Thursday, September 29, 2016

पंचायती राज व्यवस्था के नाम पर नए शिक्षको का शोषण क्यो ? - महेश देवड़ा कुक्षी जिला-धार


 महेश देवड़ा - 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 ने राज्य सरकारो को पंचायतों को ऐसे अधिकार प्रदान करने का अवसर दिया जो उन्हे स्वायत्त शासन की संस्थाओ के रूप मे कार्य करने मे अधिक समर्थ बना सके । इसके तहत आर्थिक विकास ओर सामाजिक न्याय सबके लिए सुलभ करने के उद्देश्य से संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची मे वर्णित विषयों के संबंध मे पंचायतों को जरूरी शक्तियाँ ओर प्राधिकार प्रदान किए गए । 11 वीं अनुसूची मे “शिक्षा , जिसके अंतर्गत प्राथमिक एवं माध्यमिक विध्यालय भी है” का विषय भी सम्मिलित है । भारत के संविधान के 73 वें संविधान संशोधन के अनुरूप प्रदेश मे भी मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम 1993 , दिनांक 25 जनवरी 1994 से लागू किया गया । परिणामतः शिक्षा संबंधी कार्य एवं उत्तरदायित्व भी पंचायतों ओर स्थानीय निकायों को सोंपने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । इस प्रक्रिया से सबसे अधिक प्रभावित हुआ प्रदेश का शिक्षक समुदाय । 1995 मे एक आदेश से राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश के विध्यालयों मे कार्यरत नियमित शिक्षक संवर्गों को मृत संवर्ग (डाईंग केडर) घोषीत कर दिया । इसके बाद से ही प्रदेश के उच्च शिक्षित बेरोजगार युवाओ के शोषण का सिलसिला शुरू हुआ । शिक्षको के रिक्त पदो पर अल्पतम वेतन या मानदेय आधारित शिक्षाकर्मी , गुरुजी ओर संविदा शिक्षक के रूप मे भर्ती प्रारम्भ हुई । पंचायत राज अधिनियम के अनुपालन मे प्रदेश के शिक्षा विभाग ओर आदिम जाती कल्याण विभाग के समस्त स्कूलों का हस्तांतरण भी जनपद एवं जिला पंचायतों को कर दिया गया ।  साथ ही नियमित शिक्षको के रिक्त पदों के विरुद्ध जनपद एवं जिला पंचायतों के द्वारा शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति की जाने लगी । ये अलग बात है की इन शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति, पदोन्नति, नियमितिकरण एवं वेतनमान संबंधी समस्त नियम राज्य शासन द्वारा ही बनाए गए । नियमितीकरण के बाद भी इन शिक्षाकर्मियों को राज्य शासन के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से भी कम वेतनमान दिया गया । इस प्रकार पंचायत अथवा स्थानीय निकायों के कर्मचारी होने के नाम पर इन शिक्षाकर्मियों को न केवल अपमानजनक वेतन दिया गया अपितु शासकीय कर्मचारियो को मिलने वाली अन्य सुविधाओ जैसे बीमा, पेंशन, स्थानांतरण, गृह भाड़ा भत्ता जैसी मौलिक सुविधाओ से भी वंचित कर दिया गया । एक ही विध्यालय मे अनेक तरह के शिक्षको की नियुक्ति कर एक वर्ग विषमता का वातावरण निर्मित कर दिया गया । जिसका स्वाभाविक दुष्प्रभाव प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शेक्षणिक गुणवत्ता पर भी पड़ा । इस विरोधाभास ओर भेदभाव के विरुद्ध शिक्षाकर्मी निरंतर संघर्ष ओर आंदोलन करते रहे । 2007 मे राज्य सरकार ने अध्यापक संवर्ग का गठन किया ओर कर्मिकल्चर को समाप्त करने का दावा किया । पूर्व शिक्षाकर्मियों ओर संविदा शिक्षको का अध्यापक संवर्ग मे संविलियन कर नवीन वेतनमान दिया गया । परंतु सिर्फ नाम परिवर्तन से इन अध्यापको की व्यावहारिक स्थिति मे कोई बदलाव नहीं आया । नवीन वेतनमान देने से वेतन तो बढ़ा परंतु तुलनात्मक रूप से नियमित शिक्षक संवर्ग के वेतनमान से अध्यापक संवर्ग अब भी बहुत पीछे था क्योकि तब तक प्रदेश के समस्त कर्मचारियों को 2006 से छठवाँ वेतनमान मिल चुका था । जबकि अध्यापक आज भी पंचायतों एवं स्थानीय निकायों के कर्मचारी होने के कारण छठवें वेतनमान से वंचित है । 2013 मे एक बड़े आंदोलन के बाद सरकार ने किश्तों मे छठवें वेतन के समतुल्य वेतन अध्यापको को देने का आदेश जारी किया । इसके बाद सितंबर 2015 मे फिर एक बार अध्यापकों ने जोरदार आंदोलन किया फलतः सरकार ने 1 जनवरी 2016 से ही अध्यापकों को छठवें वेतनमान का लाभ देने की घोषणा की । परंतु लगभग एक वर्ष होने के बाद भी मुख्यमंत्री महोदय की घोषणा पर अमल नहीं किया जा सका है । जिससे आक्रोशित अध्यापको ने पुनः एक बार संघर्ष प्रारम्भ करते हुए 25 सितंबर 2016 को प्रदेश के सभी जिलो मे विशाल तिरंगा रैलियों का आयोजन किया ओर एक बार फिर बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । वर्तमान अध्यापक आंदोलन का मुख्य कारण शिक्षा विभाग मे संविलियन ओर समान कार्य समान वेतन प्राप्त करना है । अध्यापको को ये आशंका है की अगर उनकी उक्त मांगे पूरी नहीं हुई तो जनवरी 2016 से देश एवं प्रदेश के सभी कर्मचारियो को मिलने वाले सातवें वेतनमान से भी वे वंचित हो जाएंगे । इन परिस्थितियों मे अध्यापको का आंदोलित होना स्वाभाविक है । 
