Wednesday, May 25, 2016

अध्यापक किस से लड़ रहा है ? सुरेश यादव रतलाम

       कहा जाता है राजनीती करने वाले वँहा से सोचना प्रारम्भ करते है, जंहाँ हम सोचना बंद कर देते हैं।
       

     प्रदेश के मुख्यमंत्री के  राजनेतिक चातुर्य और सत्तारूढ़ दल के प्रति अपनी निष्ठा के चलते आज ,अध्यापक न तो सरकार को  कोस पा रहा है  न अपने साथ हो रहे अन्याय को आम जन तक पहुँचा पा रहा है । प्रदेश का अध्यापक अपने संवर्ग की दुर्दशा के लिए अपने ही संगठनो और नेतृत्व पर सन्देह कर रहा है और आक्षेप लगा रहा है ।

       वह अपनी समस्याओं  के लिए जिम्मेदार सरकार ( विगत 13 वर्ष से एक ही ) के खिलाफ न तो एक शब्द कहना चाहता है न ही किसी के मुँह से  सरकार के विरुद्ध कुछ सुनना चाहता है। मेरा व्यक्तिगत मत है की आज की स्थिति में प्रदेश का 90 प्रतिशत अध्यापक अपनी वर्तमान समस्याओ के लिए सरकार को नहीं अध्यापक नेताओ और संगठनो को जिम्मेदार मानता है ।
जबकि होना इसके उलट चाहिए ।वर्तमान में अध्यापक और  पूर्व के शिक्षा कर्मी का शून्य से शिखर तक का सफ़र यदि आज पूर्ण हुआ है तो वह सरकार के पुरजोर विरोध के कारण ही हुआ है ।

    आप  तुलना कीजिये पंचायत सचिव ,आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, संविदा कर्मचारी अधिकारी (पंचायत की विभिन्न योजनाओ में कार्यरत),संविदा सवास्थय कर्मी , या राज्य के कर्मचारी जिन्होंने कई बढे-बढे अंदोलन किये लेकिन कोई विशेष लाभ अर्जित नहीं कर पाये ।
परंतु अध्यापक ने अपनी नोकरी बचाई,और फिर नोकरी में आये(1998 में ) ,अवकाश की लड़ाई,अनुकम्पा,अनुग्रह,ग्रीन कार्ड,बैंक लोन ,नविन पेशन योजना ,शून्य बजट पर वेतन, संविदा गुरूजी का एक सवर्ग में संविलियन और समान वेतन की लड़ाई भी जीती (कहने का आशय सिर्फ हासिल ही किया )। गुरूजी तो आरक्षण के नियमो को शिथिल कर के अध्यापक संवर्ग में आये यह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं हैं ।

     साथियो इसका कारण सिर्फ यह है की ।हम सड़को पर उतर के सरकार को कोसते थे ।हमने सरकार से असली लड़ाई लड़ने का माद्दा दिखाया है ।
परन्तु जब से सोश्यल मिडिया का समय आया है ।नकारात्मकता  ने पैर पसारें हैं। कॉपी पेस्ट,हेश टेग, शेयर और लाइक का जमाना है ।  कई शूरवीर इस प्रकार उत्पन्न हुए है जिनका स्वयं का इन वर्षो में कोई योगदान नहीं लेकिन वे किसी पर भी उंगली उठा देतें है ।कई जिनको सेवा में आये ही 2-3 वर्ष हुए है 19 वर्षो का हिसाब मांग रहें हैं। सच कहें तो वे समीक्षक बन गए है ।समीक्षा भी कीजिये परन्तु कभी सरकार की भी समीक्षा कर लिया करें।  ये वही है जो अपनी निजी समस्याओ के समाधान के लिए संकुल के बाबू और प्राचार्य के सामने मुह नही खोल सकते परन्तु ,सत्तारुढ़ दल के प्रति अपनी निष्ठा के चलते वे अध्यापक के असली संघर्ष  की कमियां निकाल रहें हैं। जी हाँ लोकतंत्र है आप को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है ,लेंकिन सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओ का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को नहीं है । शोषयल मीडया पर कुछ लाइक और शेयर आप को समझदारी का या सफलता का प्रमाण नहीं है ।

          साथियों में फिर अपनी बात पर आऊँगा , यह राजनीती है अपना काम अवश्य करेगी ।और जँहा पर हम सोचना बंद करेंगे उसके आगे से सोचना शुरू करेगी ,इस लिए लड़ाई  लड़नी है सरकार से लड़ेे पुरजोर तरीके से लड़ें हमारे साथ होने वाले अन्याय को जनता तक पहुंचाएं , वंही से कुछ लाभ होगा ,आपस में लड़ कर कुछ हासिल नहीं होने वाला। धन्यवाद ।
सुरेश यादव रतलाम ( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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Wednesday, May 25, 2016

