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Saturday, April 30, 2016
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस , " मई दिवस " पर विशेष : -सुरेश यादव रतलाम
1 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको " मई दिवस " के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर काम की अवधि आठ घंटे करने और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की मांग कर रहे थे कि। इस हड़ताल / प्रदर्शन के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए । और मजदूरों के हाथ में रखे सफ़ेद झंडे खून लाल हो गए तभी से लाल ध्वज मजदूरों की एकता का प्रतिक हो गया।
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Saturday, April 30, 2016
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस , " मई दिवस " पर विशेष : -सुरेश यादव रतलाम
1 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको " मई दिवस " के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर काम की अवधि आठ घंटे करने और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की मांग कर रहे थे कि। इस हड़ताल / प्रदर्शन के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए । और मजदूरों के हाथ में रखे सफ़ेद झंडे खून लाल हो गए तभी से लाल ध्वज मजदूरों की एकता का प्रतिक हो गया।
इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में " फ्रांस की क्रांति " को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि ,1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी वक्त से दुनिया के 80 देशों में " मई दिवस " को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत से संबंध
चेन्नई के मैरिना बीच पर मज़दूर दिवस
भारत में मई दिवस सब से पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर स्वीकार कर लिया गया था। इस की शुरूआत भारती मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। भारत में मद्रास के हाईकोर्ट के सामने एक बड़ी सभा कर के और उसमे संकल्प के पास करके यह सहमति बनाई गई कि ,इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये। इस के पीछे तर्क था की कि यह दिन अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के तौर पर प्रचलित हो चुका था ।
महात्मा गांधी
महात्मा गांधी ने कहा था कि " किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति स्वय को मालिक या प्रबंधक समझने की बजाय अपने-आप को ट्रस्टी समझे ।"
गुरु नानक और भाई लालो
गुरू नानक देव जी ने किसानों, मज़दूरों और कामगार के हक में आवाज़ उठाई थी और उस समय के अहंकारी और लुटेरे हाकिम ,ऊँट पालक की रोटी न खा कर उस का अहंकार तोड़ा और भाई लालो की काम की कमाई को सम्मान दिया था। गुरू नानक देव जी ने " काम करना, नाम जपना, बाँट कर खाना और दसवंध निकालना " का संदेश दिया। गरीब मज़दूर और कामगार का राज स्थापित करने के लिए मनमुख से गुरमुख तक की यात्रा करने का संदेश दिया था इसके बाद 1 मई को भाई लालो दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है।
लोकतन्त्रिक ढांचो में तो सरकार भी लोगों द्वारा चुनी जाती है ,जनता राजनीतिक लोगों को अपने देश की बागडोर ट्रस्टी के रूप में सौंपती हैं। राजनीतिज्ञ देश का प्रबंधन करने के लिए मज़दूरों, कामगारों और किसानों की बेहतरी, भलाई और विकास, शन्ति और कानूनी व्यवस्था बनाऐ रखने के लिए वचनबद्ध होते हैं। मज़दूरों और किसानों की बड़ी संख्या का शासन प्रबंध में बड़ा योगदान है। सरकार का दायित्व है की उद्योगपतियों और मज़दूरों के मध्य सुखदायक, शन्ति व्यवस्था बना कर और पारिवारिक संबंध कायम करे। झगड़े और टकराव की सूरत में समझौता और सुलह करवाने का प्रबंध करें , को श्रमिकों कामगारों के मामलों को ट्रिब्यूनल के माध्यम से पारदरशी ढंग के साथ नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार सम्पन्न करें।
परन्तु वर्तमान में समाजवाद की आवाज कम ही सुनाई देती है। ऐसे हालात में " मई दिवस " की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। हम ऐतिहासिक दृष्टि से 'दुनिया के मजदूरों एक हो ' के नारे को देखें तो उस वक्त भी दुनिया के लोग दो खेमों में बंटे हुए थे। अमीर और गरीब देशों के बीच फर्क था। सारे देशों में कुशल और अकुशल श्रमिक एक साथ ट्रेड यूनियन में भागीदार नहीं थे।
प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे श्रमिक संगठन और इसके नेता अपने देश के झंडे के नीचे आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब सोवियत संघ संकट में था तब वहां यह नारा दिया गया कि मजदूर और समाजवाद अपनी-अपनी पैतृक भूमि को बचाएं। इसके बाद हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में कल्याणकारी राज्य आया और मई दिवस का पुनर्जागरण हुआ ।
अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया है , औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया है । औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया है । एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया।
दुनिया में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे। वह काम अब एक रोबोट कर लेता है। उदाहरण के लिए टाटा की नैनो फैक्टरी में 4 करोड़ रु. के निवेश पर एक नौकरी निकलती है। यह काम भी मजदूर के लिए नहीं बल्कि तकनीकी रूप से उच्च शिक्षित लोगों के लिए है।
सिंगुर या नंदीग्राम में प्रदर्शन क्यों होता है? क्योंकि स्थानीय लोगों यह पता है कि हमारे लिए या हमारे बच्चों के लिए कुछ नहीं है। तकनीक ने लोगों की आवश्यकता को कम कर दिया। इससे साधारण लोगों की जमीन खिसक गई , लोग बेरोजगार हैं, जिनके पास रोजगार है उसको यह डर सता रहा है कि कल यह छीन न जाए। आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों का हजारों नौजवान सड़क पर विरोध करते हैं लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ,की उनका रोजगार कैसे बचेगा। हम शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े है ,लेकिन आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों के कारण हमारे काम पर भी संकट उत्पन्न हो गया है ,विद्यालयों और शिक्षकों के युक्तियुक्तदकरण के रुप में यह संकट हमें नजर आने लगा है । " शिक्षा क्रांति यात्रा " हमे हमारे रोजगार पर खड़ा संकट बता रही है ,साथियो सचेत हो जाएँ रोजगार को बचाएं। सभी साथियो को लाल सलाम ,कर्मचारी एकता जिंदाबाद ,मजदुर एकता जिंदाबाद।
आप का सुरेश यादव कार्यकारी जिलाध्यक्ष
राज्य अध्यापक संघ रतलाम 9926809650
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