अध्यापकों की शिक्षा विभाग मे संविलियन की मांग इस लिए है की शिक्षा विभाग मे शामिल होते ही उन्हे प्रदेश के अन्य शासकीय कर्मचारियों ओर नियमित शिक्षक संवर्गों को मिलने वाले वेतनमान ओर अन्य सुविधाएं स्वतः मिल जाएगी ओर उनकी सभी समस्याओं का स्थायी निराकरण हो जाएगा। परंतु शासन द्वारा हमेशा से इस मांग को 73 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा ओर इससे संबन्धित समस्त व्यवस्थाओं का पंचायतों एवं स्थानीय निकायों को हस्तांतरण हो जाने की बात कह कर खारिज कर दिया जाता है । ऐसे मे एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है की सरकार के तमाम दावो के बीच क्या प्रदेश के शिक्षा विभाग ओर आदिम जाती कल्याण विभाग के समस्त स्कूल पंचायतों ओर स्थानीय निकायों को वास्तव मे हस्तांतरित कर दिये गए है ? व्यवहार मे यह देखा गया है की इन विभागो के स्कूलों मे अध्यापकों की पदस्थापना के अलावा समस्त वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार आज भी हस्तांतरित नहीं किए गए है । पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की भावना के अनुरूप स्कूल शिक्षा विभाग ने भी ग्रामीण क्षेत्र मे समस्त शालाओं के संचालन ओर प्रबंधन जिला पंचायतों को सोंपने का आदेश जारी किया साथ ही समस्त शालाओं के भवन , उपकरण एवं चल अचल संपत्ति तक पंचायतों को हस्तांतरित किए जाने के आदेश भी हुए है । परंतु ईनका व्यवहार मे कितना पालन हुआ है ये विचारणीय है । अब तो शालाओं मे रिक्त पदो पर नियुक्ति भी संविदा शाला शिक्षक भर्ती परीक्षा के माध्यम से ऑनलाइन केंद्रीकृत व्यवस्था से शिक्षा विभाग के ही निर्देशों से होती है  । ऐसे मे जिला एवं जनपद पंचायतों का काम महज ओपचारिक आदेश जारी करने तक रबर स्टांप के रूप मे ही है । व्यवहार मे सभी संविदा शिक्षकों एवं अध्यापको की सेवाओ पर वास्तविक नियंत्रण शिक्षा विभाग एवं आदिम जाती कल्याण विभाग का ही है । अध्यापकों के भर्ती नियम से लेकर नियुक्ति , पदोन्नति , वेतन नियमन, प्रशासकीय एवं वित्तीय नियंत्रण तक सब वास्तव मे शिक्षा विभाग ही करता है । ऐसे मे अध्यापको से नियमित शिक्षकों के समान समस्त कार्य लिया जाकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियो सा वेतन दिया जाना न्याय संगत नहीं है । 73 वें संविधान संशोधन ओर पंचायत राज अधिनियम की आड़ मे अध्यापको का ये शोषण 18 वर्षों से जारी है । उक्त संशोधन के द्वारा पंचायतों को शिक्षा संबंधी अधिकार ओर उत्तरदायित्वों का वास्तविक हस्तांतरण किया जाना था ना की प्रदेश के बेरोजगार युवको के शोषण का अंतहीन सिलसिला शुरू किया जाना था । अधिनियम के तहत शिक्षको की नियुक्ति का अधिकार भले पंचायतों को दिया गया हो पर ना तो 73वां संशोधन ओर ना मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम अध्यापको को समान वेतन देने से रोकता है । पंचायत विभाग के कर्मचारी मानते हुए भी शासन अध्यापकों को शासकीय कर्मचारियों के समान वेतनमान ओर सुविधाएं दे सकता है । शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो । निःशुल्क ओर अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुक्रम मे बने नियम-2010 के भाग 6 नियम 20(3) मे भी स्पष्ट उल्लेखित है की  “सभी अध्यापको के वेतनमान ओर भत्ते, चिकीत्सकीय सुविधाएं, पेंशन, उपदान, भविष्य निधि ओर अन्य विहित फायदे, वेसी ही अर्हता ,कार्य ओर अनुभव के लिए बराबर होंगे”। अब समय आ गया है की मध्यप्रदेश सरकार इस भेदभावपूर्ण ओर शोषणकारी व्यवस्था को जड़मूल से समाप्त करे ओर संविधान के समानता के मौलिक अधिकार ओर अनुच्छेद 39 की समान कार्य के लिए समान वेतन की भावना के अनुरूप कार्य करे ना की पंचायती राज व्यवस्था के नाम पर अध्यापकों का शोषण  करे ।  (लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं 
१९८५ के बाद शिक्षा में बदलाव विषय पर आयोजित परिचर्चा में इस लेख को  प्रथम स्थान प्रदान  किया गया है)