अध्यापक किस से लड़ रहा है ? सुरेश यादव रतलाम

       कहा जाता है राजनीती करने वाले वँहा से सोचना प्रारम्भ करते है, जंहाँ हम सोचना बंद कर देते हैं।
       

     प्रदेश के मुख्यमंत्री के  राजनेतिक चातुर्य और सत्तारूढ़ दल के प्रति अपनी निष्ठा के चलते आज ,अध्यापक न तो सरकार को  कोस पा रहा है  न अपने साथ हो रहे अन्याय को आम जन तक पहुँचा पा रहा है । प्रदेश का अध्यापक अपने संवर्ग की दुर्दशा के लिए अपने ही संगठनो और नेतृत्व पर सन्देह कर रहा है और आक्षेप लगा रहा है ।

       वह अपनी समस्याओं  के लिए जिम्मेदार सरकार ( विगत 13 वर्ष से एक ही ) के खिलाफ न तो एक शब्द कहना चाहता है न ही किसी के मुँह से  सरकार के विरुद्ध कुछ सुनना चाहता है। मेरा व्यक्तिगत मत है की आज की स्थिति में प्रदेश का 90 प्रतिशत अध्यापक अपनी वर्तमान समस्याओ के लिए सरकार को नहीं अध्यापक नेताओ और संगठनो को जिम्मेदार मानता है ।
जबकि होना इसके उलट चाहिए ।वर्तमान में अध्यापक और  पूर्व के शिक्षा कर्मी का शून्य से शिखर तक का सफ़र यदि आज पूर्ण हुआ है तो वह सरकार के पुरजोर विरोध के कारण ही हुआ है ।

    आप  तुलना कीजिये पंचायत सचिव ,आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, संविदा कर्मचारी अधिकारी (पंचायत की विभिन्न योजनाओ में कार्यरत),संविदा सवास्थय कर्मी , या राज्य के कर्मचारी जिन्होंने कई बढे-बढे अंदोलन किये लेकिन कोई विशेष लाभ अर्जित नहीं कर पाये ।
परंतु अध्यापक ने अपनी नोकरी बचाई,और फिर नोकरी में आये(1998 में ) ,अवकाश की लड़ाई,अनुकम्पा,अनुग्रह,ग्रीन कार्ड,बैंक लोन ,नविन पेशन योजना ,शून्य बजट पर वेतन, संविदा गुरूजी का एक सवर्ग में संविलियन और समान वेतन की लड़ाई भी जीती (कहने का आशय सिर्फ हासिल ही किया )। गुरूजी तो आरक्षण के नियमो को शिथिल कर के अध्यापक संवर्ग में आये यह कोई सामान्य उपलब्धि नहीं हैं ।

     साथियो इसका कारण सिर्फ यह है की ।हम सड़को पर उतर के सरकार को कोसते थे ।हमने सरकार से असली लड़ाई लड़ने का माद्दा दिखाया है ।
परन्तु जब से सोश्यल मिडिया का समय आया है ।नकारात्मकता  ने पैर पसारें हैं। कॉपी पेस्ट,हेश टेग, शेयर और लाइक का जमाना है ।  कई शूरवीर इस प्रकार उत्पन्न हुए है जिनका स्वयं का इन वर्षो में कोई योगदान नहीं लेकिन वे किसी पर भी उंगली उठा देतें है ।कई जिनको सेवा में आये ही 2-3 वर्ष हुए है 19 वर्षो का हिसाब मांग रहें हैं। सच कहें तो वे समीक्षक बन गए है ।समीक्षा भी कीजिये परन्तु कभी सरकार की भी समीक्षा कर लिया करें।  ये वही है जो अपनी निजी समस्याओ के समाधान के लिए संकुल के बाबू और प्राचार्य के सामने मुह नही खोल सकते परन्तु ,सत्तारुढ़ दल के प्रति अपनी निष्ठा के चलते वे अध्यापक के असली संघर्ष  की कमियां निकाल रहें हैं। जी हाँ लोकतंत्र है आप को अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है ,लेंकिन सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओ का उल्लंघन करने का अधिकार किसी को नहीं है । शोषयल मीडया पर कुछ लाइक और शेयर आप को समझदारी का या सफलता का प्रमाण नहीं है ।

          साथियों में फिर अपनी बात पर आऊँगा , यह राजनीती है अपना काम अवश्य करेगी ।और जँहा पर हम सोचना बंद करेंगे उसके आगे से सोचना शुरू करेगी ,इस लिए लड़ाई  लड़नी है सरकार से लड़ेे पुरजोर तरीके से लड़ें हमारे साथ होने वाले अन्याय को जनता तक पहुंचाएं , वंही से कुछ लाभ होगा ,आपस में लड़ कर कुछ हासिल नहीं होने वाला। धन्यवाद ।
सुरेश यादव रतलाम ( यह लेखक के निजी विचार हैं )

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