Thursday, April 21, 2016

समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प:-सियाराम पटेल

समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प

देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षति करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2  आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों  आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।  सियाराम पटेल  
लेखक आई टी सेल, राज्य अध्यापक संघ के सदस्य हैं और नरसिंपुर जिले के हैं।       

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Thursday, April 21, 2016

समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प:-सियाराम पटेल

समान स्कूल प्रणाली एकमात्र विकल्प

देश के सारे बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके, इसके लिए यह भी जरुरी है कि देश में कानून बनाकर पड़ोसी स्कूल पर आधारित समान स्कूल प्रणाली लागू की जाए। इसका मतलब यह है कि एक गांव या एक मोहल्ले के सारे बच्चे (अमीर या गरीब, लड़के या लड़की, किसी भी जाति या धर्म के) एक ही स्कूल में पढ़ेंगे। इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाएगी और सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाएगी। यह जिम्मेदारी सरकार की होगी और शिक्षा के सारे खर्च सरकार द्वारा वहन किए जाएंगे। सामान्यत: स्कूल सरकारी होगें, किन्तु फीस न लेने वाले परोपकारी उद्देश्य से (न कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से) चलने वाले कुछ निजी स्कूल भी इसका हिस्सा हो सकते हैं। जब बिना भेदभाव के बड़े-छोटे, अमीर-गरीब परिवारों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ेगें तो अपने आप उन स्कूलों की उपेक्षा दूर होगी, उन पर सबका ध्यान होगा और उनका स्तर ऊपर उठेगा। भारत के सारे बच्चों को शिक्षति करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। दुनिया के मौजूदा विकसित देशों में कमोबेश इसी तरह की स्कूल व्यवस्था रही है और इसी तरह से वे सबको शिक्षति बनाने का लक्ष्य हासिल कर पाए हैं। समान स्कूल प्रणाली का प्रावधान किए बगैर शिक्षा अधिकार विधेयक महज एक छलावा है।
इस विधेयक में और कई कमियां हैं। यह सिर्फ 6 से 14 वर्ष की उम्र तक (कक्षा 1 से 8 तक) की शिक्षा का अधिकार देने की बात करता है। इसका मतलब है कि बहुसंख्यक बच्चे कक्षा 8 के बाद शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। कक्षा 1 से पहले पू्र्व प्राथमिक शिक्षा भी महत्वपू्र्ण है। उसे अधिकार के दायरे से बाहर रखने का मतलब है सिर्फ साधन संपन्न बच्चों को ही केजी-1, केजी-2  आदि की शिक्षा पाने का अधिकार रहेगा। शुरुआत से ही भेदभाव की नींव इस विधेयक द्वारा डाली जा रही है।
शिक्षा अधिकार विधेयक में निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों का आरक्षण गरीब बच्चों के लिए करने का प्रावधान किया गया है और उनकी ट्यूशन फीस का भुगतान सरकार करेगी। किन्तु महंगे निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा कई तरह के अन्य शुल्क लिए जाते हैं, क्या उनका भुगतान गरीब परिवार कर सकेगें ? क्या ड्रेस, कापी-किताबों  आदि का भारी खर्च वे उठा पाएंगे ? क्या यह एक ढकोसला नहीं होगा ? फिर क्या इस प्रावधान से गरीब बच्चों की शिक्षा का सवाल हल हो जाएगा ? वर्तमान में देश में स्कूल आयु वर्ग के 19 करोड़ बच्चे हैं। इनमें से लगभग 4 करोड़ निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। मान लिया जाए कि इस विधेयक के पास होने के बाद निजी स्कूलों में और 25 प्रतिशत यानि 1 करोड़ गरीब बच्चों का दाखिला हो जाएगा, तो भी बाकी 14 करोड़ बच्चों का क्या होगा ? इसी प्रकार जब सरकार गरीब प्रतिभाशाली बच्चों के लिए नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा कन्या विद्यालय, उत्कृष्ट विद्यालय और अब प्रस्तावित मॉडल स्कूल खोलती है, तो बाकी विशाल संख्या में बच्चे और ज्यादा उपेक्षति हो जाते है। ऐसी हालत में, देश के हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार देने की बात महज एक लफ्फाजी बनकर रह जाती है।  सियाराम पटेल  
लेखक आई टी सेल, राज्य अध्यापक संघ के सदस्य हैं और नरसिंपुर जिले के हैं।       

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