1 comment:

  1. सटीक बात।अब तो शोषण कि इंतहा हो गयी।

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Thursday, September 29, 2016

पंचायती राज व्यवस्था के नाम पर नए शिक्षको का शोषण क्यो ? - महेश देवड़ा कुक्षी जिला-धार


 महेश देवड़ा - 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 ने राज्य सरकारो को पंचायतों को ऐसे अधिकार प्रदान करने का अवसर दिया जो उन्हे स्वायत्त शासन की संस्थाओ के रूप मे कार्य करने मे अधिक समर्थ बना सके । इसके तहत आर्थिक विकास ओर सामाजिक न्याय सबके लिए सुलभ करने के उद्देश्य से संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची मे वर्णित विषयों के संबंध मे पंचायतों को जरूरी शक्तियाँ ओर प्राधिकार प्रदान किए गए । 11 वीं अनुसूची मे “शिक्षा , जिसके अंतर्गत प्राथमिक एवं माध्यमिक विध्यालय भी है” का विषय भी सम्मिलित है । भारत के संविधान के 73 वें संविधान संशोधन के अनुरूप प्रदेश मे भी मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम 1993 , दिनांक 25 जनवरी 1994 से लागू किया गया । परिणामतः शिक्षा संबंधी कार्य एवं उत्तरदायित्व भी पंचायतों ओर स्थानीय निकायों को सोंपने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई । इस प्रक्रिया से सबसे अधिक प्रभावित हुआ प्रदेश का शिक्षक समुदाय । 1995 मे एक आदेश से राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश के विध्यालयों मे कार्यरत नियमित शिक्षक संवर्गों को मृत संवर्ग (डाईंग केडर) घोषीत कर दिया । इसके बाद से ही प्रदेश के उच्च शिक्षित बेरोजगार युवाओ के शोषण का सिलसिला शुरू हुआ । शिक्षको के रिक्त पदो पर अल्पतम वेतन या मानदेय आधारित शिक्षाकर्मी , गुरुजी ओर संविदा शिक्षक के रूप मे भर्ती प्रारम्भ हुई । पंचायत राज अधिनियम के अनुपालन मे प्रदेश के शिक्षा विभाग ओर आदिम जाती कल्याण विभाग के समस्त स्कूलों का हस्तांतरण भी जनपद एवं जिला पंचायतों को कर दिया गया ।  साथ ही नियमित शिक्षको के रिक्त पदों के विरुद्ध जनपद एवं जिला पंचायतों के द्वारा शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति की जाने लगी । ये अलग बात है की इन शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति, पदोन्नति, नियमितिकरण एवं वेतनमान संबंधी समस्त नियम राज्य शासन द्वारा ही बनाए गए । नियमितीकरण के बाद भी इन शिक्षाकर्मियों को राज्य शासन के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से भी कम वेतनमान दिया गया । इस प्रकार पंचायत अथवा स्थानीय निकायों के कर्मचारी होने के नाम पर इन शिक्षाकर्मियों को न केवल अपमानजनक वेतन दिया गया अपितु शासकीय कर्मचारियो को मिलने वाली अन्य सुविधाओ जैसे बीमा, पेंशन, स्थानांतरण, गृह भाड़ा भत्ता जैसी मौलिक सुविधाओ से भी वंचित कर दिया गया । एक ही विध्यालय मे अनेक तरह के शिक्षको की नियुक्ति कर एक वर्ग विषमता का वातावरण निर्मित कर दिया गया । जिसका स्वाभाविक दुष्प्रभाव प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ओर शेक्षणिक गुणवत्ता पर भी पड़ा । इस विरोधाभास ओर भेदभाव के विरुद्ध शिक्षाकर्मी निरंतर संघर्ष ओर आंदोलन करते रहे । 