में जनता से सीधा सम्पर्क रखते है अतः हमसे बढ़कर परसेप्शन कौन किसका बना सकता है. तुम चाणक्य के अनुयायियों का जनसम्पर्क देखना चाहते हो तो अब यही सही......... शिक्षा में नित नए प्रयोगों और निजीकरण के चलते प्रदेश में प्रदेश भर में अजीब बेचैनी का वातावरण है.अतः शिक्षको को जन सरोकार से जुड़े सामाजिक मुद्दों के लिए लड़ने का समय आ गया है. हम समाज को यह बताये की हमारी वेतन विसंगतियों और सेवा शर्तों का सीधा सम्बन्ध शिक्षा के सरोकारों से है इससे हमारी माँगो को सामाजिक स्वीकृति और वैधता मिलेगी. इस प्रकार अपने आंदोलन से समाज को जोड़कर हम सदभावना पूर्वक माहौल में अपनी मांगे मनवा सकते है क्योकि जनमत की उपेक्षा कोई भी सरकार नही कर सकती. ( मेरे नितांत निजी विचार है अतः सहमति बिलकुल भी आवश्यक नही है )
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