Monday, April 11, 2016

संविधान को बचाना ही राष्ट्रवाद है,राष्टवाद को समझने के लिए संविधान को समझें : वासुदेव शर्मा

भारत महज एक शब्द नहीं है। हम जब भारत में राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो सिर्फ भारत के भौगोलिक नक्शे की बात नहीं करते, बल्कि भारत की संपूर्णता जो इसके इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति, संस्कृति, परंपरा, धर्म और यहां के लोगों में निहित है, उसकी बात करते हैं। यही वजह है कि भारत का राष्ट्रवाद किसी एक धर्म, भाषा, संस्कृति या राजनीतिक सोच से तय नहीं किया जा सकता। भारत में राष्ट्रवाद का विमर्श यहां के संविधान के अनुरूप होना चाहिए और हमारे संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत हम भारत के लोग... से होती है। इसका मतलब है कि भारत का राष्ट्रवाद एकलवादी नहीं बल्कि बहुलवादी है इसलिए पहले ही अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ है। भारत का राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद से बिल्कुल अलग है और भारत के संदर्भ में यह कहना सही होगा कि भारत का राष्ट्रवाद बहुआयामी है और कई राष्ट्रवादी विचारों को अपने में समाहित करता है। भारत के राष्ट्रवाद को जर्मनी की तरह एक राष्ट्र, एक दल, एक नेता की तर्ज पर परिभाषित करना एक खतरनाक परिस्थिति को उत्पन्न करना होगा। अगर हम भारत में राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो यहां की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाली हर भाषा, संस्कृति, पहचान, वर्ग और धर्म के सवा सौ करोड़ लोगों की बात करनी होगी। एक धर्म या संस्कृति की वकालत भारत में राष्ट्रवाद के विमर्श को गलत दिशा में ले जाती है। भारत के राष्ट्रवादी विमर्श में भारत के लोग आधारभूत स्तंभ हैं और भारत विविधता में एकता का बेहतरीन उदाहरण पेश करता है। इस राष्ट्रवादी विमर्श में लोगों की बुनियादी जरूरतों मसलन रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की बात करना और इसको सबके लिए सुलभता से उपलब्ध करवाना ही राष्ट्रवाद है। आज हमारे सामने चुनौती यह है कि राष्ट्रवाद के तथाकथित विमर्श में भारत में रहने वाले लोगों को छोड़कर, उनके हक-अधिकारों की बातों को भुलाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा अगर होता रहा तो न तो भारत आगे बढ़ेगा, न इसका राष्ट्रवाद क्योंकि लोगों के बिना राष्ट्र का अपना कोई आस्तित्व नहीं होता। इसलिए अगर भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूत करना है तो यहां के किसानों की आत्महत्या, खेती की दुर्दशा, शिक्षा और रोजगार की बदहाली, मजदूरों और छोटे व्यापारियों के शोषण पर बात करनी होगी, इसका समाधान ढूंढना होगा। वित्तीय पूंजी की लूट से उत्पादन एवं संसाधनों को बचाना होगा क्योंकि भूमंडलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय राज्य एवं लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा खतरे में है। ऐसे में नवउदारवादी सरकार अगर राष्ट्रवाद के राग अलापे तो हमें इस अंतर्विरोध को समझते हुए लोगों के पक्ष में लोकतंत्र के साथ संविधान को बचाना ही राष्ट्रवाद है।

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Monday, April 11, 2016

संविधान को बचाना ही राष्ट्रवाद है,राष्टवाद को समझने के लिए संविधान को समझें : वासुदेव शर्मा

भारत महज एक शब्द नहीं है। हम जब भारत में राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो सिर्फ भारत के भौगोलिक नक्शे की बात नहीं करते, बल्कि भारत की संपूर्णता जो इसके इतिहास, भूगोल, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति, संस्कृति, परंपरा, धर्म और यहां के लोगों में निहित है, उसकी बात करते हैं। यही वजह है कि भारत का राष्ट्रवाद किसी एक धर्म, भाषा, संस्कृति या राजनीतिक सोच से तय नहीं किया जा सकता। भारत में राष्ट्रवाद का विमर्श यहां के संविधान के अनुरूप होना चाहिए और हमारे संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत हम भारत के लोग... से होती है। इसका मतलब है कि भारत का राष्ट्रवाद एकलवादी नहीं बल्कि बहुलवादी है इसलिए पहले ही अनुच्छेद में कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ है। भारत का राष्ट्रवाद यूरोप के राष्ट्रवाद से बिल्कुल अलग है और भारत के संदर्भ में यह कहना सही होगा कि भारत का राष्ट्रवाद बहुआयामी है और कई राष्ट्रवादी विचारों को अपने में समाहित करता है। भारत के राष्ट्रवाद को जर्मनी की तरह एक राष्ट्र, एक दल, एक नेता की तर्ज पर परिभाषित करना एक खतरनाक परिस्थिति को उत्पन्न करना होगा। अगर हम भारत में राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो यहां की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाली हर भाषा, संस्कृति, पहचान, वर्ग और धर्म के सवा सौ करोड़ लोगों की बात करनी होगी। एक धर्म या संस्कृति की वकालत भारत में राष्ट्रवाद के विमर्श को गलत दिशा में ले जाती है। भारत के राष्ट्रवादी विमर्श में भारत के लोग आधारभूत स्तंभ हैं और भारत विविधता में एकता का बेहतरीन उदाहरण पेश करता है। इस राष्ट्रवादी विमर्श में लोगों की बुनियादी जरूरतों मसलन रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की बात करना और इसको सबके लिए सुलभता से उपलब्ध करवाना ही राष्ट्रवाद है। आज हमारे सामने चुनौती यह है कि राष्ट्रवाद के तथाकथित विमर्श में भारत में रहने वाले लोगों को छोड़कर, उनके हक-अधिकारों की बातों को भुलाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा अगर होता रहा तो न तो भारत आगे बढ़ेगा, न इसका राष्ट्रवाद क्योंकि लोगों के बिना राष्ट्र का अपना कोई आस्तित्व नहीं होता। इसलिए अगर भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूत करना है तो यहां के किसानों की आत्महत्या, खेती की दुर्दशा, शिक्षा और रोजगार की बदहाली, मजदूरों और छोटे व्यापारियों के शोषण पर बात करनी होगी, इसका समाधान ढूंढना होगा। वित्तीय पूंजी की लूट से उत्पादन एवं संसाधनों को बचाना होगा क्योंकि भूमंडलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय राज्य एवं लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा खतरे में है। ऐसे में नवउदारवादी सरकार अगर राष्ट्रवाद के राग अलापे तो हमें इस अंतर्विरोध को समझते हुए लोगों के पक्ष में लोकतंत्र के साथ संविधान को बचाना ही राष्ट्रवाद है।

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