2007 मे राज्य सरकार ने अध्यापक संवर्ग का गठन किया ओर कर्मिकल्चर को समाप्त करने का दावा किया । पूर्व शिक्षाकर्मियों ओर संविदा शिक्षको का अध्यापक संवर्ग मे संविलियन कर नवीन वेतनमान दिया गया । परंतु सिर्फ नाम परिवर्तन से इन अध्यापको की व्यावहारिक स्थिति मे कोई बदलाव नहीं आया । नवीन वेतनमान देने से वेतन तो बढ़ा परंतु तुलनात्मक रूप से नियमित शिक्षक संवर्ग के वेतनमान से अध्यापक संवर्ग अब भी बहुत पीछे था क्योकि तब तक प्रदेश के समस्त कर्मचारियों को 2006 से छठवाँ वेतनमान मिल चुका था । जबकि अध्यापक आज भी पंचायतों एवं स्थानीय निकायों के कर्मचारी होने के कारण छठवें वेतनमान से वंचित है । 2013 मे एक बड़े आंदोलन के बाद सरकार ने किश्तों मे छठवें वेतन के समतुल्य वेतन अध्यापको को देने का आदेश जारी किया । इसके बाद सितंबर 2015 मे फिर एक बार अध्यापकों ने जोरदार आंदोलन किया फलतः सरकार ने 1 जनवरी 2016 से ही अध्यापकों को छठवें वेतनमान का लाभ देने की घोषणा की । परंतु लगभग एक वर्ष होने के बाद भी मुख्यमंत्री महोदय की घोषणा पर अमल नहीं किया जा सका है । जिससे आक्रोशित अध्यापको ने पुनः एक बार संघर्ष प्रारम्भ करते हुए 25 सितंबर 2016 को प्रदेश के सभी जिलो मे विशाल तिरंगा रैलियों का आयोजन किया ओर एक बार फिर बड़े आंदोलन के संकेत भी दिये । वर्तमान अध्यापक आंदोलन का मुख्य कारण शिक्षा विभाग मे संविलियन ओर समान कार्य समान वेतन प्राप्त करना है । अध्यापको को ये आशंका है की अगर उनकी उक्त मांगे पूरी नहीं हुई तो जनवरी 2016 से देश एवं प्रदेश के सभी कर्मचारियो को मिलने वाले सातवें वेतनमान से भी वे वंचित हो जाएंगे । इन परिस्थितियों मे अध्यापको का आंदोलित होना स्वाभाविक है । 
अध्यापकों की शिक्षा विभाग मे संविलियन की मांग इस लिए है की शिक्षा विभाग मे शामिल होते ही उन्हे प्रदेश के अन्य शासकीय कर्मचारियों ओर नियमित शिक्षक संवर्गों को मिलने वाले वेतनमान ओर अन्य सुविधाएं स्वतः मिल जाएगी ओर उनकी सभी समस्याओं का स्थायी निराकरण हो जाएगा। परंतु शासन द्वारा हमेशा से इस मांग को 73 वें संविधान संशोधन द्वारा शिक्षा ओर इससे संबन्धित समस्त व्यवस्थाओं का पंचायतों एवं स्थानीय निकायों को हस्तांतरण हो जाने की बात कह कर खारिज कर दिया जाता है । ऐसे मे एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है की सरकार के तमाम दावो के बीच क्या प्रदेश के शिक्षा विभाग ओर आदिम जाती कल्याण विभाग के समस्त स्कूल पंचायतों ओर स्थानीय निकायों को वास्तव मे हस्तांतरित कर दिये गए है ? व्यवहार मे यह देखा गया है की इन विभागो के स्कूलों मे अध्यापकों की पदस्थापना के अलावा समस्त वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार आज भी हस्तांतरित नहीं किए गए है । पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम की भावना के अनुरूप स्कूल शिक्षा विभाग ने भी ग्रामीण