Monday, June 6, 2016

एक अध्यापक के मन में उपजने वाली जिज्ञास - राशी राठौर देवास

राशी  राठौर  देवास
         क्या हम सिर्फ और सिर्फ एक बार में ही इतना विशाल आंदोलन नहीं कर सकते की एक ही बार में अध्यापकों की सारी समस्याओं का समाधान हो जाए ताकि बाकी की बची नोकरी में हम अच्छे से बच्चों को पढा सकें और अपना जीवन भी आराम से गुजर सकें।बार बार आंदोलन करके ऐसा लगने लगा है कि हम अध्यापक कम आंदोलनकारी ज्यादा हैं।कई बार हम आंदोलनों के माध्यम से निर्णायक स्थिति में पहुँच जाते है और ऐन वक़्त पर हमारी आधी अधूरी मांगो पर समझोता हो जाता है। आधी मांगे हम अगले आंदोलन के लिए छोड़ देते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है की सरकार सब कुछ देना चाहती है लेकिन हम शायद उसके सही हक़दार नहीं है। पंक्ति का आखरी अध्यापक अपना वेतन कटवाकर जोर शोर से आंदोलन करता है और शीर्ष से आधी अधूरी मांगों पर सहमति बनकर आंदोलन ख़त्म करने का फरमान आ जाता है।विसंगति युक्त गणना पत्रक से उन अध्यापकों को सबसे ज्यादा नुकसांन हो रहा है जो केवल अध्यापकीय नौकरी से ही आँक्सीजन ले रहे है।जिनके पास आँक्सीजन के दूसरे विकल्प है उन्हें इस गणना पत्रक से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अध्यापकों के सामने सबसे बड़ी चुनोती अध्यापक नेताओं के चयन की है।अध्यापकीय नेता बनने की कोई निर्धारित योग्यता तो है नहीं और न हीं कोई चुनाव प्रक्रिया है जिसका मन चाहे,जिसकी राजनीती में अच्छी पकड़ हो, जो आर्थिक रूप से सक्षम हो,जो महत्वाकांक्षी हो या शीर्ष नेता द्वारा अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया हो,ऐसे लोग अध्यापकीय नेता बनकार अध्यापकों को गुमराह करते है और संघ संघ खेलकर अपने वर्चस्व हेतु अध्यापकों की एकता में बाधा बनते हैं।अध्यापकीय नेताओं द्वारा अध्यापकों की सेवा करने का उद्देश्य तो धरा के धरा रह जाता है। रही बात आम अध्यापक की तो उसमे उपरोक्त गुण नहीं होते है इसलिए वो मजबूरी में दूसरों के इशारों के गुलाम हो जाते है।
     " एक बार दिल से जिद करो दुनिया बदलो। "

नहीं तो जो परम्परा पिछले 20 साल से चलती आ रही है वही चलती रहेगी।वोट देते रहो और सरकार बनाते रहो और शोषित होते रहो।  

लेखिका स्वयं अध्यापक हैं ।और यह उनके निजी विचार हैं ।

1 comment:

  1. राशि जी आपकी सारगर्भित बातें कोई नहीं मानेगा। सबने अपने आप को विधायक बनाने का सपना पूरा करने की जिद करी है

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Monday, June 6, 2016

एक अध्यापक के मन में उपजने वाली जिज्ञास - राशी राठौर देवास

राशी  राठौर  देवास
         क्या हम सिर्फ और सिर्फ एक बार में ही इतना विशाल आंदोलन नहीं कर सकते की एक ही बार में अध्यापकों की सारी समस्याओं का समाधान हो जाए ताकि बाकी की बची नोकरी में हम अच्छे से बच्चों को पढा सकें और अपना जीवन भी आराम से गुजर सकें।बार बार आंदोलन करके ऐसा लगने लगा है कि हम अध्यापक कम आंदोलनकारी ज्यादा हैं।कई बार हम आंदोलनों के माध्यम से निर्णायक स्थिति में पहुँच जाते है और ऐन वक़्त पर हमारी आधी अधूरी मांगो पर समझोता हो जाता है। आधी मांगे हम अगले आंदोलन के लिए छोड़ देते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है की सरकार सब कुछ देना चाहती है लेकिन हम शायद उसके सही हक़दार नहीं है। पंक्ति का आखरी अध्यापक अपना वेतन कटवाकर जोर शोर से आंदोलन करता है और शीर्ष से आधी अधूरी मांगों पर सहमति बनकर आंदोलन ख़त्म करने का फरमान आ जाता है।विसंगति युक्त गणना पत्रक से उन अध्यापकों को सबसे ज्यादा नुकसांन हो रहा है जो केवल अध्यापकीय नौकरी से ही आँक्सीजन ले रहे है।जिनके पास आँक्सीजन के दूसरे विकल्प है उन्हें इस गणना पत्रक से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अध्यापकों के सामने सबसे बड़ी चुनोती अध्यापक नेताओं के चयन की है।अध्यापकीय नेता बनने की कोई निर्धारित योग्यता तो है नहीं और न हीं कोई चुनाव प्रक्रिया है जिसका मन चाहे,जिसकी राजनीती में अच्छी पकड़ हो, जो आर्थिक रूप से सक्षम हो,जो महत्वाकांक्षी हो या शीर्ष नेता द्वारा अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया हो,ऐसे लोग अध्यापकीय नेता बनकार अध्यापकों को गुमराह करते है और संघ संघ खेलकर अपने वर्चस्व हेतु अध्यापकों की एकता में बाधा बनते हैं।अध्यापकीय नेताओं द्वारा अध्यापकों की सेवा करने का उद्देश्य तो धरा के धरा रह जाता है। रही बात आम अध्यापक की तो उसमे उपरोक्त गुण नहीं होते है इसलिए वो मजबूरी में दूसरों के इशारों के गुलाम हो जाते है।
     " एक बार दिल से जिद करो दुनिया बदलो। "

नहीं तो जो परम्परा पिछले 20 साल से चलती आ रही है वही चलती रहेगी।वोट देते रहो और सरकार बनाते रहो और शोषित होते रहो।  

लेखिका स्वयं अध्यापक हैं ।और यह उनके निजी विचार हैं ।

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  1. राशि जी आपकी सारगर्भित बातें कोई नहीं मानेगा। सबने अपने आप को विधायक बनाने का सपना पूरा करने की जिद करी है

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