क्षेत्र मे समस्त शालाओं के संचालन ओर प्रबंधन जिला पंचायतों को सोंपने का आदेश जारी किया साथ ही समस्त शालाओं के भवन , उपकरण एवं चल अचल संपत्ति तक पंचायतों को हस्तांतरित किए जाने के आदेश भी हुए है । परंतु ईनका व्यवहार मे कितना पालन हुआ है ये विचारणीय है । अब तो शालाओं मे रिक्त पदो पर नियुक्ति भी संविदा शाला शिक्षक भर्ती परीक्षा के माध्यम से ऑनलाइन केंद्रीकृत व्यवस्था से शिक्षा विभाग के ही निर्देशों से होती है  । ऐसे मे जिला एवं जनपद पंचायतों का काम महज ओपचारिक आदेश जारी करने तक रबर स्टांप के रूप मे ही है । व्यवहार मे सभी संविदा शिक्षकों एवं अध्यापको की सेवाओ पर वास्तविक नियंत्रण शिक्षा विभाग एवं आदिम जाती कल्याण विभाग का ही है । अध्यापकों के भर्ती नियम से लेकर नियुक्ति , पदोन्नति , वेतन नियमन, प्रशासकीय एवं वित्तीय नियंत्रण तक सब वास्तव मे शिक्षा विभाग ही करता है । ऐसे मे अध्यापको से नियमित शिक्षकों के समान समस्त कार्य लिया जाकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियो सा वेतन दिया जाना न्याय संगत नहीं है । 73 वें संविधान संशोधन ओर पंचायत राज अधिनियम की आड़ मे अध्यापको का ये शोषण 18 वर्षों से जारी है । उक्त संशोधन के द्वारा पंचायतों को शिक्षा संबंधी अधिकार ओर उत्तरदायित्वों का वास्तविक हस्तांतरण किया जाना था ना की प्रदेश के बेरोजगार युवको के शोषण का अंतहीन सिलसिला शुरू किया जाना था । अधिनियम के तहत शिक्षको की नियुक्ति का अधिकार भले पंचायतों को दिया गया हो पर ना तो 73वां संशोधन ओर ना मध्यप्रदेश पंचायत राज एवं ग्राम स्वराज अधिनियम अध्यापको को समान वेतन देने से रोकता है । पंचायत विभाग के कर्मचारी मानते हुए भी शासन अध्यापकों को शासकीय कर्मचारियों के समान वेतनमान ओर सुविधाएं दे सकता है । शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के बाद शिक्षा के अधिकार पर तो बहुत चर्चा हुई पर अब यह भी जरूरी है की शिक्षकों के अधिकारों पर भी चर्चा हो । निःशुल्क ओर अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुक्रम मे बने नियम-2010 के भाग 6 नियम 20(3) मे भी स्पष्ट उल्लेखित है की  “सभी अध्यापको के वेतनमान ओर भत्ते, चिकीत्सकीय सुविधाएं, पेंशन, उपदान, भविष्य निधि ओर अन्य विहित फायदे, वेसी ही अर्हता ,कार्य ओर अनुभव के लिए बराबर होंगे”। अब समय आ गया है की मध्यप्रदेश सरकार इस भेदभावपूर्ण ओर शोषणकारी व्यवस्था को जड़मूल से समाप्त करे ओर संविधान के समानता के मौलिक अधिकार ओर अनुच्छेद 39 की समान कार्य के लिए समान वेतन की भावना के अनुरूप कार्य करे ना की पंचायती राज व्यवस्था के नाम पर अध्यापकों का शोषण  करे ।  (लेखक स्वय अध्यापक हैं और यह उनके निजी विचार हैं 
१९८५ के बाद शिक्षा में बदलाव विषय पर आयोजित परिचर्चा में इस लेख को  प्रथम स्थान प्रदान  किया गया है)

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  1. सटीक बात।अब तो शोषण कि इंतहा हो गयी।

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